अपने बाकी साथियों से कुछ अलग थी वो. हालाँकि काम वही करती थी. गाने भी वही गाती थी, चलती भी वैसे ही थी और नाचती भी वैसे ही थी. परन्तु न बोली में अभद्रता थी, न ही स्वभाव में लालच और न ही ज़रा सा भी गुस्सा या किसी तरह की हीन भावना
उसके स्वभाव में एक सौम्यता थी, वाणी में विनम्रता और उसका स्वाभिमान जो उसे उसके जैसे बाकियों से अलग करता था.
उन सब की मुखिया थी वो इलाके में किसी के घर भी कोई ख़ुशी हो तो अपने साथियों को लेकर आया करती थी. पर कोई उसके आने से घबराता नहीं था. वह शालीनता से २-४ बधाइयां गाती उसके साथी थोड़े ठुमके लगाते, जितना दिया जाता उतना नेग लेतीं और आशीर्वाद देकर चुपचाप चली जातीं। एक बार पड़ोस के घर में उनके बेटे के जन्म पर आई तो मम्मी ने उसे चाय के लिए पूछ लिया। तब बड़ी ही नमृता से वह सुनाने लगी. किस्मत में यह नहीं, कि आप जैसों के साथ बैठकर चाय पियूं। बहुत अच्छे परिवार में जन्मी थी मैं. मेरे पिता भी इंजिनियर थे, मेरा गुरु मुझे उठा न लाया होता तो आज मैं भी किसी इंजिनियर की बीवी होती और आप सबके साथ बैठकर चाय पी रही होती। और यह कहकर वह बधाइयाँ देती आँखों में पानी लिए चली गई.
हम तब बच्चे थे हमें समझ में नहीं आया कि ये लोग कौन होते हैं ऐसे क्यों नाच- गा कर मांगा करते हैं और इन्हें इनके माता पिता से कैसे, कौन इस तरह, क्यों छीन लाता है.
मम्मी से पूछते तो बस यही जबाब मिलता कि इन लोगों अपना समुदाय होता है, यही इनका काम होता है.और ज्यादा पूछने पर डाँट पड़ती।
एक बार नानी किसी से बात कर रही थीं कि फलाने ने ५ साल तक तो छुपा कर रखा बच्चे को पर इन कम्बख्तों को जाने कहाँ से पता चल जाता है , छीन कर ले गए गोद से, बिलखती रह गई बेचारी माँ.
हम फिर नानी से वही सवाल पूछते , क्यों पुलिस कुछ नहीं कर सकती थी, ऐसे कैसे छीन लेगा कोई? कोई जंगल राज है क्या ? नानी कहतीं “न लल्ली जे लोग बहुत गंदे होंवे, काई पुलिस कोरट की न सुने ये. पुलिस भी डरे इनसे।बदतमीजी पे उतर आएं, श्राप दे दें, इनको कोई भरोसो न. इनसे कोई कछु न कह सकत”.
