मैं बचपन से ही कुछ सनकी टाइप हूँ. मुझे हर बात के पीछे लॉजिक ढूँढने का कीड़ा है ..ये होता है तो क्यों होता है .?.हम ऐसा करते हैं तो क्यों करते हैं ? खासकर हमारे धार्मिक उत्सव और कर्मकांडों के पीछे क्या वजह है ?..इस बारे में जानने को मैं हमेशा उत्सुक रहा करती हूँ .
बचपन में नानी जब धार्मिक गतिविधियाँ किया करती थी तो उनका सिर खाया करती थी ..मसलन वो इतने व्रत क्यों रखती हैं ?हम दिया ही क्यों जलाते हैं? जबकि अब तो बिजली है ,हम मंदिर में घंटी क्यों बजाते हैं? आदि आदि ..और बेचारी नानी के पास कोई भी जबाब नहीं होता था मुझे संतुष्ट करने का, वो अपने विचार से ये कह कर टाल दिया करती थी कि बस हमेशा से होता आ रहा है भगवान का काम है हमें करना चाहिए .पर इन जबाबों से मेरा मन शांत नहीं होता था (हाँ मेरे पापा जरुर कुछ लॉजिकल कारण देने में सफल हो जाते थे )क्योंकि मेरा मानना है कि धर्म कोई भी हो उसके क्रियाकलापों के पीछे कोई ना कोई लॉजिक जरुर होता है और इसी को समझने के लिए इस विषय पर जब भी जो भी मुझे मिला मैने पढ़ डाला ..तो आज से इसी विषय को लेकर अपनी समझ और जो भी मैंने पढ़ा आप लोगों के साथ बाँट रही हूँ .ये सोच कर कि शायद अपने जैसे कुछ झक्कियों की कुछ उत्सुकता शांत हो सके 🙂 और आप भी अगर मेरी इस समझ में कुछ और इज़ाफा कर सके तो आभारी रहूंगी :).
हम ऐसा क्यों करते हैं ?भाग – १ (दिया )
तो शुरू करते हैं..
.भारत के हर घर में दिया जलाया जाता है, सुबह या शाम या दोनों समय .अब प्रश्न यह कि –
हम दिया ही क्यों जलाते हैं ?
प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है ,और अँधेरा अज्ञानता का .ईश्वर ज्ञान प्रमुख है जो हर तरह के ज्ञान को सजीव और प्रकाशित करने का स्रोत है.इसलिए प्रकाश को ईश्वर की तरह ही पूजा जाता है.
जिस प्रकार प्रकाश – अन्धकार को हटाता है उसी प्रकार ज्ञान – अज्ञानता को .ज्ञान हमारी सारी अच्छी या बुरी गतिविधियों को संभालता है (रक्षा करता है )इसलिए हम अपने विचार और कर्म के साक्षी के रूप में हर शुभ काम में दिया जला कर रखते हैं .
अब सवाल ये कि हम बल्ब को क्यों नहीं जला लेते ?वो भी तो अँधेरा मिटाता है .तो दिया जलाने के और आध्यात्मिक महत्व है .दिए का घी या तेल हमारी नकारात्मक प्रवृतियाँ का प्रतीक होता है.तो जब हम आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकाशमान करते हैं ..यानि दिया जलाते हैं तो ये प्रवृतियाँ घटने लगती हैं और अंतत: ख़त्म हो जाती हैं .दिए की लौ हमेशा ऊपर की तरफ जलती है ,उसी तरह हमें भी अपने ज्ञान को ऊँचे आदर्शों को प्राप्त करने के लिए ऊपर उठाना चाहिए.
एक दिया कई सारे और दियों को जला सकता है ,उसी तरह ज्ञान भी बहुत लोगों में बांटा जा सकता है जिसतरह एक दिए से दूसरा दिया जलाने से उसकी रौशनी कम नहीं होती बल्कि प्रकाश बढ़ता है ,उसी तरह ज्ञान बांटने से घटता नहीं बल्कि बढ़ता है और देनेवाला और लेनेवाला दोनों लाभ पाते हैं.
दिया जलाते हुए हम ये श्लोक उच्चारित करते हैं
दीपज्योति: परब्रह्म दीप: सर्वतमोsपह:
दीपेन साध्यते सर्व संध्यादीपो नामोsस्तू ते.
यानि -( जहाँ तक मेरी समझ में आया ).
मैं सुबह/शाम दिया जलाती हूँ ,जिसका प्रकाश स्वयं परम ब्रह्म है .
