शौर्य गाथाएँ – जैसा कि शीर्षक से ही अंदाजा हो जाता है कि यह संकलन वीरों के पराक्रम और त्याग की कहानियों से भरा होगा. यह संग्रह पिटारा है उन रणबांकुरों  के जीवन की सच्ची कहानियों काजो अपने घर – परिवारसुख – सुविधाओं और यहाँ तक कि अपनी जान की भी तिलांजलि देकर डटे रहते हैं सीमा और रणक्षेत्रों पर कि उनके देश परउनकी मातृ भूमि पर कोई आंच न आने पाए.  शशि पाधा जी की यह पुस्तक उनके जीवन के संस्मरण ही नहीं हैं बल्कि इतिहास के जीवित दस्तावेज हैं जिनका साहित्यिक महत्व भले ही कम हो परन्तु सामाजिक महत्व अतुलनीय है. 
ये वे किस्से हैं जिन्हें देश के हर नागरिक को पढ़ना और भावी नागरिकों को पढाना चाहिए.
पुस्तक की लेखिका स्वयं एक सेनानी की पत्नीमाँ और बहू रही हैं. उन्होंने सैनिकों का जीवन बेहद करीब से देखा है. उन्होंने
सैनिको को अपने परिवार से दूर
उनके सुख दुःख में हँसते – रोते भी देखा है और सब कुछ भुलाकर अपना कर्तव्य
निभाते भी देखा है. लेखिका जानती है कि वे सैनिक जिन्हें हम और आप एक सजग और जान
पर खेल जाने वाले उत्साही जवान के रूप में देखते हैं वे भी एक इंसान हैं और एक आम
जीवन के सुख – दुःख और खुशियों में वे भी ऐसे ही व्यवहार करते हैं जैसे कि कोई आम
नागरिक करता है. लेखिका के खुद के ही शब्दों में –
मैंने कई वर्षों तक वीर सेनानियों को हर परिस्थिति हर
रूप में देखा है. शांतिकाल में पुष्प की तरह कोमल हृदय रखने वाले
धर्म स्थल पर ईश भजन करने वालेसांस्कृतिक कार्यक्रमों में बड़े उत्साह के साथ हंसी
दिल्लगी करने वाले ये सेनानी शत्रु की आहट पाते ही सजग और पराक्रमी प्रहरी का रूप
धारण कर लेते हैं. उस समय देश की रक्षा उनका परम लक्ष्य होता है”.
यही परिलक्षित होता है इस संकलन की पहली गाथा – संत सिपाही में – जहाँ एक कैप्टन अरुण
जसरोटिया (अशोक चक्र )
भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष के चीफ सिक्युरिटी ऑफिसर जैसे महत्वपूर्ण पद मिलने
के बाद भी कहते हैं कि वह अपने साथियों के साथ सीमा पर चल रहे अभियान में हिस्सा
लेना चाहते हैं और वे विनती करते हैं कि सेनाध्यक्ष की सुरक्षा के लिए किसी और का
नाम प्रेषित कर दिया जाए. दो साल की शांतिपूर्ण नौकरी को ठोकर मार कर कैप्टन अरुण
सीमा पर जाकर अपने साथियों के साथ लड़ना चाहते हैं और मिसाल कायम करते हैं कि एक
सैनिक के लिए देश रक्षा से बड़ा कोई कर्तव्य नहीं है और वे कर्तव्य परायणता निभाते
हुए अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं.
लेखिका के ये संस्मरण सैनिकों के शौर्य और बलिदान की कहानी तो कहते ही हैं
उनके अंदर के मानव और मानवीय संवेदनाओं को भी उजागर करते हैं. सैनिकों के परिवार
अपने बेटे
भाईपति को खो देते हैं उसका गहन दुःख या उनकी शारीरिकमानसिक क्षति में उनकी सेवा करते हुए अकेले पड़कर भी
देश भक्ति की भावनाओं से भरे रहते हैं. वे दुखी होते हैं
अकेले पड़ जाते हैं. उनके स्वजनों का बलिदान गुमनामी
के अंधेरों में खो जाता है परन्तु फिर भी उनके देश के प्रति कर्तव्य और त्याग की
भावना या उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं आती.
 लेखिका ने बेहद मार्मिक और सटीक शब्दों में इन वाकयों और भावनाओं का वर्णन
किया है.
