बात उन दिनों की है जब हम अमेरिका में रहते थे. एक दिन हमें हमारे बच्चों के स्कूल से एक इनविटेशन कार्ड मिला | उसकी क्लास के एक बच्चे का बर्थडे था. बच्चे छोटे थे, ये पहला मौका था जब किसी गैर भारतीय की किसी पार्टी में उन्हें बुलाया गया था तो हम एक अच्छा सा गिफ्ट लेकर ( पढने लिखने वाला ) पहुँच गए बच्चों को लेकर | एक प्ले एरिया में पार्टी थी वहां बच्चों को ले लिया गया और हमें कहा गया कि जी ३ घंटे बाद आ कर ले जाना | किसी ने बैठने को तो क्या एक ग्लास पानी को नहीं पूछा ठीक भी था आखिर बच्चों को निमंत्रित किया गया था उनके माता -पिता को नहीं। हमने पूरे होंठ फैला कर एक मुस्कान दी और उलटे पाँव लौट लिए | अब जगह हमारे घर से काफी दूर थी कहाँ जाते?, तो वहीँ के कैफे में बैठ गए. बच्चों की पार्टी देखते रहे और अपने पैसों से कॉफी पीते रहे. खैर पार्टी ख़तम हुई तो हम लेने पहुंचे बच्चों को, तो पता चला अभी एक कार्यक्रम और बाकी है | हम वहीँ खड़े हो कर देखने लगे कि देखें क्या होता है… तो हुआ ये कि सारे प्रेजेंट्स लाकर बर्थडे बॉय के पास रख दिए गए और पास में उसकी मॉम बैठ गई एक पेन और पेपर लेकर और बच्चे ने शुरू किया एक एक करके गिफ्ट्स खोलना | वो एक एक गिफ्ट्स खोलता जाता और देने वाले को थैंक्स बोलता जाता और उसकी मम्मी अपनी डायरी में नोट करती जाती. अचानक हमें भारत में हुई शादियों का दृश्य याद आ गया जहाँ दुल्हन दुल्हे के पास उसकी बुआ या बहन खड़ी होती है अपना मोटा सा पर्स लिए और हर मेहमान से लिफाफा ले लेकर पर्स में रखती जाती है और उसका नाम लिखती जाती है। शुकर है लिफाफा वहीँ खोल कर नहीं देखा जाता। हमारे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी क्योंकि जितने भी गिफ्ट्स खुल रहे थे, सब एक ही करैक्टर (कार्टून करैक्टर) के थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कि हमारे करैक्टरलेस गिफ्ट का क्या रिएक्शन होगा उसपर | पर कर क्या सकते थे खड़े रहे. हमारे गिफ्ट की बारी आई… उसने धीरे से कहा थैंक्स…और एक तरफ रख दिया. लौटते हुए हम अपनी ख्यालों के फ्लैश बैक में चलते रहे …- जब हमारे भारत में किसी बच्चे का बर्थडे होता था तो गिफ्ट लेते हुए मम्मियां मना करती रहती थीं कि इसकी क्या जरुरत है और पीछे से बच्चा मम्मी का पल्लू खींचता रहता था कि क्यों मना कर रही हो, हम भी तो लेकर जाते हैं ना. और बेचारा इंतज़ार करता था कि कब मम्मियों का ये औपचारिक व्यवहार ख़तम हो और कब मम्मी उसे कहे कि ये लो इसे अन्दर वाले कमरे में जाकर रख दो. फिर सारी पार्टी भर बच्चा उन गिफ्ट्स को निहारता रहता था. कभी चुपके से किसी का थोडा सा पेपर हटा कर देखने कि कोशिश भी कर लेता था तो तुरंत पापा की आवाज़ आती थी, ये क्या बदतमीजी है? मैनर्स नहीं हैं जरा भी. भगवान जब सब्र बाँट रहा था तो सबसे पीछे खड़े थे क्या ?. मेहमानों को चले तो जाने दो, तब खोलना। बच्चा बेचारा अपना सा मुँह लिए मेहमानों के जाने का इंतज़ार करता रहता और उनके जाते ही टूट पड़ता गिफ्ट्स पर.