जो अज्ञानता के अन्धकार को मिटाता है ,
इस प्रकाश से जीवन में सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है.
इस तरह दिया जलाने के पीछे ये लॉजिक मेरी समझ में आया 🙂 .आप भी कुछ कहिये .अगली बार हम जानेंगे ऐसा ही कुछ और…
(कुछ पुस्तकों और जन चर्चाओं पर आधारित).
Diosa,
Sahi bat, or bhi bahut kuchh kahne ko raha gaya, agle part main dekhte hain, Badhai
jankari ke liye dhanywad….par dekhiye to kaha hamari sanskrati apne bachho ke janmdiwas par deep jalakar utsav manane ko kahti hai jo ki sadiyo se hota aaya hai..,par vartman me ham sabhy (tathakathit)hone ki daud me apna janm diwas mombattiya bujhakar(andhera karke ) mana rahe hai..aur to aur cake bhi kat rahe hai jo ko ashubh ka prateek hai..!!
bahut achchhe tareeqe se apni baat rakhee hai aap ne aur sahee tarkon ke saath ,
ham men se bahut saare log kaaran jaane binaa hee apne dharm ke reeti rivaajon ko nibhate hain lekin agar kaaran samajh len to mere vichaar se utsah bhee doona ho ,
dhanyvad aur badhaaee
बिलकुल सही बात है चाहे हम किसी बात को ये पुरानी है– रूढीवादी है कह कर नकार देते हों मगर उनमे उस समय की हिसाब से कुछ न कुछ औचित्य जरूर रहता है ।कुछ तो ऐसी बातें हैं जो हर युग और हर प्राणी के लिये अब भी उतनी ही उपयोगी हैं बहुत अच्छी पोस्ट है। बधाई
बहुत ही जानकारीपूर्ण आलेख शिखा…तुम्हारे प्रमुख गंभीर आलेखों में से एक.
यह लेख तो सहेज कर रखने लायक है बल्कि रट लेने लायक…शायद सब बच्चे तुम्हारी तरह ही सनकी टाइप होते हैं 🙂 उनके सवालों का जबाब अब माता-पिता अच्छी तरह दे पाएंगे और उन्हें सकारात्मक प्रवृत्ति की तरफ प्रेरित कर पायेंगे.
प्रज्वलित दीपक के इतने गुण बताने के लिए सचमुच हमे तुम्हारा आभार प्रगट करना चाहिए..
ऐसे ही और दैदीप्यमान लेखों की प्रतीक्षा में.
तर्क की कसौटी पर जो मान्यता खरी उतरती है!
उसे रूढि नही कहा जा सकता!
आइसे ही सनकी लोगों को जिज्ञासु कहते हैं…. हर बात की तह तक जानने की इच्छा ….बहुत सटीक और सुन्दर आलेख….अपनी परम्पराओं का बताता हुआ… बहुत ज़रूरी है की जीवन की नकारात्मकता खत्म हो…और जिस तरह से तुमने समझाया है नि:संदेह बहुत प्रभावशाली है ….बहुत बहुत बधाई
सही है,दीप अज्ञान के अन्धकार को दूर कर ज्ञान के प्रकटीकरण का प्रतीक है। निश्चित ही ज्ञान के प्रकट होने से सुख,समृद्धि,शुभ मंगल का आगमन होता है।
इन प्रतिकों के साथ ही बोध को ग्रहण करना चाहिए।
अगर मान्यातायें तर्क संगत हों तो विश्वास बढ़ जाता है. इसमें सनक कैसी, यह यो अच्छी बात है.
बढ़िया श्रृंखला शुरु की है, जारी रखो.
बहुत सुन्दर साथ ही आगे की कड़ियों का इंतज़ार
aapki utkantha ne gyanmargi post ka nirman kiya. bahut sunder.
aapki rachna kal k charcha manch k liye li ja rahi hai.
abhar.
Manyataon ke peechhe kuchh na kuchh tark zaroor hota hai,jo tatkaaleen sandarbh me sahi hota hai. Bina jane gar ham karm karte hain to wah karmkaand ho jata hai.
Bahut achhe se aapne mayne samjhayen hain. Tark khojne kee aadat mujhe bhee hai!
सही लिखा है. मैं आपसे सहमत हूँ. मैं भी आप ही की तरह तार्किक थी और अब भी हूँ. जो बात तर्क पर खरी नहीं उतरती और मेरे अंतर्मन को भी स्वीकार नहीं होती, उसे मैं नहीं मानती.
