ख्वाइशों की कश्ती में
अरमानो की पतवार लिए
जब हम निकले थे
सपनो के समंदर में,
तो सोचा न था
वहाँ तूफ़ान भी आते हैं .
कल्पना के पंख लगाये
जब ये मन उड़ रहा था
खुले आसमान में ,
तो ये मालूम न था
कि वहाँ काले बादल भी छाते हैं…
इस दिल के बगीचे में
कुछ कोमल खुशबू लिए
कुछ कोमल खुशबू लिए
ये सुकुमार कली जब खिली थी,
तो उसने जाना न था कि,
मौसम पतझड़ के भी आते हैं.
उस कश्ती को
तूफां में टिके रहने का सबब लेना था,
उस मन के पंछी को
उड़ान भरने से पहले
घंरौंदा बना लेना था.
उस कली को भी अगर
अहसास ए कुदरत रहा होता,
तो ना डूबती कश्ती
साहिल पर आने से पहले,
ना गिरता पंछी
मंजिल तक जाने से पहले,
उस कली को भी खिलने से पहले
न खिज़ा खा गई होती,
और न अश्क टपक रहा होता
मेरी इस कलम से.
कलम कहां हैं यहां! इधर तो की बोर्ड और माउस के जलवे हैं।
एहसास को बखूबी लिखा है ….कुछ निराशा लिए हुए ..लेकिन मेरे मन से मिलती हुई …अच्छी लगी रचना 🙂
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 24– 11 – 2011 को यहाँ भी है
…नयी पुरानी हलचल में आज ..बिहारी समझ बैठा है क्या ?
ये तो आप ठीक कह रही हैं 'यूँ हुआ होता' तो सारा कुछ बदला हुआ होता .
बहुत ही खूबसूरत !
सादर
अरे वाह ! कितना सुन्दर लिखा है ! लेकिन ऐसा हो कहाँ पाता है ! समंदर में कश्तियाँ भी तूफ़ान में डूबती हैं, आसमान से परिंदे भी घायल हो गिर जाते हैं और शाखों पर ढेर सारी कलियाँ भी बिन खिले सूख जाती हैं ! बहुत प्यारी रचना !
कमाल की अभिव्यक्ति… वाह!!
सादर…
आप कहतीं थीं आपको कविता करना नही आता
पर आपकी कविता का अंदाज मुझे तो बहुत भाता
इस प्रस्तुति का भी संगीता जी की हलचल से जुड़ा नाता
आपके ब्लॉग पर फिर क्यूँ न हर कोई उडा आता
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार जी.
बहुत सुंदर अहसास से बुनी कविता.
उस कली के खिलने से पहले—
और ना अश्क टपक रहा होता
मेरी कलम से,भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
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