खैर घर आ गया. हम अपनी ख्यालों की दुनिया से बाहर आये और निश्चित किया कि इस बारे में यहीं के किसी पुराने बाशिंदे से बात करेंगे और अपनी जर्नल नॉलेज बढायेंगे। और हमने ऐसा किया भी | पता चला कि अमूमन तो इनविटेशन कार्ड पर ही बच्चे की पसंद लिखी होती है और अगर नहीं तो, हमें इनविटेशन मिलने के बाद उन्हें फ़ोन करके पूछना चाहिए था कि बच्चा क्या पसंद करता है, उसे कौन सा कार्टून करैक्टर पसंद है? और फिर वही गिफ्ट लेना चाहिए। खैर ये बात हमारे गले से उतरी तो नहीं पर फिर भी हमने गाँठ बाँध ली. अब बच्चे तो वहीँ पालने थे.फिर कुछ दिनों बाद हमारी इस जर्नल नॉलेज में एक और इजाफा हुआ, जब हम एक सुपर स्टोर में खड़े कुछ निहार रहे थे तो पास ही एक जोड़ा वहां लगी एक कम्पूटर स्क्रीन पर एक लिस्ट बनाने में मसरूफ़ था. बहुत उत्साहित था. हमें बात समझ में नहीं आई .खैर वो वहां से खिसके तो हमने उस कंप्यूटर तो टटोलना शुरू किया, तो पता चला कि वो कंप्यूटर विशलिस्ट बनाने की मशीन है…नहीं समझे ? अभी समझाते हैं | असल में जब कोई भी किसी उत्सव को आयोजित करता है- मसलन शादी का, या गृह प्रवेश या कुछ भी, तो उसे जिस चीज़ की भी जरुरत या चाह होती है नई जिन्दगी या घर के लिए, तो वो वहां पर एक लिस्ट बना लेता है, जो उस स्टोर के साथ रजिस्टर हो जाती है. और जिसका लिंक हर मेहमान को दे दिया जाता है, कि जिससे जो भी कोई गिफ्ट लेकर आये वो उस लिस्ट को देखे जिसमें झाड़ू से लेकर होम थियेटर तक सब लिस्टेड है और अपनी औकात के अनुसार गिफ्ट चुन ले और पैसे दे दे. वो गिफ्ट उसके नाम से मेज़बान तक पंहुचा दिया जायेगा। कोई झंझट नहीं और पैकिंग पेपर भी बचा. मेज़बान को भी अपनी जरुरत और पसंद की चीज़ मिली, कोई घर में रखा फालतू शो पीस नहीं 🙂 .तो जी बड़ा प्रेक्टिकल है सबकुछ. हमें ये देख कर हैरानी भी हुई और दुःख भी | हैरानी इसलिए कि कहाँ पहुँच गया जमाना और हम अभी तक वहीँ हैं कि जी तोहफे की कीमत नहीं, देने वाले की नीयत देखी जाती है. और दुःख इसलिए कि हमने अपने माता पिता की कितनी डांट खाई है जब किसी गिफ्ट को देखकर मुँह बिसूरा करते थे और तपाक से सुनने को मिलता था गिफ्ट्स लेने के लिए किसी को पार्टी में बुलाते हो क्या ? जाने क्या सीखते हैं आजकल स्कूलों में. और बड़ी देर तक मम्मी शिक्षा और संस्कारों पर भाषण देती रहती थीं.
मस्त. बिंदास. सच.
यहाँ भारत में भी जल्द ही ये सब होने वाला है…बहुत रोचक ढंग से पोस्ट लिखी है आपने…लेकिन जो मज़ा अन्दर क्या है ये जाने बिना गिफ्ट खोलने में आता है वो मज़ा जानी पहचानी वस्तु की गिफ्ट मिलने में नहीं…
नीरज
आखीर अमेरिका है भई कुछ तो ख्याल रखा होता । अगर ओबामा को गिफ्ट देना होगा तो आप क्या देगेँ उन्हे,फोन करके उनसे हि पुछ लिजीऐ ।
etips-blog.blogspot.com
यही तो संस्कृति का फ़र्क है…………………।बहुत ही रोचक लिखा और वहाँ के बारे मे भी जानने को मिला।
hahahahahahahaah, bakya bakai shaandar he, aapne achche se isko carft kiya, maja aa gaya,
अपने देश और परदेश मे यही तो फ़र्क है बहोत ही अच्छा लिखा है आपने, धन्यवाद
हम अभी तक वहीँ हैं कि जी तोहफे की कीमत नहीं, देने वाले की नीयत देखी जाती है
न कीमत, न नीयत, उनसे ऊपर – उपयोगिता (usabilty versus formality)
हकीकत को बयां करती अच्छी रचना शिखा।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
apni apni sanskrati hai
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
इस प्रकार की पोस्ट से हमें विदेशों के बारे में जानने को मिलता है। आपका धन्यवाद इस प्रकार की पोस्ट लिखने के लिए। ये सब संस्कारों की बात हैं कि हम उपहार कैसे देते हैं और लेने वाले कैसे लेते हैं, मन से या तन से……….
