हमारी भारतीय संस्कृति में “दान” हमेशा छुपा कर करने में विश्वास किया जाता रहा है.कहा भी गया है कि दान ऐसे करो कि दायें हाथ से करो तो बाएं हाथ को भी खबर न हो. ऐसे में अगर यह दान “शुक्राणु दान ” हो तो फिलहाल हमारे समाज में इसे छुपाना लगभग अनिवार्य ही हो जाता है.हालांकि हाल में ही प्रदर्शित अंशुमन खुराना द्वारा अभिनीत हिंदी फ़िल्म “विकी डोनर” ने इस क्षेत्र में काफी जागरूकता फैलाने का कार्य किया। बहुत से लोगों को तो सिर्फ इस फ़िल्म को देखकर ही इस कार्य की जानकारी हुई. और कुछ समय पहले एक पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक इस फिल्म की रिलीज के बाद गुजरात के नवयुवक इस दान में काफी उत्सुकता से हिस्सा लेते देखे गए हैं. जिससे उन्हें आसानी से अपना जेब खर्च मिल जाता है. भारत में एक बड़े शहर में रह रहे एक परिचित ने बताया कि उनके गाँव से एक नि:संतान दंपत्ति हर महीने उनके घर इसी बाबत जानकारी लेने आते हैं. लोगों में सेरोगेसी, आई वी ऍफ़ और अब शुक्राणु या अंड दान को लेकर जागरूकता और खुलापन तो आया है एक परन्तु अभी भी हमारे समाज में यह एक “टेबो” की तरह ही देखा जाता है. बहुत से लोगों से बात करने पर मैंने पाया कि लोग इस कार्य को परोपकार की दृष्टि से तो देखने लगे हैं और इसमें कोई बुराई नहीं समझते परन्तु अभी भी अपनी पहचान इस कार्य हेतु जाहिर नहीं करना चाहते। वहीं कुछ पढ़ी लिखी महिलाओं ने कहा कि यह एक अच्छा कार्य है परन्तु शायद अपने पति को वह इस कार्य की अनुमति नहीं दे पाएंगी। कुछ ने तो इस उपाय को ही सिरे से खारिज कर दिया। हालाँकि कुछ लोगों ने इसे रक्तदान जैसा ही सहज बताया।
वहीं ज्यादातर अरब देशों में और कुछ समुदायों में धार्मिक नियमों के आधार पर शुक्राणु अथवा अंडदान कानूनी रूप से अवैध भी है.
परन्तु विश्व की वित्तीय राजधानी कहे जाने वाले वाले शहर लंदन में पिछले दिनों आये कुछ आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकला है कि यह शहर इस समय”शुक्राणु दान ” के “बूम” से रू ब रू हो रहा है.
पिछले महीने प्रकाशित नए आंकड़ों से पहली बार इन डोनर्स के प्रोफाइल पर प्रकाश पड़ा है. इसके अनुसार अब बजाय छात्रों के, वकील, फ़िल्म निर्माता, और फाइनेंसर्स जैसे पेशेवर लोग इसके जरिये नि:संतान दम्पत्तियों के माता पिता बनने में मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं.
ब्रिटेन के सबसे बड़े प्रदाता – लंदन शुक्राणु बैंक के अनुसार पिछले ३ सालों में ५१३ पुरुषों को भर्ती किया गया है जो कि पिछले १५ साल की अपेक्षा में ३०० प्रतिशत अधिक है.
जबकि १९९५ से २०१० के दौरान सिर्फ ६५८ व्यक्तियों ने इसपर हस्ताक्षर किये थे.
इन नए आंकड़ों में मॉडल , बार टेंडर और रसोइयों के साथ 45 आई टी प्रबंधक , 36 फाइनेंसर , 26 इंजीनियर, 19 अध्यापक , 16 अभिनेता , सात वकील और छह फिल्म निर्माता भी शामिल हैं.
और एक समाचार पत्र में, शुक्राणु बैंक के निदेशक कमल आहूजा के कथन अनुसार “ये नतीजे बताते हैं कि पुरुषों को इस कार्य के लिए प्रेरित किया जा सकता है. दानकर्ता उन नि:संतान लोगों को संतान सुख देने की सद्दभावना को प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक है, जिनके पास संतान पाने का सिर्फ एक यही उपाय है”.
