ज़माना बदल रहा है, ज़माने का ख़याल भी और उसके साथ कुछ दुविधाएं भी. आज इस देश काल, परिवेश में समय की मांग है कि घर में पति पत्नी दोनों कमाऊ हों. यानि दोनों का काम करना और धन कमाना आवश्यक है खासकर लंदन जैसे शहर में. जहाँ एक ओर बाहर जाकर काम करना और अपना कैरियर बनाना आज की स्त्री के लिए आर्थिक रूप से आवश्यक हो गया है वहीँ उसके अस्तित्व के लिए भी जरुरी होता जा रहा है.
अब एक और सार्थक कैरियर बनाना उसके अंदर के नारीवादी अधिकारों में आता है तो वहीं दूसरी और माँ बनना भी उसका अधिकार है जिसे वह छोड़ना नहीं चाहती। अब ऐसे में समस्या यह कि इन दोनों अधिकारों की पूर्ती कैसे हो. एक कामकाजी औरत माँ का फ़र्ज़ कैसे निभाये ? बच्चा पैदा करना उसका अधिकार है, पर समस्या यह कि उस बच्चे की देखभाल कौन करे.
यूँ पश्चिमी सामाजिक व्यवस्था में यह थोड़ा आसान हो गया है, उनके समाज में नारीवादी क्रांति हुए काफी समय हो गया और उन्होंने अपने इन क्रांति के दिनों में एक समाधान ढूंढ निकाला “नया पुरुष” जो घर में रह सकता था, खाना बना सकता था, कपडे धो सकता था और बच्चे की नैपी भी बदल सकता था. हालाँकि उन माओं को भी अपनी श्रेष्ठता की भावना के चलते इन नए पुरुषों पर अपने बच्चे की सही देखभाल का पूरा भरोसा नहीं था परन्तु फिर भी यह नैनी से बेहतर विकल्प था और इस समाज में बच्चों के छोटे रहते कई परिवारों में हाउस हसबैंड देखे जा सकते हैं.
परन्तु हमारे एशियाई समाज में इस “नए पुरुष” की उत्पत्ति अभी भी पूरी तरह से नहीं हुई है. वे बेशक लंदन में हों या फिर चीन में, वे परिवेश के आधार पर अधिक से अधिक घर के कामों में हाथ बटा कर एक अच्छे साथी का खिताब तो पा सकते हैं परन्तु बच्चे की देखभाल अभी भी मुख्य: तौर पर माँ का ही जिम्मा माना जाता है. ऐसे में कामकाजी माओं के पास एक ही विकल्प रहता है वह है नैनी। जो उसके बच्चे के हर काम करती है. उसकी जरूरतों का ध्यान रखती है और माँ जब काम से घर वापस आती है तो बच्चा उसे नहाया -धोया, साफ- सुथरा, खाता – पीता उसके गले लगने को और खेलने के लिए तैयार मिलता है. फिर कुछ ही देर बार एक बेड टाइम स्टोरी सुनकर सो जाता है.
यानि देखा जाए तो जरुरत सबकी पूरी हो रही हैं पर कहीं माँ का दिल कसक जाता है. बच्चे की परवरिश में एक माँ अपने आपको बहुत पीछे पाती है. क्योंकि बच्चे के पैदा होने से कम से कम ११ – १२ साल तक की उम्र तक उस माँ का बच्चे से रिश्ता बस कुछ पलों का ही रहता है. वह बच्चे का कोई काम नहीं करती तो जाहिर है उनके प्रति उसका आत्मविश्वास कम रहता है और आत्मविश्वास कम होने से अधिकार की भावना भी कम होने लगती है और फिर बच्चे के साथ वह असली रिश्ता नहीं बन पाता। अधिकांश समय नैनी के साथ बिताने के कारण बच्चा उसी से ज्यादा जुड़ा रहता है और कई बार तो स्कूल या अन्य स्थानो, आयोजनों में माँ द्वारा निभाये जाने वाले कार्य भी नैनी ही निभाते हुए देखी जाती है. ऐसे में इस प्रगतिशील औरत के अंदर की माँ कसमसा जाती है. रात को सोते हुए जब बच्चा पूछता है “कल स्कूल से लेने आप आओगी न मम्मा ? कोई बात नहीं, देर हो जाएगी तो मैं इंतज़ार कर लूंगा”। तो उस माँ का कलेजा बाहर आ जाता है. उसे लगता है इस नैनी की सुविधा ने उसे एक बुरी माँ बना दिया है, जो अपने बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाती।
एक नैनी बेशक कितनी भी अच्छी हो, वह अपना काम करती है, अपना कर्तव्य निभाती है. बच्चे को माता – पिता का स्नेह नहीं दे सकती और फिर यह बच्चे भी बड़े होकर अपने रिश्तों के प्रति उस तरह का लगाव नहीं महसूस करते।
अत: अपने इस मातृत्व के कारण बहुत ही माएं बच्चे की परवरिश के दौरान अपने कामकाजी घंटों में परिवर्तन कर लेती हैं, देर रात तक अतिरिक्त कार्य करतीं हैं कि बच्चे के लिए उन्हें पूरा समय मिले। ऐसे में कहीं न कहीं उन्हें अपने कैरियर से समझौता करना ही पड़ता है और इसके लिए वह तैयार रहतीं हैं.
क्योंकि, आप उन्हें नैनी कहिये, गवर्नेस कहिये, हेल्पर कहिये या केयर टेकर कहिये …कोई भी माँ का विकल्प नहीं हो सकती।
सच कह रही हैं आप यदि भगवान ने माँ का विकल्प बनाया होता तो माँ ,माँ न रहती
अभार
माँ का विकल्प तो किसी भी समाज में नहीं है … और अपने देश मिएँ तो माँ का महत्त्व भी बहुत है …
माँ की जगह कोई नहीं ले सकता संसार में। .
चिंतनशील प्रस्तुति
कोई भी माँ का विकल्प नहीं हो सकती….sahi kaha
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