कितना व्यवस्थित है न सब कुछ वहां !
Hamare desh me,jahan,rishte qareebi hote hain,to zaroor poochh liya jata hai( shadi byah ke mamle me)ki,ladki ya ladka kya pasand karega.Us mutabiq tohfa shadi se poorv hee de diya jata hai. Yah pratha to mere pariwar me kayi,kayi pushton se hai. Denewala apna budget bhi bata deta hai. Yah to wyavharik hai.
Jahan jaan pahchaan na ho aise pariwar me kisee bhi wyakti ko tohfa dena kathin hota hai.
मज़ा आ गया शिखा…. संस्कार देने में तो हमारा भारत महान रहा है….मुझे भी याद आ गया वह लालची पल….
पर अमेरिका तो मस्त है, हम भी ऐसा करें क्या आज से?
करेक्टर लेस गिफ्ट , पोस्ट की शीर्षक देखने के बाद मैंने सोचा किसी ने किसी को चरित्रहीनता का तोहफा दिया है , हा हा . लेकिन माजरा तो कुछ और है. ये सत्य है की हमारा समाज अभी भी संकोच करता है तोहफे लेने में (मै अंडर टेबल की बात नहीं कर रहा हूँ) , आपने वो लिफाफे वाली बात करके मुझे अभी कुछ दिनों पहले एक शादी में सम्मिलित होने की याद दिला दी. मुझे वहा तिलक वाले दिन लिफाफे लेने का काम दिया गया था..अंकल सैम के देश का संकोच से वैसे भी कोई वास्ता नहीं है तो करेक्टर लेस गिफ्ट लेने में क्या संकोच. वैसे ये प्रचलन हिंदुस्तान में भी आ गया है , आजकल के बच्चे अपनी विश लिस्ट दे देते है अपने फ्रेंड्स के माध्यम से उनके परेंट्स को .मज़ेदार पोस्ट.
,
रोचक संस्मरण ।
par fir surprise kaise rahega aur uska maja…
@दिलीप !
सरप्राइज़ तो रहता ही है सब एक ही गिफ्ट्स नहीं होते ..बल्कि एक ही करेक्टर के होते हैं पर होते अलग अलग हैं.
बहुत अच्छा संस्मरण है वैसे नीरज जी की बात भी सही है कि जो मजअन्दर क्या है ये जानने मे आता है वो जान कर नही। मजेदार पोस्ट है आभार।
विचार – जागृत संस्मरण है !
यही अंतर है , पूर्व और पश्चिम की
विचार-सरणियों में !
याद है न !
सुदामा के तीन मुट्ठी चावल ( इसे 'गिफ्ट'
कहते अपमान लगता है ) के प्रेम पर
करुणा-सिन्धु ने तीनों लोक वार दिया था !
ऐसा कोई उदाहरण है उधर ? शायद नहीं !
😀 superb.. गिफ्ट कहीं भी कैसा भी हो उसका मज़ा ही कुछ और है.. खैर मुझे तो लेने से ज्यादा ख़ुशी देने में होती है..