पर हमारे क्यों का पूरा और सही जबाब हमें उनसे भी न मिलता।
समय गुजरा, शहर बदले, तो उस शरीफ किन्नर की अपेक्षा इनके कई विपरीत रूप भी दिखे।बात बात पर भद्दी बातें बोलते, ज़बरदस्ती अधिक पैसे की मांग करते और न दिए जाने पर अभद्रता की सभी सीमाएं पार करते बहुतों को देखा। उम्र बढ़ी तो समाज की और कुरीतियों और समस्यायों के साथ ये और इनकी समस्याएं भी समझ में आने लगीं। शारीरिक कमी के अलावा अलग समुदाय, परंपरा, गुरु पूजा, तीर्थ, आयोजन और न जाने क्या क्या।
साथ साथ एक सवाल और पनपा कि क्या इस तरह के लोग इसी देश में पैदा होते हैं ?अगर यह शारीरिक व्याधि है तो बाकि देशों में भी ऐसे लोग होते होंगे तो क्या सभी देशों में इनकी यही परम्परा और यही स्थिति है ? क्या हर जगह आम नागरिक के और इनके लिए कानून अलग हैं. परन्तु तब तक सूचना समाचारों के इंटरनेट जैसे विस्तृत माध्यम नहीं थे अत: सोच लिया कि शायद ऐसा ही होता होगा।
वक़्त और गुजरा, बहुत से देशों को देखने का , रहने का मौका मिला पर उनमें से कहीं भी न यह समुदाय नजर आया और न ही उनसे जुडी परम्पराएँ. यहाँ तक कि कभी इस समस्या के बारे में सुना देखा भी नहीं। यानि कि एक शारीरिक अंग की कमी या अल्प विकास वाले स्त्री या पुरुष जिन्हें भारतीय समाज में किन्नर कहा जाता है. बाकी सभी सभी देशों में एक सामान्य नागरिक की तरह ही रहते हैं. हाँ सुविधानुसार “गे” या “लिस्बियन” की तरह इनका अपना अलग ग्रुप हो सकता है परन्तु बाकी समाज से पूर्णत: अलग समाज और अजीब ओ गरीब परम्पराएँ नहीं हैं. इन्हें भी वह सभी मौलिक, कानूनी और सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं जो किसी भी अन्य नागरिक को प्राप्त होते हैं. हालाँकि आइडेंटिटी क्राइसिस को लेकर काफी समस्याएं इन देशों में भी यह लोग झेलते हैं. कुछ कार्यक्षेत्रों में भी इनके साथ हुआ पक्षपात पूर्ण रवैया सामने आता रहा है. परन्तु कानून और सेहत के लिहाज से इन्हें पूर्ण अधिकार दिए गए हैं.
ऐसे में अब भारतीय सुप्रीम कोर्ट का किन्नरों के पक्ष में थर्ड सैक्स का फैसला ऐतिहासिक और प्रशंसनीय तो अवश्य है परन्तु बहुत से सवाल और अटकलें भी छोड़ जाता है. जैसे-
क्या कुरीतियों को परम्परा के नाम पर सदियों तक ढोने वाला हमारा समाज इन्हें सामाजिक मान्यता प्रदान करेगा?
बिना किसी चुनाव और मतों के मठाधीश की कुर्सी पर बैठकर जनता की किस्मत और भविष्य का फैसला सुनाने वाले हमारे देश के स्वामी, बाबा, भगवान कहलाने वाले लोगों की तरह इस समुदाय के भी अपने गुरु हैं तो क्या ये गुरु अपनी सत्ता आसानी से त्यागने को तैयार होंगे ?
कानून तो बन गया है परन्तु क्या यह क्रियान्वित हो पायेगा ?
ऐसे बहुत से सवाल अभी बाकि हैं जिनके जबाब भी शायद वक़्त ही दे पायेगा। परन्तु जो भी है सभ्य समाज के विकास की राह पर यह फैसला निश्चय ही स्वागत योग्य है.

बहुर सारे सवाल जबाब भविष्य के गर्त मे छिपे हैं !!
शिखाजी, लेख अच्छा है। अभी जो कदम उठाया गया है, निश्चित रूप से अच्छा है। लेकिनसमय अभी बाकी है…वेट एण्ड वॉच…
मेरे मन में उठने वाले कई प्रश्नों को जगह दी तुमने अपने आलेख में , मैं भी सोचती थी कि अन्य देशों में ऐसे किसी समुदाय के बारे में पढ़ा /सुना ही नहीं . सिर्फ हमारे देशों में ही क्यों है . मुझे भी समझ नहीं आता कि पुरुष जैसा दिखने /बोलने पर भी इन्हें स्त्रियों के कपडे गहने क्यों पहनने पड़ते हैं, क्यों नहीं ये आम इंसान की तरह अपना जीवन बिता सकते . अन्य शारीरिक विकृतियों और किसी शारीरिक विकृति के बिना भी बहुत लोग आजीवन अविवाहित रहते हुए जीवन जीते हैं , फिर इनपर यह जुल्म क्यों !