आपका ये विश्लेषण अच्छा लगा ! और बिल्कुल सही भी है…
स्वामी दत्तव धुत ने अपनी किताब में लिखा है कि अगर गौ घी का दिया हम जलाते है तो दीपक जलने से उत्पन्न vibration , देवात्माओ से संचार स्थापित करती है , और उन्होंने ये भी कहा की अगर हम तेल जा दिया जलाते है तो उतपन्न vibration ,हमारे पूर्वजो से संपर्क स्थापित करती है. बाकी इसका सत्यापन मै आप पर छोड़ता हूँ.
आपकी पोस्ट , ग्राह्य और ज्ञानपूर्ण है. वैसे नानी दादी की बातो पर बच्चो को बिस्वास कर ही लेना चहिये. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी.
अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का विचार रखते हुए तो यह परंपरा शुरू की ही गयी होगी .. बरसात के बाद जाडे के पहले मनाए जानेवाले दीपावली के त्यौहार में सर्वाधिक दिए जलाए जाते हैं .. सबों ने देखा होगा कि उसके बाद बरसाती कीडे मकोडे की संख्या काफी कम हो जाती है .. हालांकि बिजली के सजावटी बल्बों के कारण ऐसा कम ही देखने को मिलता है !!
शिखा जी ,पहली वार आप के इस स्पंदन ब्लॉग पर आने का अवसर मिला है..आप की वेबाकी बहुत पसंद आयी. पसंद आया आप का सवाल ,.एक ऐसा स्ववाल जिसे लोग भूल गए हैं आप ने जैसे पेड़ को उसकी जड़ों का अहसास दिलाया हो .इस विषय पर बहुत कहा जा सकता है लेकिन फूल की सुन्दरता उसकी पखों को उधेड़ने में तो कतई नहीं है,साधुवाद.
ye hui na baat … bahut hi zabardast series shuru ki hai aapne di .. mujh me bhi yah keeda hua karta tha bachpan men ..aur us chakkar men bus me milne wali kitaaben " kyun aur kaise" bhi padh dali..par bad me jab shayri karne laga to ..socha logic me kya rakha hai .. mujhe apni hi baaton se logic h gayab lagne laga.. hehe… 🙂
asato maa sad gamya
tamso maa jyotirgamya
ऐसी सनक को सलाम, जिससे मिलता है अद्भुत ज्ञान…
ऐसी सनक को सलाम, जिससे मिलता है अद्भुत ज्ञान…
इस आलेख में जीवन के कुछ सीधे-सादे सवालों से जूझने का मोह दिखता है। इन सवालों के प्रति जागरूकता भी स्पष्ट है।
इसलिए तो मेरी आपकी खूब बनती है…. दोनों ही सनकी हैं…. ऐसे ही एक बार अजमेर शरीफ गया था,…. बहुत पहले बचपन में…. शायद कोई आठ साल का था…. मैंने मम्मी से पूछा था कि यहाँ लोग चादर क्यूँ चढाते हैं? तो मम्मी ने जो भी जवाब दिया वो याद नहीं है …. लेकिन मैंने उस वक़्त कहा था कि …. जो इन्सान ज़िंदा रह कर कुछ नहीं कर पाया…. वो मरने के बाद कैसे लोगों की मदद कर सकता है? और भगवान्, ख़ुदा… या गौड़ जो भी कह लीजिये…. ना पैदा होता है ना मरता है….
ख़ैर…. ज्ञान के ऊपर आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी…. वैसे लौजिकल थिंकर ….. सनकी ही होते हैं….. ही ही ही ही …..