Achchha laga apka charactor less gift se ruburu hona
तो जी बड़ा प्रेक्टिकल है सबकुछ
सही कहा
बहुत ही बढ़िया जानकारी दी…धीरे धीरे कुछ बातें तो आ रही भारत में भी,लेकिन इतने व्यवस्थित रूप में नहीं…
सबके सामने गिफ्ट खोल कर थैंक्स बोलने का अच्छा किस्सा बताया,…अक्सर ,यहाँ माता-पिता गिफ्ट लाकर बच्चे को थमा देते हैं और वह बिना जाने कि अंदर क्या है,अपने दोस्त को दे देते हैं…कई बार बच्चों के बर्थडे के दूसरे दिन उनके फ्रेंड्स आ कर पूछते थे,"आंटी हमने क्या दिया है..दिखाओ ना ":)
पश्चिम की संस्कृति में लेने का भाव है जबकि हमारी संस्कृति में देने का, इसलिए वे मांग कर लेते हैं और हम लेते समय अपना लालच नहीं दिखाते। हमारे यहाँ तो पूर्व में लड़कियों की शादी में खाना नहीं खाते थे बस लिफाफा देने का रिवाज था और लड़के की शादी में लिफाफा नहीं दिया जाता था। लेकिन आजकल तो लेने की हवस यहाँ पर ही हम पर हावी होती जा रही है।
हा हा मस्त एकदम 🙂
मजा आ गया 🙂
अच्छा हुआ हम भी कुछ सीख गए..वैसे ये विशलिस्ट की बात थोड़ी पता थी, एक दोस्त ने बताई एक बार 😉
वैसे तोहफे की कीमत नहीं, नियत ही देखनी चाहिए 🙂
A Bitter Reality
बड़ी रोचक पोस्ट है…हमारा तो बड़ा ज्ञानवर्धन हो गया जी…कितना फर्क है हमारी और उनकी लाइफ स्टाइल में…हमारे यहाँ तो दुनिया भर की औपचारिकताएं हैं और बच्चों की तो चलती नहीं…(अब थोड़ी-थोड़ी चलने लगी है) रश्मि दी की बात भी सही है हमारे यहाँ बच्चों को खुद ही नहीं पता होता कि उनकी ओर से क्या दिया गया है…
आपकी इस पोस्ट से हमें पहले से ही यूरोप की संस्कृति के विषय में मालूम हो गया … कभी वहा गए तो बड़ा काम आएगा.
अमरीकन वाकई में कैरेक्टरलेस गिफ्ट लेते देते हैं….. ही ही ही ही ….. मांग कर गिफ्ट लेना तो यही ही कहा जायेगा…. ही ही ही ही ….
वाह शिखा जी,
आपके करैक्टर लेस गिफ्ट ने अमेरिकी करैक्टर का पर्दाफाश कर दिया है | बहुत खूब |
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वाह मज़ा आ गया शिखा जी. सही है, हम तो आज भी बच्चे के तपाक से गिफ़्ट ले लेने पर आंखें दिखाते हैं. हमारे बच्चे भी इतने ट्रेंड हो जाते हैं कि बिना हमारी ओर देखे अब वे कोई गिफ़्ट लेते ही नहीं. इशारे खूब समझते हैं हिन्दुस्तानी बच्चे. पश्चिमी तहज़ीब से इसी तरह परिचित कराती रहिए ताकि हमारे ज्ञान में भी इज़ाफ़ा होता रहे 🙂
बढ़िया संस्मरण है…पहले ज़माने में जब लडकी की शादी होती थी तो ज़रूर परिवार वाले पूछ लेते थे की क्या उपहार दिया जाये….ये परम्परा तो भारत की भी थी…पर अब शायद यह नहीं होता…अमेरिका के बारे में जानकारी मिली…लिखा बहुत रोचक है…
अभी कुछ दिन पहले कि बात है.. मैं यहाँ के एक जाने माने रेस्टोरेंट में चेन्नई थाली खाने पहुँच गया.. एक बड़ा सा केला का पत्ता पहले पड़ोसा गया.. फिर चावल कि प्लेट आई.. फिर एक बड़ी सी थाली में ढेर सारे छोटे-छोटे कटोरों में अलग अलग तरह कि सब्जियां, साम्भर, रसम, दही.. वगैरह वगैरह आये.. मैंने थोडा सा चावल निकाल कर केले के पत्ते पर डाला और खाने लगा.. तभी मेरे पास वाले टेबल पर एक बुजुर्ग दम्पति आये और वो भी खाने लगे.. थोड़ी देर तक मुझे देखने के बाद अंकल जी मुझे डांटने लगे.. मैं चौंक गया कि काहे कि डांट रहे हैं.. वे जो बोल रहे थे उसका सार यह था कि "आजकल के युवा, उन्हें जरा भी तमीज नहीं है.. खाना खाने के मैनर भी नहीं आते हैं.. बार बार कहीं प्लेट से चावल निकाला जाता है?" मैं पूरे धैर्य के साथ उनकी डांट सुनी.. फिर उसी धैर्य के साथ उन्हें उत्तर दिया कि "अंकल जी, आप जैसे अपने दाए हाथ(सिर्फ अंगुलियां नहीं, पूरा हाथ) चावल और साम्भर में डाल कर खा रहे हैं, इसे उत्तर भारत में Manner less कहा जाता है.."