सबसे पहले माता पिता और परिवार /समाज को दृढ कदम उठाने चाहिए इन्हें घर से बेघर न होने देने के लिए !
सार्थक आलेख ! .
विचारणीय प्रश्न हैं जिनके उत्तरों की सभी को प्रतीक्षा है।
सच..ऐसे कई प्रश्न हमेशा से दिमाग में आते रहे हैं…ना जाने कब तक कितनी ही बेवजह की परम्पराओं का मूल्य कई लोगों को चुकाना पड़ेगा.
बहुत सुन्दर आलेख मुझे उनकी बारे में जानने की बडी जिज्ञासा रही है. हर त्योहार के समय जब इनका आगमन होता है तो उन्हें चाय पिलाकर काफ़ी कुछ जाना है. अभी हाल में हुये निर्णय से कुछ आशाएं जागी हैँ.
क़ानून ने मान्यता डे कर सच ही सराहनीय काम किया है …. अब आवश्यकता है समाज इसे स्वीकारे . मानवीयता का धर्म निबाहे … ये लोग भी बिना किसी अपराध बोध के सामान्य जीवन जी सकें . इस सबके लिए समाज की ज़िम्मेदारी अधिक बनती है .
बहुत depressing है इनके जीवन में झांकना……सच में हमारे समाज में किसी drastic change की सख्त ज़रुरत है !! मनचाहा जीवन जीने का अधिकार हम किसी से कैसे छीन सकते हैं !! वो भी बिना किसी कसूर के…..
बेहतरीन आलेख शिखा…..a subject comparatively less discussed !!
anu
सार्थक लेख ….. उम्मीद है इसे सकारात्मक ढंग से लिया जायेगा ….
बहुत तार्किक विवेचन किया है … सच कहूँ तो इनके प्रति बहुत सहानुभूति है ,उनकी दिक्कतें भी समझती हूँ पर अपने पड़ोस में इनका इतना भयावह रूप देखा है की मैं इनको देख कर सहम जाती हूँ …..
आपने सटीक विश्लेषण किया है इनकी समस्याओ और सामाजिक स्थिति का . उच्चतम न्यायलय के फैसले से इनके अधिकारों पर मुहर लग गई , ये उनके लिए और समाज के लिए शुभ संकेत है . बहुत बढ़िया आलेख .
हमारे पड़ोस वाले मोहल्ले से कुछ अरसा पहले एक किन्नर को नगर पालिका का सभासद चुना गया था … वो भी बेहद शरीफाना अंदाज़ मे लोगो से मुखातिब हुआ करती थी … फिर न जाने क्या हुआ एक दिन अचानक चल बसी … आज आप का यह आलेख पढ़ा तो उसकी याद हो आई |
अपने देश मे मौजूदा क़ानूनों की जैसी हालत है उस को देखते हुये … इस आदेश के प्रति बहुत ज्यादा उम्मीद लगाना बेकार है … पर इस मे कोई शक नहीं कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट का किन्नरों के पक्ष में थर्ड सैक्स का फैसला ऐतिहासिक और प्रशंसनीय तो अवश्य है ही साथ साथ इसे समाज द्वारा स्वागत योग्य भी होना होगा | नहीं तो यह भी केवल एक कानून बन कर रह जाएगा … जिस का पालन कोई नहीं करता होगा |
Badhiyaa
शुरुआत हो चुकी है जल्द वह समय आएगा।
कानून का सहारा मिलने के बाद इनके हक़ में
कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आएं तो अच्छा ही है…
वैसे किन्नर बचपन से आज तक मन में भय ही पैदा करते रहे हैं
बचपन में सुनते थे कि अवसर पा'कर ये बच्चों को , ख़ासकर ख़ूबसूरत बच्चों को उठा ले जाते हैं…
बड़ा होने के बाद बहुत पढ़ा सत्यकथा/मनोहर कहानियां आदि में – किशोरों-युवाओं तक को अपहरण करने के बाद अंग काट कर लगभग अपने जैसा बना देने के किस्से …
कल तो रहस्यमय थे ही , अब भी हैं !
