होली के सच्चे रंग नही अब
यहाँ खून की है बोछर
दीवाली पर फूल अनार नही
अब मानव बम की गूँजे आवाज़
ईद पर गले मिलते नही क्यों
गले काटते हैं अब लोग
क्रिसमस पर अब पेड़ नही
लाशों का ढेर सजाते हैं क्यों लोग
हो लोडी,ओडम या तीज़,बैशाखी
अब बजते हैं बस द्वेष राग
सस्ती राज़नीति मैं बिक गये
हमारे कीमती सब त्यौहार।
मेलों बाजारों की रौनकें अब
हो गईं खौफ से तार तार.
मुनियों के देश की बागडोर
आई जब स्वार्थी नेताओं के हाथ .
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अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है.
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