कुल मिलाकर मैं यहाँ इन अमेरिकियों पर हँसने वालों से(सनद रहे, हंस कर उनका मजाक उड़ाने वालों से, ना कि थोड़ी बहुत खुले दिल से मस्ती करने वालों से) सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ हर किसी कि अपनी संस्कृति होती है.. अगर वह आपके जैसा नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वे खराब हैं या फिर उनकी संस्कृति महान नहीं है..
By the way, पोस्ट सच में बेहद रोचक और मजेदार था.. 🙂
@PD ! बिलकुल ठीक कहा तुमने सच में अगर अमेरिकन लस्सी की जगह कोक पीते हैं और बड़ा पाव की जगह बर्गर खाते हैं तो ये उनका अपना कल्चर है इसका ये मतलब कतई नहीं कि हम अच्छा खाते हैं और वो जंक. इस बात पर मेरी बहुतों से बहुत लड़ाई भी होती है 🙂 .यहाँ ये पोस्ट लिखने का मकसद सिर्फ एक मजेदार वाकये और जानकारी को बांटना था किसी का मजाक उड़ाना कतई नहीं 🙂 बहुत शुक्रिया तुम्हारी प्रतिक्रिया का.
अमेरिकी संस्कृति की रोचक जानकारी प्राप्त हुई …
सब कुछ यांत्रिक सा लगा …!!
वैसे इतनी बुरी बात नहीं है ये सब ..सही परिपेक्ष में देखें तो …
अंततोगत्वा उनका तरीका ही सही लगता है….और सभी वही अपनायेंगे…ज्यादा देर भी नहीं है…
ये भी खूब रही…
बहुत सुन्दर पोस्ट!
दो देश के लोगों के सोच, बात व्यवहार को दर्शाती जानकारी परक और रोचक पोस्ट!
बहुत खूब!
मजेदार रहा!
aisa bhi hota hai kya………:D
dhanyawaad aapka……..jo aise sansmaran se awgat karwa rahi hai…..:D
kassh aisa hi hota hamare yahan bhi………..ham bhi puri Delhi ko bula lete ………aur invitition ke saath Wish List bhi bhej dete…..:P
BTW आजकल पश्चिम में भी माना जाने लगा है की कोक और बर्गर जंक फ़ूड हैं .
PD ने अच्छा सड़प लगाया
शिखा जी,
ये कैरेक्टर लैस ज़माने के कैरेक्टर लैस सिद्धांत हैं…जहां इनसान से नहीं चीज़ों से प्यार किया जाता है…ऐसे समाज में रिश्ते पूरी तरह बेमानी न हों तो और क्या हों…इससे कहीं अच्छी अपनी ब्लॉग की ये आभासी दुनिया है…जहां पहले न कोई मिला होता है, फिर भी एक-दूसरे को पढ़-पढ़ कर विचारों के माध्यम से खूबसूरत रिश्ते बन जाते हैं…आदत के मुताबिक गाना याद आ रहा है…
हमने देखी है इन रिश्तों की महकती खुशबू,
सिर्फ अहसास है, अहसास ही रहने दो इसे…
जय हिंद…
यह कल्चर तो इण्डिया में भी आ चुका है अब.. मैंने खुद हमारी मित्र की पसंदीदा चीज़ उसकी विशलिस्ट में एक वेबसाईट से खरीद कर गिफ्ट दी है.. पर हाँ इसमें वो सरप्राइजिंग फैक्टर काम नहीं करता.. जिसमे गिफ्ट रैपर को खोलते वक़्त भावनाओ का रोलर कोस्टर चला करता था..