ईश्वर के अन्याय का शिकार हुए इस वर्ग को भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रदत्त न्याय इनकी जीवन-पद्धति में बदलाव ला पाएगा , इनका आक्रोश भाव इन्हें सामान्य होने में मदद करेगा या नहीं – यह देखने की बात है ।
आपके श्रम और विषय-वैविध्य के प्रति सचेष्टता को नमन !
समाज तो इन्हे अभी भी गाली का पर्याय समझता है । बहुत कुछ किया जाना होगा , क़ानून से एक पहलू सख्त तो हुआ हुआ है पर सभी को समझना होगा इनका दर्द और मुख्य धारा से जोड़ने के लिए इनके रोजगार के अवसर भी विकसित किये जाने होंगे ।
एक अच्छी शुरुआत तो हुयी कम से कम … ये सच है की अभी बहुत लंबा सफ़र तय करना है इन्हें अपने देश में … पर अगर समाज जागरूक रहा … लोगों में संवेदनशीलता जागी तो इस बात को सामाजिक मान्यता मिल ही जायेगी …
काश कि मात्र फैसले से इनका उद्धार हो पाता। समाज में इन्हे अभी भी बहुत सी लङाई लड़नी बाकी है।
इन्हें समाज से अलग-थलग रखना अन्याय है -अमानवीय भी .सामान्य मनुष्य के रूप में देखा जाने की आवश्यकता है !
कल 09/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
पुराने स्वरूप में बहुत परिवर्तन आया और फिर नये समाज में तो हद ही हो गयी… समाज की मुख्य धारा से कटे ये किन्नर अपराध की ओर अग्रसर हुए. बहुत पैसा होता है इनके पास और और गद्दी पाने की लालच में क़त्ल भी होते रहे हैं.. यही नहीं स्वस्थ व्यक्ति को पकड़कर जबरन ऑपरेशन द्वारा किन्नर बना देना भी इनके गैंग का मुख्य पेशा रहा है.
विदेशों में और अपने देश में भी कुछ लोग जो पुरुष होकर भी क्रॉस-ड्रेसिंग के नाम से पुरुष वेश्यावृत्ति में लिप्त रहे हैं, वे भी किन्नरों का आवरण ओढकर पुलिस को चकमा देते रहते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने में सक्षम होगा. किंतु कितनी सहजता और कितने समय में यह हो पाएगा…!! कोई जाने ना!!
कानून ने तो मान्यता दे दी लेकिन क्या समाज स्वीकार कर पायेगा ? बहुत बड़ा प्रश्न है ये जिसका ज़वाब अभी किसी के पास नहीं होगा !
सटीक विश्लेषण….
इस समुदाय की अपनी अलग ी तकलीफ़ें हैं…सुन्दर आलेख है शिखा.
waah kya baat hai!!!
वाकई शिखा ..समाज का यह वर्ग, काफी समय से उपेक्षित रहा है …शायद वह मुखौटा जो यह पहने रहते हैं….इसीलिए है की यह इस समाज में खुद को जीता रख सके …वरना इतनी अवहेलना के बाद तो इंसान का जीना दूभर हो जायेगा ….कोई अपने घर नौकर नहीं रखता ..कोई फर्म में नौकरी नहीं देता ……हमेशा हिकारत और दहशत से देखते हैं लोग इन्हे ..यह जियें तो कैसे….सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक ताज़ा हवा का झोंका है जिस में उन्होंने खुलकर साँस लेने का साहस किया है …
sahi kaha bahan aapne akhir vo bhi manushy hi hain
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