इस संस्था ने २०१० में इन दाताओं की संख्या में वृद्धि करने के लिए एक अभियान शुरू किया था जिसमें सोशल मीडिया के जरिये भी विभिन्न पृष्टभूमि के लोगों को आकर्षित किया गया.
आज लंदन में इन शुक्राणु बैंक से सम्बंधित कई साइट हैं जहाँ बहुत ही आसानी से दानकर्ता अपना रजिस्ट्रेशन कुछ ही क्लिक्स से करवा सकते हैं और इन सेवाओं का लाभ लेने के इच्छुक माता पिता बेहद आसानी से अपनी पसंद अनुसार सारी सूचना और सुविधा का लाभ उठा सकते हैं
ये आंकड़े और यह बूम इस ओर इशारा करते हैं कि इस कार्य में अपने नाम के खुलासे से होने वाला डर और किसी तरह के शुक्राणु संकट की आशंका अब निराधार है.
अपनी संतान पाने की इच्छा लगभग हर इंसान में स्वाभाविक रूप से होती है ऐसे में दुर्भाग्य वश संतान उत्पत्ति में असमर्थ दम्पन्तियों के लिए और चूँकि अब यू के में समलैंगिक विवाह भी मान्य है. तो जाहिर है ऐसे जोड़ों में यह शुक्राणु दान का “बूम” अवश्य ही वरदान साबित होगा।
और शायद वक्त के साथ यह दान भी खुले तौर पर, सहज रूप से लोग स्वीकारने लेगेंगें ।
जो भी हो फिलहाल यह एक ऐसा दान तो है ही जो “दान” के साथ “दाम” भी देता है.
यानी आम के आम और गुठलियों के दाम.
शुद्धतावादी थोडा मुंह बिचका सकते है , परंपरा के खिलाफ बता सकते है . लेकिन उन जोड़ो के होठों की हंसी नहीं छीन सकते जिनको इस दान से संतान सुख की प्राप्ति होती है . सुविचारित लेख के लिए साधुवाद आपको ..
हम तो सराहना करते हैं ऐसी दान की और विज्ञान की इस दिशा में हुई प्रगति की….
सार्थक लेख के लिए बधाई शिखा !
अनु
दान तो दान ही है … हमारे समाज में तो दधीची जैसे दानवीर, कर्ण जैसे दान वीर हुए हैं जिन्होंने सब कुछ दान दे दिया … तो फिर वीर्य दान में क्यों और कैसी आपत्ति …
बहुत ही सार्थक लेख। मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ !
Why not.
सार्थक लेख के लिए बधाई
नई पोस्ट
……… खामोश रही तू :))
सही है शिखा. इसे महादान कहें तो अतिश्योक्ति न होगी.
आईडिया बुरा नहीं है, अब N. D. तिवारी जी कह सकते है कि मैंने तो दान दिया था !!!!
शुक्राणु दान को गुप्त रखना नियमानुसार आवश्यक होता है . लेकिन बूम आने से तो परेशानियाँ भी बढ़ सकती है . यह एक खेल नहीं बनना चाहिये !
निःसंतान जोड़े इसे किस प्रकार लेते हैं , यह मैं नहीं सोच पा रही हूँ। उनके नजरिये से शायद यह दान उचित हो। व्यक्तिगत राय में मैं सरगोसे तकनीक को भी पसंद नहीं करती। उससे कही बेहतर है अनाथ बच्चों को गोद ले लेना।
पैसे के लिए इस प्रकार के दान कब दबाव में बदल जायेंगे, कहा नहीं जा सकता !!
दान कहें या न कहें लेकिन यह विज्ञान का चमत्कार है और नि:संतान दम्पत्तियों के लिये वरदान!!
तकनीक का रोचक व व्यापक प्रयोग
में एक ब्राह्मण हूं। पुराणों में भी पढ़ा होगा सब ने की किसी और की संतान हे ये शायद उस समय भी वीर्य दान का चलन होगा पर दान गुप्त होता हे।
में भी दान करूँगा अगर कोई सही दान देने लायक मिले इससे पुण्य मिलता हे। किसी की गोद भरने से यह पाप नही अगर सही तरीके से हो गुप्तता रखे।09427034999
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