कितनी खुश थी वह जब निखिल ने आकर उसे सुनाया था कि कम्पनी उसे १ साल के किसी प्रोजेक्ट के लिए लन्दन भेज रही है। खिल गई थी वो, कि चलो एक साल ही सही घर के इस माहौल से तो निकलेगी, उसे निखिल के साथ अकेले समय मिलेगा, बिना टोका- टाकी वह एक दूसरे को कम से कम, समझने की कोशिश तो कर सकेंगे। उसे पूरा विश्वास था कि यह वक़्त जरूर उसकी शादीशुदा जिन्दगी के लिए वरदान साबित होगा। ख़्वाहिश थी ही क्या उसकी। सिर्फ इतनी कि एक सामान्य शादी शुदा जोड़े की तरह वह अपनी जिन्दगी जियें। शहर के सबसे नामी इंस्टीटयूट से उच्चस्तरीय पढाई की थी उसने। लोग मरा करते थे वहां दाखिला लेने के लिए। उसने सोचा था शादी होकर क्या बिगड़ जाएगा, क्या हुआ जो निखिल की माँ हमारे साथ रहेगी। अच्छा ही है। वह शादी के बाद अपना कोई काम शुरू कर लेगी, बिज़ी हो जाएगी तो निखिल को और उसे, माँ का सहारा रहेगा। एक छोटी सी दुनिया में खुश रहेंगे सब।निखिल ने कहा था की वह अपनी माँ से अलग नहीं रहेगा। वह सब उस की माँ के घर ही रहेंगे। कितना खुश हुई थी विजया तब। उसने सुना था कहीं, कि जो लड़का अपनी माँ से प्यार करता है वह अपनी बीवी को भी उतना ही चाहता है।
पर पहले ही दिन उस घर में पहुँचते ही उसे लगा कि जैसे उसे यहाँ नहीं होना चाहिए। फिर उसने अपने दिमाग को झिड़क दिया। आखिर अनजान जगह है, अनजान लोग हैं ऐसा तो लगेगा ही। और फिर वह दूसरे ही दिन निखिल के ही एक दोस्त की जिद पर औपचारिकता के लिए हनीमून पर, पास के ही हिल स्टेशन पर चले गए थे। निखिल अपनी माँ को छोड़कर नहीं जाना चाहता था। उसकी माँ का भी कहना था कि जरुरत ही क्या है , यहाँ भी कौन सी भीड़ है , इतना बड़ा घर है और तीन प्राणी .मैं अकेली बूढ़ी क्या तुम्हें डिस्टर्ब करुँगी। यह बात भी विजया को बाद में एक दिन, उसी दोस्त ने बातों बातों में बताई थी। तब तो वे चले ही गए थे। कितनी ऊर्जा थी विजया में तब, कितना बोलती थी . सारे रास्ते वही बोलती गई। निखिल कभी अपनी माँ से तो कभी ऑफिस में किसी न किसी से फ़ोन पर बात करता रहा। एक बार टोका भी विजया ने। तो उसने बेरुखी से कह दिया शादी की थकान है बहुत।अब बात तो सारी जिन्दगी तुम्हीं से करनी है ,और चद्दर तान के सो गया था। उसके बाद ७ दिन का हनीमून ३ दिन में समेट दिया, उसने ऑफिस में काम का बहाना बनाकर. वे तीन दिन भी विजया को हर पल लगता रहा जैसे हनीमून उसका अकेली का है निखिल तो कहीं उसके साथ है ही नहीं . कहीं कुछ दरका तो जरूर पर समझा लिया उसने खुद को। कोई जरूरी है हर आदमी एक सा ही हो, उसका निखिल उसकी सहेलियों के पतियों से अलग भी तो हो सकता है। जिनके पूरे हनीमून के दौरान होटल के बंद कमरे में पत्नियों पर टूटे पड़े होने के किस्से वो सुनती आई थी। आखिर यही तो हनीमून का मतलब नहीं। और सारी जिन्दगी पड़ी है साथ साथ ..जरूरी है सब कुछ हनीमून पर ही निबटा लिया जाये। यूँ उसे खुद भी तो उन ऊँचे पहाड़ों पर हाथ में हाथ डाल कर चढ़ने का ही मन था। परन्तु निखिल कुछ ज्यादा ही थका हुआ था ,हो भी क्यों न , उसका अपना घर तो भरा पूरा था। मम्मी , पापा दोनों के तरफ के रिश्तेदार इतने आपस में गुंथे हुए थे कि कभी लगता ही नहीं था अलग- अलग घर में रहते हैं। शादी का सारा काम कब कैसे हुआ पता ही नहीं चला , पर निखिल के यहाँ तो वह और उसकी माँ ही सब देख रहे थे। जाहिर है थकान तो होगी ही। अच्छा हुआ जल्दी ही जा रहे हैं घर। ४ छुट्टियां बाकी थीं निखिल की। घर पर आराम कर लेगा वो.