 
जब एक सैनिक युद्ध करता है तो वह अकेला संघर्ष नहीं करताउसके साथ उसका पूरा परिवार लड़ रहा होता है. युद्ध के
बाद पूरे देश में शांति काल होता है
सब कुछ सामान्य होता है. परन्तु इन सैनिको का जीवन या उनके परिवार के लोगों का
संघर्ष जारी रहता है.
 
इन संस्मरणों के अधिकाँश नायकों और पात्रों को लेखिका व्यक्तिगत रूप से जानती
थीं. उन्होंने इनके परिवारों से संपर्क किया
उनसे मिली बातचीत की और उनके दुःख में एक पारिवारिक सदस्य की तरह शरीक होकर उनके दर्द को
एक -एक पन्ने में बेहद संवेदनशीलता से व्यक्त किया है.
 
शौर्य गाथाएं – संग्रह में १७ अध्याय हैं जिनमें भारतीय सेना के वीरों के
त्याग
, बलिदानपराक्रम और वीरता की गाथाएं भरी पड़ी हैं. 
सांझा रिश्ता में लांस नायक रमेश खजुरिया
(शौर्य चक्र) के बलिदान और शौर्य के साथ लेखिका ने उसके पारिवारिक अपनत्व का भी
प्रभावी वर्णन किया है. स्पेशल फोर्सेस के कमान अधिकारी की सुरक्षा गार्ड टीम में
नियुक्ति के कारण उनके परिवार से उसकी घनिष्टता हो गई थी फिर वह शहर को आतंवादियों
से बचाने के अभियान में शामिल हो गया और अपने प्राणों की आहुति दे दी. लेखिका जब
रमेश के परिवार से मिलने गई तो वीर सैनिक की माँ का दर्द कुछ इस तरह फूटता है और
लेखिका की कलम से निकल पड़ता है.  
अचानक रमेश की माँ ने मेरे पास आकर धीमे से मेरा हाथ
पकड़कर मुझसे पूछा
, ‘मेमसाबजीआखिरी बार आपने उसे कब देखा था?’ मैंने कहा जब वह साहब के साथ गाड़ी में बैठने लगा था. अंतिम समय
में हमारे साहब रमेश के पास ही थे
‘. वह कुछ देर मेरी ओर यूँ देखती रही मानो मेरी आँखों में अपने बेटे के अंतिम
क्षण टटोल रही हो. जैसे ही मैं जाने को मुड़ी
वह कसकर मेरे गले लग गई.बस इतना बोली “मेमसाबजीअज्ज मैं अपने बेटे कन्ने मिल ली‘…. “
परम्परा – यह संस्मरण बेहद मार्मिक है
बेहद अद्भुत. युद्ध में सिर्फ सैनिकों की जान ही नहीं जाती बल्कि बहुत से सैनिक
घायल भी होते हैं. उनकी शारीरिक और फिर मानसिक क्षति को वे ही नहीं उनके परिवार
वाले भी सहन करते हैं और उसी के साथ उन्हें अपना बाकी जीवन भी
 बिताना होता है. एक गंभीर रूप से घायल सैनिक – जगपाल
सिंह (कीर्ति चक्र) की अवस्था
मन:स्थिति और उसकी पत्नी की अवस्था का मार्मिक चित्रण है इस संस्मरण में – 
वह बहुत शांत मुद्रा में खड़ी चुपचाप अपने पैरो के
अँगूठे से फर्श पर कुछ कुरेद रही थी । शायद अपने मन की पीड़ा धरती की छाती पर उकेर
रही थी” ।
लेखिका ने सैनिक की पत्नी की मौन पीड़ा को भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया है.
जगपाल सिंह की दोनों
टांगों में प्लास्टर बंधा था और उसकी आँखें पूर्णत: चली गईं थी
इसके वावजूद भी उनकी पत्नी का लेखिका से कहना कि आप
इन्हें हौसला दें
 मैं ठीक हूँये साथ हैं तो हम
मिलकर जीवन जी लेंगे. सैनिकों के परिवार वालों के हौसलों और कर्तव्य निष्ठा की
मिसाल दर्शाते हैं.
एक और अभिमन्यु (कैप्टन सुशील खजुरियाकीर्ति चक्र) – गाथा है उस जांबाज सैनिक कीजिसके परिवार में उसके बड़े भाई और पिता भी फ़ौज में थे
और माता पिता के आग्रह के बावजूद उसने भी फ़ौज में जाने की ही जिद की.
 इस गाथा में एक परिवार के देश के प्रति समर्पण और बलिदान
के साथ एक और प्रश्न उभर कर आता है कि देश ने उनके लिए क्या किया
 ?
