अपनी अभिलाषाओं का
तिनका तिनका जोड़
मैने एक टोकरा बनाया था,
बरसों भरती रही थी उसे
अपने श्रम के फूलों से,
इस उम्मीद पर कि
जब भर जायेगा टोकरा तो,
पूरी हुई आकाँक्षाओं को चुन के
भर लुंगी अपना मन।
तभी कुछ हुई कुलबुलाहट मन में
धड़कन यूँ बोलती सी लगी
देखा है नजरें उठा कर कभी?
उस नन्ही सी जान को बस
है एक रोटी की अभिलाषा
उस नव बाला को बस
है रेशमी आँचल की चाह
उन बूढी आँखों में बस
आस है अपनों के नेह की
और उस मजदूर के सर बस
एक पेड़ की छांव है।
और मैने
अपनी अभिलाषाओं से भरा टोकरा
पलट दिया उनके समक्ष
बिखेर दिए सदियों से सहेजे फूल
उनकी राह में
अब मेरी अभिलाषाओं का टोकरा तो खाली था,
पर मेरे मन का सागर पूर्णत: भर चुका था.
बहुत अच्छी भावना से लिखती हैं आप।
आज पहली बार आपको पढ़ा है लेकिन कुछ अपना सा लगा यहाँ आना। बहुत शुभकामनाएं।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है।
बधाई!
सुन्दर सोच की सुन्दर अभिव्यक्ति……
शिखा ,
बहुत सुन्दर भाव . तुमको पढना हमेशा बहुत अच्छा लगता है… बधाई
त्रिपाठी जी ने मेरे शब्द पहले से यहाँ भेज दिये ।
एसे ही अभिलाषाओं के टोकरे लुटाती रहें
शुभकामनाएं ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्त किया है आपने.
भाव की प्रगाढता ने रचना को आयाम दिया है.
बेहतरीन
बहुत ही सुन्दर रंगों से सजा है आपका अभिलाषाओं का टोकरा ……… मन को छूती है आपकी रचना ….. लाजवाब …..
अपनी संवेदनाओं और सरोकारों को समाज के वंचित हिस्सों तक आयाम देने की जरूरत को भावुकता के साथ स्थापित करने का प्रयत्न करती एक बेहतर कविता।
यही महत्वपूर्ण है। शुक्रिया।
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गहरे भावों से रची-बसी एक सुन्दर कविता.
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
http://www.cmgupta.blogspot.com
और मैने अपनी अभिलाषाओं से भरा टोकरा
पलट दिया उनके समक्ष
बिखेर दिए सदियों से सहेजे फूल
उनकी राह में
अब मेरी अभिलाषाओं का टोकरा तो खाली था,
पर मेरे मन का सागर पुर्णतः भर चूका था.
बहुत ही सुन्दर ….!!
सबसे पहले आपका शुक्रिया की आप मेरे ब्लॉग पे आई और मेरा होश्ला बढाया…आपकी कविता बहुत अच्छी लगी सच में वंचितों की सहायता कर के जो आत्म् संतुष्टि मिलती है वो कहीं और नहीं…आपका ब्लॉग बहुत बढ़िया है …आशा है ऐसे ही मिलते रहेंगे..
शिखा जी,
आपके परिचय में ही यह बता दिया है कि "स्पंदन" शुद्ध रूप से कवित्त में महसूस किया जा सकता है बगैर किसी पहचान के फिर वो चाहे गज़ल हो, मुक्तक हो या अन्य किसी रूप में। यह बात सोलह आने सच कही है आपने।
बिखेर दिए सदियों से सहेजे फूल
उनकी राह में
अब मेरी अभिलाषाओं का टोकरा तो खाली था,
पर मेरे मन का सागर पुर्णतः भर चुका था.
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आपका कवितायन पर आने का शुक्रिया।
और मैने अपनी अभिलाषाओं से भरा टोकरा
पलट दिया उनके समक्ष
बिखेर दिए सदियों से सहेजे फूल
उनकी राह में
अब मेरी अभिलाषाओं का टोकरा तो खाली था,
पर मेरे मन का सागर पुर्णतः भर चूका था.
bahut sundar soch..
itna soch hi lena badi baat hai..
kavita bahut prabhavit karti hai..
badhai…
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ!!!
बधाई!!!
Apki abhilashaaon ke tokre ne to kamaal kar diya hai Shikha…behad khoobsurat…
bahut shaandar nazm kahi hai di..
loved it
पहली बार आयी हूँ आपके blog पे और आपने हिला दिया …कितना सच है ….गर हम अपने अतराफ़ में देखें तो कितने दिल रिक्त हैं ,कितने आँचल पते हाल हैं, कितनी आँखें शून्य में तकती हैं …बेहद संवेदनशील रचना है आपकी ..
सुन्दर एवम सरल शब्दों में लिखी गयी अच्छी रचना—–
हेमन्त कुमार
sundar abhivayakti
Kavita se zyada sundar aapki soch h… badhai sweekar karein…
सुन्दर भाव , अच्छा लगा
"पर मेरे मन का सागर पूर्णत: भर चुका था…"
मन की अभिलाषाओं की पूर्ती के लिए
चाहिए….
कुछ समर्पण ,
कुछ त्याग-भावना ,
कुछ gehree संवेदनाएं …
जो आपकी इस पावन नज़्म में सिमटी हुई हैं
और नज़र भी आ रही हैं
एक बहुत अच्छी और स्तरीय रचना पर
अभिवादन स्वीकारें
—मुफलिस—
बहुत ही सुन्दर,अभिलाशाओं का टोकरा उलट दिया ।
बहुत गहरी अभिव्यक्ति है आपकी रचना में !!
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 01-03 -2012 को यहाँ भी है
..शहीद कब वतन से आदाब मांगता है .. नयी पुरानी हलचल में .
अमृता जी की याद दिला गईं आपकी पंक्तियाँ !
बहुत प्यारे भाव!!
अति सुन्दर…
धन्यवाद शिखा जी! आपकी कृतियाँ अच्छी हैं। आपको आपकी रचनाओं के लिए तथा देश की मिट्टी की महक लन्दन में महकाने के लिए पुनः बहुत बहुत धन्यवाद और साभार।
जय हिन्द जय हिंदी।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
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