अगले दिन घर पहुँचते ही उसने मन बना लिया था कि इस घर को वह अपने आर्ट स्किल से एकदम बदल कर रख देगी। जाने क्यों उस घर में उसे हमेशा एक उदासी बिखरी दीखा करती थी। वह उन खामोश दीवारों को सजा कर मुखर कर देना चाहती थी। और इसीलिए अपने हाथ से बना एक खुशनुमा रंगविरंगा सा पोस्टर उसने लीविंग एरिया की एक खाली दिवार पर लगा दिया था। कैसी सजीव हो उठी थी दीवार। देखकर ही एक पॉजिटिव एनर्जी महसूस होती थी।
शाम की चाय बनाने वह ऊपर अपने कमरे से नीचे आई तो देखा कि तस्वीर गायब थी. वह झट से जाकर निखिल की मम्मी से बोली -अरे मम्मी जी एक पेंटिंग लगाईं थी मैंने कहाँ गई ? अरे बहुत ही चीप लग रही थी। मैंने स्टोर में रख दी है।तुम्हें यह सब करना है तो अपने कमरे में करो. विजया को लगा जैसे पेंटिंग के साथ साथ उसे भी स्टोर में डाल दिया गया है। फिर उसके बाद तो वह जो भी करती मम्मी जी को कभी पसंद नहीं आता था।
किसी भी काम को करने के बाद वह उसे खुद करतीं और फिर निखिल के ऑफिस आने पर थकान और तबियत का रोना रोतीं। निखिल कभी उसे कुछ कहता नहीं था, न ही कुछ पूछता था। हालाँकि वह चाहती थी की वह कुछ बोले तो वह भी अपनी बात कह सके। ऐसे तो वह जो भी कहेगी निखिल गलत ही समझेगा। पर ऐसा होता ही नहीं था। धीरे धीरे विजया ने काम करने कम कर दिए। बस जरुरत भर के काम ही करती। उसमें भी सारा दिन मम्मी जी की बातें सुनती। उस दिन तो हद ही हो गई जब दिवाली पर विजया की बड़े शौक से लायी मोमबत्ती भी मम्मी जी ने लगाने से मना कर दिया, और उसकी बनाई रंगोली भी फैला दी, यहाँ तक कि पूजा का दिया तक उसे जलाने न दिया। विजया भरे पूरे घर में रही थी।हर तरह के व्यक्ति से निभाने की आदत थी उसे , पर पता नहीं ये मम्मी जी किस मिट्टी की बनी थीं, उसकी समझ से एकदम बाहर की बात थी। पता नहीं वो चाहती क्या थीं। बहु तो वह नहीं मानती थीं उसे, उस घर की एक सदस्य भी नहीं, पर शायद अपने बेटे की बीवी भी नहीं मानना चाहती थीं। हालाँकि शादी उसकी, दोनों तरफ के माता पिता ने ही अरेंज की थी अत: निखिल की माँ की सहमति से ही हुई थी।परन्तु वह निखिल को विजया के पास फटकने भी नहीं देना चाहती थी। कभी विजया निखिल के पास भी बैठ जाती तो किसी बहाने उसे उठा कर खुद वहां बैठ जाती। रात को जब तक संभव होता किसी न किसी बहाने निखिल को नीचे ही रोके रखतीं। उसकी समझ में नहीं आता था कि आखिर निखिल की शादी उन्होंने की ही क्यों है, निखिल को भी शादी की कोई जरुरत महसूस नहीं होती थी। तो क्या समाज के दवाब में उन्हें घर में एक लड़की नाम की जंतु चाहिए थी बस, जो बहु बनकर उस घर के एक खूंटे से बंधी रहती और जिसकी आड़ में वह अपने बेटे की नपुंसकता छिपा सकती थीं और समाज का मुंह बंद कर सकती थीं.