जब लेखिका प्रश्न करती है कि क्या राज्य सरकार ने सैनिक की स्मृति में कुछ
किया
 ? तो निराश पिता
जबाब देते हैं कि
 चीफ
मिनिस्टर का फोन तक नहीं आया. ऐसे में कभी कभी ये ख्याल आता है कि क्यों
?
 किसके लिए ?” एक सैनिक परिवार में इस तरह का ख्याल आना उस देश और उसके नागरिकों के लिए सबसे
अधिक शर्म और निराशा की बात हो सकती है
 परन्तु उस परिवार के लोगों में देश के प्रति कर्तव्य में कहीं कोई कोताही
नहीं दिखाई पड़ती. भाई के बलिदान के बाद भी उनकी छोटी बेटी ने फ़ौज की ही नौकरी
स्वीकार की और उनकी माँ अपने परिवार के लिए रोज शाम को गायत्री मन्त्र का जाप करती
हैं.
अपनों से दूर जहाँ हमेशा प्राण संकट में हों, तब कहीं कोई
श्रृद्धा
, विश्वास, शक्ति ऐसी हो जहाँ से सैनिकों को सकारात्मक ऊर्जा मिलती रहे ऐसे में धर्म, प्रार्थना का सहारा और विश्वास भी शायद संबल होता है. कहानी अखंड ज्योति में भी
लेखिका ने कुछ ऐसा ही वर्णन किया है जहाँ नायक सूरज भान की प्राण रक्षा हेतु उसके
साथी मंदिर में अखंड ज्योति जलाते हैं
,
 प्रार्थना करते हैं.
संग्रह में युद्ध क्षेत्र में वीरों के पराक्रम की कहानियां ही नहीं सैनिकों
के युद्ध क्षेत्र से अलग व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार और त्याग की कहानियाँ भी हैं.
जिन रिश्तों और उनमें अपनत्व को लेखिका ने वर्षों तक देखा और जिया उनके पलों और
वाकयों को शशि पाधा ने बहुत प्रभावी ढंग से बयाँ किया है.
शाश्वत गाथा के नायक मेजर सुधीर कुमार वालिया
युद्ध क्षेत्र में नहीं बल्कि छुट्टी पर जाते हुए एक नागरिक को बचाने में बुरी तरह
जख्मी हुए. लगभग पूरी तरह जल गए शरीर की पीड़ा उसमें भी साहस और सहन शक्ति का
लेखिका ने बहुत मार्मिक वर्णन किया है. तब मेजर का ध्यान उनके परिवार की
अनुपस्थिति में कैसे उनके साथी और उनका परिवार रखते हैं यह बताते हुए लेखिका फ़ौज
के परिवार के अलावा एक और वृहद परिवार की भूमिका बताती हैं. शौर्य गाथाओं के साथ
सैनिकों के परिवार पर उनके शहीद होने के बाद आने वाली कठिनाइयों और सामाजिक
प्रथाओं का कैसे प्रभाव पड़ता है इसकी भी लेखिका ने बहुत सूक्ष्मता से पड़ताल की है.
प्रथा कुप्रथा नमक कहानी में एक सैनिक की विधवा
को चादर डालने की प्रथा के तहत किसी और के साथ विवाह करने के लिए बाध्य किये जाने
पर कैसे वह पत्नी उसका विरोध करती है और स्वालम्बी बनती है इसका वर्णन करते हुए
लेखिका सामाजिक कुरीतियों के प्रति एक स्त्री की
 लड़ाई
की व्याख्या भी करती है. सेना के सैनिक ही नहीं उनकी भार्या भी उतनी ही साहसी होती
है और हर सामाजिक कुरीति से लड़ना जानती है.
अपना अपना युद्ध – में अपने स्वजनों को युद्ध क्षेत्र के लिए विदा करते
हुए परिवार की मनस्थिति का वर्णन है. कैसे अपने मन को समझाने के लिए
, सामान्य जीवन जीने के लिए और चिंता मुक्त रहने के लिए विभिन्न गतिविधियों
द्वारा कोशिश की जाती है और कैसे एक सैनिक की पत्नी स्वयं को
, अपने बच्चों को संभालने के लिए संघर्ष करती है, इस पर ध्यान
आकर्षित करते हुए लेखिका कहती है
  अगर सैनिक शूरवीर होते हैं
तो उनकी पत्नियाँ किसी वीरांगना से कम नहीं
युद्ध का सामना तो दोनों को करना पड़ता है| अंतर केवल इतना
है कि दोनों का अपना -अपना युद्ध क्षेत्र होता है
|”
विजय स्मारिका संस्मरण मेजर मोहित शर्मा, अशोक चक्र के
बलिदान और उनकी पत्नी मेजर रिश्मा के साहस की वीर गाथा है. रिश्मा का समारोह में
रखी ट्रोफी को स्पर्श करना किसी का भी मन भिगो सकता है.