बहुत सी बाते है जो हमे जानने की उतुसुकता होती है, हम भी बचपन मै बहुत से सवाल मां से नानी दादी से पुछा करते थे, तो मां नानी दादी थक कर जबाब देती थी कि ऎसा नही बोअल्ते भगवान नाराज हो जाते है, तो हम पुछते थे कि हमे केसे पता चलेगा कि भगवान नाराज है…. लेकिन हमारे पिता जी हर बात का जबाब सही ओर समझा कर देते थे, आज वोही सवाल मेरे बच्चे मां से पूछते है, जेसे शाम को नाखुन नही काटते? हम पुजा क्यो करते है, वगेरा वगेरा आप ने बहुत सुंदर ढंग से जबाब दिया बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद
hmare jeevan se judi hui niymittao ka bhut hi sarlta se aur tathy park jankari dene ke liye abhar ,
असल में धर्म और परम्पराओं में अन्तर होता है। धर्म वह है जिन संस्कारों या गुणों को हम अपने अन्दर धारण कर लेते हैं उसे हम धर्म कहते हैं। जैसे नीम का गुण कटु होता है तो कहते हैं कि यह नीम का धर्म है। लेकिन परम्पराएं हमारी जीवन शैली का अंग हैं। पूर्व में हम दीपक अंधकार को दूर करने के लिए ही जलाते रहे हैं लेकिन आज के युग में प्रासंगिकता केवल इतनी ही है कि इस निमित्त हम दो मिनट भगवान का स्मरण कर लेते हैं नहीं तो हम उस परमपिता की सत्ता को विस्मृत करते जाएंगे। दूसरा तथ्य यह भी है कि घी और तैल जलाने से वातावरण शुद्ध होता है, इसलिए कहा जाता है कि घी और तैल जितना फायदा खाने से नहीं करते उतना जलने पर देते हैं। वैसे आपका विश्लेषण भी बहुत ही सुन्दर और सटीक है। ऐसी ही कडियों को लिखती रहे जिससे सभी के विचार आ सकें।
सटीक विश्लेषण ।
हर धार्मिक पद्धति को रूढ़ीवाद कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता है …
दीप जलने से सकारात्मक उर्जा मिलती है …अच्छी तरह समझाया तुमने …
हम तो वैसे भी हमेशा ज्ञान के प्रकाश में ही रहते हैं …:):
ekdum sahi logic bataaya hai aapne…lagbhag sabhi dharmon ke bahut se reeti rivaaj ya karmkaand prteekatmak hote hain tatha in prateekon athva nihit logic ko samajh lene se nishta aur gahari avam aastha aur dridh hoti hai….prashansaneey prayaas…agli kadi ka intzaar rahega..badhai
बेहतरीन प्रस्तुति …..
वैसे एक बात कहें जिनको लॉजिक ढ़ूँढ़ने का कीड़ा होता है वही ज्यादा ज्ञान रखते हैं। तब ही तो हमें इतना सारा ज्ञान एक साथ मिल गया 🙂
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बहुत सुन्दर सन्देश देता प्रेरक आलेख्।
श्रद्धा, और अपना सुकून … यह अधिक मायने रखता है, जो कर्मकांडों में नहीं मिलता.
जिन्हें मंत्र नहीं आता , जो बोल नहीं पाते, जो दीया नहीं जलाते— उनकी आस्था कम नहीं होती
"दिए की लौ हमेशा ऊपर की तरफ जलती है ,उसी तरह हमें भी अपने ज्ञान को ऊँचे आदर्शों को प्राप्त करने के लिए ऊपर उठाना चाहिए."
बहुत अच्छी बात की है आपने…धरती की हर वस्तु पर गुरुत्वाकर्षण का नियम लागू होता है सिवा दिए की लौ के…ये हमेशा ऊपर जाती है याने गुरुत्वाकर्षण के नियम को नहीं मानती…दिए की लौ प्रतीक है उस शक्ति की जो हमें सांसारिक नियमों से उबार कर ऊपर उठाती है…याने इश्वर…दिए की लौ इश्वर की प्रतीक है….
नीरज
बेहतरीन प्रस्तुति सटीक विश्लेषण
very analytical post.the information u provided , is very up to mark.
u are living abroad and keep abreasts of our culture, it is commendable . i know a large number of people in india does not care about our religion/culture/tradition. you set a example for them. the post is really eye opener
thnax
बहुत सुन्दर पोस्ट है शिखा. मैने अपनी बेटी को भी पढवाई.
आपके एक सवाल का जवाब तो मैं दे रहा हूं ..दीप से दीप जलाया जा सकता है, बल्ब से बल्ब नहीं। वैसे आपका लेख बेहतरीन है, ऐसे लेख और लोगों को भी दिशा देते हैं।
प्रमुख गंभीर यह लेख सहेज कर रखने लायक है .
शिखा जी, देखा….
जिज्ञासा ने कितने तर्कों की उत्पत्ति की है.
जारी रखिएगा…बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
Shikha ji aapke blog par pahali bar aaya aur aapka blog bahut achcha laga..Shikha ji mai bhi kuchh aapki hi tarah hoo…aap ki knowladge dekhakar aur jo aapki napni bat ko present karne ki style hai ..really its superb .Regards
The Lines Tells The Story of Life….Discover Yourself….