कौन कहता है आपने पहली बार कहानी लिखी? अद्भुत शिल्पकार की तरह कथ्य को संवारा गया है और प्रवाह पाठक को विचारो की झिझिनी का आनंद प्रदान करता है . प्रारम्भ से ही कथानक रोचकता लिए है . मानवीय मस्तिस्क और विचारों को प्रशंशनीय ढंग से आपने मूर्त रूप दिया है . कहानी समाज की विसंगति को जोरदारी से इंगित है विचारो के झंझावत उठाती है .स्वस्ति स्वस्ति .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा – सोमवार – 16/09/2013 को
कानून और दंड – हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः19 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर …. Darshan jangra
विकट परिस्थितियों में पले बढे पुत्र के माँ से अत्यधिक लगाव वाले भिन्न प्रकार की मानसिक स्थिति से कैसे पटरी बैठेगी , देखे आगे क्या हो।
अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी, पहली कड़ी में आपने रोचकता के विस्तार बो दिये हैं।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-09-2013) गुज़ारिश प्रथम पुरूष की :चर्चामंच 1370 में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका प्रयास बहुत सुन्दर है …. आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी…
शिखा जो अच्छा लिखता है वह हर विधा की नब्ज़ पकड़ लेता है …तुमने भी बखूबी बाँधा है ….अगली कड़ी का इंतज़ार है
second part jaldi se…. intezaar nahi ho raha jabardast
शुरुआत प्रभावी है और रोचक भी …..
परिस्थितियाँ ही मानसिकता को आकार देती हैं …. अभिमान छोड़ दें लेकिन स्वाभिमान को नहीं छोड़ना चाहिए …. कहानी का शिल्प काफी सुगठित है … पाठक को जिज्ञासु बनाए रखता है …. और इसी जिज्ञासा से कि क्या अंत होगा आगे की कड़ी का इंतज़ार है ….
सुघड शिल्पकार की तरह लिखी हुई … अंत तक जिज्ञ जगाये रक्खी आपने इस कहानी में … बहुत ती रोचक ताना बाना बुना है जो अगली कड़ी की प्रतीक्षा को बेताब बनाता है …
आपका प्रयास बहुत सुन्दर है
आज की चर्चा : ज़िन्दगी एक संघर्ष — हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल चर्चा : अंक-005
हिंदी दुनिया — शुभारंभ
सच परिस्थितियाँ क्या कुछ न करा देती हैं ..
बहुत बढ़िया प्रशंनीय प्रस्तुति
ऐसी ही एक मिलती जुलती कहानी मेरे भी कहानी संग्रह का हिस्सा हैं…और वो संग्रह जल्दी ही आने भी वाला है
वाह .. जब संग्रह आयेगा बताइयेगा, जरूर पढेंगे.
बढ़िया प्रशंनीय प्रस्तुति .
agli kadi ka intzaar rehega……….badhai bahut hi sundar prastuti………..
EK SUNDER RACHNA…
अनुभव अनेकों पत्नियों के ऐसे ही होते हैं माँ की अपनी कूटनीति होती है बेटे पर अधिकार बनाए रखने की …..सुन्दर लेखन शिखा महिलाओं का यही भाग्य है हमारे समाज और परिवारों में केवल मातापिता की अपेक्षाओं की भर पाई के लिए बने रिश्ते यूँ ही चलते हैं ..
पढ रहे हैं. दूसरा भाग पढने जा रहे हैं.
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