माविय संवेदनाओ को कैच करने का हुनर आपके शब्दों में स्पष्ट दीख्ता है.. और यही आपकी यु एस पी है..
और हाँ जब पोस्ट में पता चला कि गिफ्ट क्यों कैरेक्टर लेस है तो गालो पर एक मुस्कान तैर गयी..
interesting…
बस आपने संक्रमण छोड़ दिया शिखा जी ….अब इसे भारत में फैलते देर नहीं लगेगी ……!!
di…wah…..maan gye…
pehle to mene jab aapke is lekh ka shirshaq pdha to mene kha kuchh edult meter hoga..zigasa bdhi..lekin jese jese padta gya ..to..chehre pr muskaan aane lgi or bhav chenj hote gye..
aapne is lekh ko is trh se likha he ki jese sab kuchh aankho ke saamne ghtit ho rha ho..
vese bhi aap aapki rachnaa ka tana bana ese hi buti he ki patahk
khud usme smajata he..
bahut hi sahi trh se aapne smjhaya ki kitne bhav heen or sirf oupcharikta se ot prot he pashchaty desh vaasi..
padne me bahut umda lga..
meri to slah he hi aapko london me ven (get-out )kr dena chahiye
kiyuki..aap unki pol khol kr rkh deti hen..
iske alava aapne b-dey boy ki uske janma din pr milne vaale gift ke vishay me jo bachche ki mnodsha ka vishlehan kiya he ..subhan allah…aapki kalm ko njar na lge..pradeep kumaar -deep
badhiya jaankaree dee hai shikha….
शिखा,
बहुत बढ़िया जानकारी दी है तुमने. हम भी अब इसी दिशा में जा रहे हैं , लड़की कि शादी में गिफ्ट पूछ कर ही देते हैं ताकि चीज शो पीस न बन जाए और फिर जो दिया जाए उससे लड़की के घर वालों को कुछ तो सामान न खरीदना पड़े. सब कुछ यहाँ इम्पोर्ट हो रहा है तो ये भीहोने लगेगा. वैसे तो हमारे बच्चे भी वहाँ से कुछ न कुछ सीख कर आ रहे हैं.
apni likhi ek ghazal ka sher yaad aa gayua di ..
zamaana kahaan wo kahaan rah gaya
wo maazi me apne nihaan rah gaya..
heheh…waise achha kiya aapne ye baaten share karne leen…mere jaise nipat chirkut aadmi ko cheezen samjhne ki sahuliyat mil gayi…hehehe… aage bhi aisi gyan purn baaton ki ummeed rahegi.. 🙂
जिंदगी की तल्ख सच्चाई दिखा दिया आपने।
——–
भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।
Shikha ji,
Bahut achchhi lagi ye post, kitna rochak likha aapne 🙂
Aur haan, main bhi PD ji se aksharsh sahmati rakhta hun.
Kisi bhi sanskriti ko asaabhya kahna apni sanskriti par laanchan lagana hai.
Waise thoda ajeeb lage par long term usability jyada rahti hai in character (jaisa ki aapne kaha) gifts ki.
Shukriya ise share karne ka
शायद ये हमारी संस्कृतियों का अंतर है। वो हमसे बहुत इतर सोच रखते हैं।
bas itna hi kahunga,ke arjuen samate aksar hum apnon ke paas jate hain,ye baat aur hai ke hum un par kitne khare utar pate hain.
it'a a good example n very well explained,happy to see some indian old literature style touch……………….
@ P D & अगर वह आपके जैसा नहीं है तो इसका मतलब यह
नहीं कि वे खराब हैं या फिर उनकी संस्कृति महान नहीं है..
— कुछ लिखा है मैंने इसलिए स्पष्टीकरण हेतु हाजिर हुआ !
मेरा लक्ष्य किसी संस्कृति को नीचा दिखाना नहीं है , बस अपनी
विचार-सरणियों की विशेषता बताना है ! मैं स्वयं यथार्थ – चिंतन
की यूरोपीय पद्धति की तारीफ़ करता हूँ ! पर कोलोनियल इफेक्ट
में काफी कुछ ऐसा कह दिया गया है जिसपर सो काल्ड थर्ड वर्ड
कंट्रीज की तरफ से कुछ बोलना जरूरी लगता है ! आभार !