हम भी ऐसी जानकारी के खोज में रहते हैं 🙂 कुछ साल पहले एक पी.डी.एफ फाइल थी मेरे पास जिसमे ऐसे कुछ और जानकारियां थी लेकिन अब नहीं है वो फाइल 🙁
वैसे दिए के बारे में मुझे इतना ज्यादा पता नहीं था ….अच्छा हुआ आपने बताया 🙂
सही है, व्यावहारिक तरीका है.
हर प्रथा के पीछे अपने तर्क होते हैं. समय बदलने के साथ कुछ प्रासंगिक रहते हैं तो कुछ अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं. आज प्रचलित कई अन्धविश्वास माने जाने वाले रिवाजों के पीछे भी कभी ठोस तर्क हुआ करते थे. धन्यवाद यह जानकारी ब्लॉग पर बांटने के लिए.
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उपरवाली टिप्पणी 'केरेक्टरलेस गिफ्ट' के लिए है. गलती से यहाँ पोस्ट हो गयी.
jankari purn aalekh, next part ka bhi wait krna parega…:)
bahut hi achha lekh…
thodi der ho gayi aane mein…
naukri ki talaash mein thoda wyast hoon……
रोचक और ज्ञानवर्धक चर्चा की शुरुआत की है आपने. आपके कहने की शैली बेहद आत्मीय है…यूँ लगता है कि घर में भाई-बहन बैठ कर चर्चा कर रहे हैं..!
दिया जलाने के पीछे जो कारण आपने बताया वह तो है ही दूसरा एक और कारण है कि हम जब भी पूजा प्रारम्भ करते हैं सर्वप्रथम दीप जला कर भगवान का आव्हान करते हैं कि हे देव अब आप आओ..हमारा विश्वास है कि भगवान हमारे बुलाने पर इन मूर्तियों में आ जाते हैं …फिर हम उनको नहलाते-धुलाते, वस्त्र बदलते, श्रिंगार करते, भोग लगाते हैं…
अंत में पूजन विधि में होने वाली त्रुटियों के लिए इश्वर से क्षमा मांगते हुए ..दीप बुझा देते हैं.
..दीप जलने का एक कारण यह भी है.
शिखा जी,
धुन्ध्ला सा याद है…कही पधा था..पुराने ज़माने मे..दिये कि लौ cotton की होती है और उस्के जल्ने की smell से सान्प(snake) दूर रह्ते है ../
बढ़िया पोस्ट.. इसकी श्रृंखला अच्छी बनेगी.. हाँ श्लोक का अनुवाद तो नहीं हुआ भावार्थ जरूर आपने लिख दिया.. 😛 काफी हद तक तर्कों में सच्चाई झलक रही है.. वैसे मैं पुस्तकमहल प्रकाशन, दरिया गंज दिल्ली.. की 'चिल्ड्रन्स नोलेज बैंक' भी रिकमंड कर सकता हूँ यहाँ.. 😛
@ deepak
सचमुच श्लोक का अनुवाद हो जाता तो अच्छा होता, अब इसका अनुवाद अगर दीपक जी करदे तो बहुत अच्छा होगा .
हमारे जैसे पाठको का ज्ञानवर्धन हो जाता.
shikha ji,
bahut achhi shuruaat. jaankaari bhi badhegi aur nayee baat bhi saamne aayegi.
yun deeya jalane ki pratha ka jo tark aapne diya hai, aadhyaatmik roop se to sahi hai par saamanya jiwan ke liye tarksangat nahin lagta mujhe. sambhaw hai ki jab iski shuruaat hui ho to kuchh saamyik karan raha ho, jo baad mein parampara ban gayee ho.
kyunki jitne bhi pratha ya parampara hain sabhi saamyik karan se bane, aur sabhi waigyaanik drishtikon se bhi tark sangat they. parantu samay ke badlaaw ke baad in prathaaon mein badlaaw bhi aawashyak hai. aaj ke sandarbh mein inka auchitya kya hai, ise samajhna hoga.
shubhkaamnaayen.
mujhe bhi kuchh aisi hi bate satati rahati hai meri mammi ka kuchh ajib sa kahana ki beta yeh karo woh karo ya puja ke vidhi vidhan par mai hamesha acchha insan banane par bate karta hun insaniyat jindagi ka sabse bada dharma hota hai khai bat us par aaye ki ghar me deeep jalana sham ko isaka mujhe ek logic yeh lagta hai ki pahale jamane me lights nahi honge jaise hi sham hoti thi log diye jalate honge aur ishwar ki puja archana karte honge yahi hamare sanskriti me aa gaya hoga……….
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