शायद कभी’ एक बेहद मार्मिक
संस्मरण है। 3 दिसम्बर
, 1971 को लड़ाई शुरू हो गई। भीषण युद्ध के कारण कैप्टन मलिक अपनी पत्नी से भी
नहीं मिल सके. वे चार दिसम्बर को ही शहीद हो गए। कमांडो यूनिट के साथ काम करने आए
कैप्टन मलिक की नई
नई शादी हुई थी।
विदाई – में भी एक पत्नी के संघर्ष की
कहानी है. सैनिकों के परिवार के जीवन और स्वजनों के प्राणों के संकट के बीच उनकी
मनोदशा की और ध्यान कराती इस कहानी में जब लेखिका को एक सेनानी की पत्नी को उसके
पति के न रहने की खबर देने जाना होता है उस दर्द और स्थिति का वर्णन करते हुए
लेखिका कहती हैं-
  “हमने कलश ऐसे गोद में संभाल कर पकडे
हुए थे कि उन्हें कहीं चोट न लग जाए
 वहीँ मृत सैनिक की पत्नी जब वह कहती हैं कि प्रभा
हरपाल को विदा करो तब एक पत्नी के दर्द को बयाँ करते हुए वह लिखती हैं
 प्रभा ने कलश के अंदर से कुछ रज
मुट्ठी में भरी और अपने गुलाबी आँचल के छोर में बाँध ली
 
कुछ कदम पीछे हट कर वो फिर से कलश के गले लग गई मानो
हरपाल के गले लग रही हो
तोलालोंग के रणघोष मेजर अजय जसरोटिया के आतंकवादियों से संघर्ष में बलिदान की शौर्यगाथा है।
बलिदान – ऐसा संस्मरण है जो यह बताता है कि सेना में मनुष्य
सैनिक ही नहीं एक बेजुबान मासूम मोती भी अपना कर्तव्य निभाता है और अपने साथियों
की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देता है.
अन्तिम संस्मरण एक नदी एक पुल में युद्ध की विभीषिका को देखते हुए भी उसकी आवश्यकता पर विचार किया गया
है. सीमा पर सुरक्षा जरुरी है उसके लिए सेना की आवश्यकता है. परन्तु इन सबमें देश
के आतंरिक अनुशासन की भी आवश्यकता है. आखिर कब तक युद्ध चलाये जा सकते हैं.
इस संग्रह में शौर्यगाथाएं तो हैं ही सेना के नियम, कानून और तरीकों पर भी लेखिका प्रकाश डालती चलती है.
इन गाथाओं में ऐसे अनगिनत क्षण आते हैं जब कभी पाठक की आँखें गीली होती हैं तो
कभी रौंगटे खड़े हो जाते हैं. कभी मन उत्साह और जोश से उछलने लगता है तो कभी शहीदों
के परिवार जन के बारे में सोच कर मन करुणा से भर जाता है. एक संस्मरण में मेजर
सुधीर वालिया के पिता एक इंटरव्यू में कहते हैं
 – “ मैंने तो उसे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया था, पहाड़ियाँ चढना तो
वह स्वयं ही सीख गया
”. एक सैनिक को सैनिक बनाने में फ़ौज का ही नहीं उसके परिवार, अध्यापक और समाज का भी योगदान होता है. नागरिकों का प्यार और संवेदनशीलता उसकी
शक्ति होती है. ऐसे में आवश्यक है कि हम एक नागरिक के तौर पर सैनिकों की भावनाओं
और उनके परिवार का ध्यान रखें जो हमारी सुरक्षा की खातिर अपनी जान हथेली पर लिए
घूमते हैं.
शशि पाधा के इस संग्रह के ये संस्मरण स्कूलों में पाठ्क्रम में पढाए जाने
चाहिए. हमारे भावी नागरिकों को पता होना चाहिए कि जिन देश भक्ति के गीतों को वह
बड़े जोश के साथ अपने स्कूलों में गाते हैं उन्हें सरहद पर कोई जीता भी है और उनका
भी एक हम और आप जैसा एक परिवार होता है.
 
पुस्तक लेखिका – पाधा शशि
शौर्य गाथाएँ
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली. 2016