अच्छा khoob sansmaran .है. ..समय हो तो पढ़ें जीने का तमाशा http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/06/blog-post_18.html
शहरोज़
अद्भुत !!
पता नही, कैसे झेला होगा ये सब।…
वैसे भारत की कुछ कामन बातें देख कर मन में गुदगुदी भी हुई।
हमने पूरे होंठ फैला कर एक मुस्कान दी और उलटे पाँव लौट लिए |
isi muskaan ke saath hamne bhi kai gyaan hasil kiye ,lekh bahut hi jordaar raha ,aese avasaro ki tasvir taza ho gayi ,sach chand se door nahi hum .apne mitr ke yahan baithi rahi tab aapki rashmi ji ki charcha chal rahi thi aur tabhi laga arse ho gaye aapke blog par gaye aur aapka khyaal khich laya ,par yahan ka rang manmohak raha .
वैसे जो भी कहो … गिफ्ट खोलने में मज़ा तो बहुत आता है … इंतज़ार नही होता …. पर ये सच है की ऐसे संस्कार किसी काम के नही …. आपका लिखने का अंदाज़ बहुत अच्छा है … रोचकता बनी रहती है पढ़ने में …
क्या जमाना आ गया. हमने कई निमंत्रण पत्र देखे हैं जिसमे स्पष्ट लिखा हुआ होता था कि किसी भी प्रकार का उपहार न लायें. भारत में अभी भी कुछ शालीनता बची है. सुन्दर पोस्ट. आभार.
bahot achcha anubhaw likhi hain.
हमारे साथ भी एक बार ऎसा ही हुआ था, उस समय मेरी रेडी मेट कपडे का स्टोर था, ओर एक दिन एक बच्ची अपने मां बाप के संग हमारे स्टोर मै आई, उसे एक फ़राक बहुत पसंद आया, जो काफ़ी महंगा था, मां बाप ने उसे दुसरा फ़राक ले दिया, जब कि बच्ची उस पहले वाले फ़राक को अन्त तक प्यार से देखती रही….. बाद मै मेरे बच्चो ने मुझे बताया कि यह लडकी हमारी कलास मै है, ओर दुसरे दिन बच्चो को उस ने जन्म दिन पर आने का निमंत्रण दे दिया, अब हम ने वो महंगे वाला फ़राक बहुत अच्छी तरह से पेक कर के बच्ची को जन्म दिन पर दे दिया… ओर नतीजा आप वाला ही हुआ
धन्यवाद इस बात को हम सब से बाटने के लिये
aap bahut active hai:)
vaise ye vha ka hi nhi mere desh ka bhi sach h.
बहुत पसंद आया आपका
ये संस्कारित…….’तोहफ़ा’
बहुत ही बढ़िया जानकारी दी..
शायद ये हमारी संस्कृतियों का अंतर है….
एक बेहतरीन पोस्ट पढने से रह गई थी , वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पोस्टों के लिए इसे सहेज रहा हूं । धन्यवाद ।
बहुत रोचक पोस्ट! एक वाकया याद आता है … गाँव के किसी एक परिवार के लोग शहर से जुड़े हुए थे और अच्छी पोस्टों पर थे .. उनके परिवार की एक शादी के कार्ड पर उन्होंने नोट लिखवाया कि कृपया पार्टी में कोट पैंट और टाई पहन कर ही आयें … (यानी ड्रेस कोड तय कर दिया) और नतीजा ये हुआ कि लोगों ने इसे अपनी तौहीन समझा और शादी सूनी हो गयी …
कभी कभी आधुनिकता और व्यावहारिकता में सामंजस्य भी ज़रूरी हो जाता है … जैसे आज भी गावों या छोटे शहरों के लोग खड़े खड़े खाने के आदी नहीं हो पाए हैं जिससे कई बार असहज स्थिति आ जाती है … हम अपनाते सब कुछ हैं पश्चिम का लेकिन केवल नकल की तर्ज़ पर …
यह चीज हमें तो अच्छी लगी कि कम से कम एक जैसे दो गिफ़्ट तो नहीं आते 🙂
इस संस्मरण से बहुत सी बातें जानने को मिली ..आभार.
अमूमन तो इनविटेशन कार्ड पर ही बच्चे की पसंद लिखी होती है और अगर नहीं तो हमें इनविटेशन मिलने के बाद उन्हें फ़ोन करके पूछना चाहिए था कि बच्चा क्या पसंद करता है उसे कौन सा कार्टून करैक्टर पसंद है और फिर वही गिफ्ट लेना चाहिए खैर ये बात हमारे गले से उतरी तो नहीं पर फिर भी हमने गाँठ बाँध ली अब बच्चे तो वहीँ पालने थे.फिर कुछ दिनों बाद हमारी इस जर्नल नॉलेज में एक और इजाफा हुआ ,जब हम एक सुपर स्टोर में खड़े कुछ निहार रहे थे तो पास ही एक जोड़ा वहां लगी एक कम्पूटर स्क्रीन पर एक लिस्ट बनाने में मसरूफ़ था.और बहुत उत्साहित था हमें बात समझ में नहीं आई .खैर वो वहां से खिसके तो हमने उस कंप्यूटर तो टटोलना शुरू किया , तो पता चला कि वो कंप्यूटर विशलिस्ट बनाने की मशीन है ..
यहाँ भारत में भी जल्द ही ये सब होने वाला है…
बहुत रोचक पोस्ट है
shikha ji behatareen post
nice
आपने जन्मदिन पार्टी का वर्णन बहुत अच्छा लिखा और आपका देश औप राष्ट्र के प्रति चिंतन बहुत है प्लीज इसे उस काम में लगाओ जिसके लिए भगवान ने आपको इतनी उपाधियां और विवेक दिया है आप मेरे लिए सम्मानीय हो और जो भी आप जैसे विचार रखते हो उन सबका में आदर करता हुं
जय हिंद मेरा भी ब्लोग पढकर देखना और कुछ गलती हो तो मार्गदर्शन करना
http://jatshiva.blogspot.com/
khoob kaha shikha di……..do bhinna sanskritiyon ke fark ko bade rochak dhang se prastut kiya hai aapne…
बहुत खूब।
———
क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।
bahut badhiya shikhaa jee
sab se pahle to sheershak hee lekh ko padhane ke liye majboor kar rahaa thaa phir lekh padh kar mujhe to apnee sanskruti par garv mahasoos huaa jahan dene wale kee neeyat dekhee jaatee hai na ki qeemat ,
bas aise hee avagat karaatee rahen
dhanyvad
बहुत रोचक लेख, आज कल जो हो जाये कम है
हमारे यहां इन सबको कमीनापन कहते हैं… कितने पिछड़े हैं हम
(पोस्ट पढ़ने में कुछ देर ज़रूर हो गई लेकिन उम्मीद है कि अमरीकी समाज में अभी भी यही कुछ चल रहा होगा)
बहुत सुन्दर …
…- जब हमारे भारत में किसी बच्चे का बर्थडे होता था तो गिफ्ट लेते हुए मम्मियां मना करती रहती थीं कि इसकी क्या जरुरत है और पीछे से बच्चा मम्मी का पल्लू खींचता रहता था कि क्यों मना कर रही हो हम भी तो लेकर जाते हैं ना. और बेचारा इंतज़ार करता था कि कब मम्मियों का ये औपचारिक व्यवहार ख़तम हो और कब मम्मी उसे कहे कि ये लो इसे अन्दर वाले कमरे में जाकर रख दो .और फिर सारी पार्टी भर बच्चा उन गिफ्ट्स को निहारता रहता था कभी चुपके से किसी को थोडा सा पेपर हटा कर देखने कि कोशिश भी कर लेता था.तो तुरंत पापा की आवाज़ आती थी ये क्या बदतमीजी है, मैनर्स नहीं हैं जरा भी ..भगवान जब सब्र बाँट रहा था तो सबसे पीछे खड़े थे क्या ? .मेहमानों को चले तो जाने दो, तब खोलना , और बच्चा बेचारा अपना सा मुँह लिए मेहमानों के जाने का इंतज़ार करता रहता और उनके जाते ही टूट पड़ता गिफ्ट्स पर.Bahut khoob,hamare ghar ka haal likh diya hai,maza aa gaya.
we sentimental people take it otherwise but the followers of western culture call it PRACTICAL APPROACH.
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यदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने …… आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html
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