अभी कुछ दिन पहले करण समस्तीपुर की एक पोस्ट पढ़ी कि कैसे उन्होंने अपनी सद्वाणी से एक दुर्लभ सा लगने वाला कार्य करा लिया जिसे उन्होंने गाँधी गिरी कहा.और तभी से मेरे दिमाग में यह बात घूम रही है कि भाषा और शब्द कितनी अहमियत रखते हैं हमारी जिन्दगी में.
यूँ कबीर भी कह गए हैं कि-
यहाँ आज ये सब कहने का मेरा तात्पर्य हमारे द्वारा कहे गए शब्दों की कीमत आँकने का है.कितने मायने रखते हैं वे शब्द जो हमारे मुखारबिंद से निकलते हैं .और कितना उनका असर होता है सामने वाले पर और खुद अपने ही व्यक्तित्व पर.
ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥
यहाँ आज ये सब कहने का मेरा तात्पर्य हमारे द्वारा कहे गए शब्दों की कीमत आँकने का है.कितने मायने रखते हैं वे शब्द जो हमारे मुखारबिंद से निकलते हैं .और कितना उनका असर होता है सामने वाले पर और खुद अपने ही व्यक्तित्व पर.
मनुष्य खामियों का पुतला है – ईर्ष्या,द्वेष, जलन, प्यार ,संवेदना और क्षोभ जैसे भाव मनुष्य के स्वभाव में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं जिन पर काबू पाना बेहद कठिन होता है,और जो पाने में सफल हो जाते हैं वो इंसान से एक पायदान ऊपर चले जाते हैं. उन्हें हम महान या साधू या सन्यासी कह सकते हैं.और जो इंसान है वह इन भावों से अछूता नहीं रह सकता .
परन्तु भाषा खुद इंसान का बनाया माध्यम है,जिसे उसने अपनी सुविधा के लिए इन भावों को प्रदर्शित करने के लिए बनाया है अत: उस पर काबू पाना उसके लिए इतना कठिन नहीं होता.
हमारे मुँह से निकला एक शब्द हमें यदि किसी के करीब ला सकता है तो दूसरा ही शब्द दूरियों का कारण भी हो सकता है.कुछ लोग यह भी कहते हैं कि क्या फर्क पड़ता है किसने क्या कहा, क्यूँ कहा. परन्तु फर्क तो पड़ता है.किसी से परिचय का पहला माध्यम हमारे शब्द ही होते हैं,और उससे आगे के बने सम्बंध भी उन्हीं शब्दों पर ही टिके होते हैं.हालाँकि हमारे द्वारा किसी के लिए भी प्रयुक्त अपशब्द उसका कुछ बिगाड़ लेते हैं ऐसा कम ही देखने में आता है ज़्यादातर ये शब्द हमारे अपने ही व्यक्तित्व को खराब करते हैं. हमारी अपनी ही छवि के लिए हानिकारक होते हैं. अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर हम यह सुनते आये हैं “क्यों अपशब्द बोल कर अपनी जीभ ख़राब करना.”
मीठी भाषा से ना केवल सामने वाले पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है बल्कि हमारा व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है.कटु शब्दों के प्रयोग से संभव है कि वक़्तिया तौर पर आपके काम हो जाएँ कोई डर कर या मजबूरी में आपके कार्य कर दे परन्तु लम्बे समय के लिए वह आपके लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है.और जोर ज़बरदस्ती से या कटु वचनों से मान सम्मान तो आप हासिल कर ही नहीं सकते.ना ही कोई मन से आपका कार्य ही करेगा और जाहिर है बिना मन से किया गया कार्य ना तो प्रभावी होगा ना ही टिकाऊ.शब्द वही इस्तेमाल करने चाहिए किसी के लिए जिन शब्दों की उम्मीद हम अपने लिए करते हैं.
जैसा कि कबीर ने कहा है –
“बोली एक अमोल है,जो कोई बोली जानी
हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आनी.”.
मान सम्मान, इज्ज़त या प्यार जीता जाता है, मृदु शब्दों के बदले उन्हें पाया जा सकता है.जबरन या मजबूरी या कटु वचनों से हो सकता है इसका दिखावा मिल जाये पर सच्चे भावो को नहीं पाया जा सकता ना ही महसूस किया जा सकता है .
आज दर्शन चिंतन ज्यादा हो गया ना ..कभी कभी यूँ भी सही 🙂
बिलकुल सच्ची बात कही आपने…
निम्बोली का स्वाद बड़ी देर तक रहता है जीभ पर…
लोगों का दिल अगर जीतना तुमको है तो…बस मीठा मीठा बोलो…
सार्थक रचना…
सादर.
सत्य वचन….
shikha ji
namaskar, sach hi hain ham apni boli se kisi ko bhi apna bana sakte hain.
bahut hi sahi baat kahi aapne.
बेशक व्यक्ति की बातें दूसरों पर अपना प्रभाव अवश्य छोडती हैं , अच्छा या बुरा ।
मीठी वाणी सभी को भाती है । लेकिन वाणी के साथ कर्मों में भी मिठास होनी चाहिए ।
kisi ki soorat ka asar aankho ke saamne rehne tak rehtaa hai …par boli kaa asar..dil par hameshaa ke liye rah jaata hai
" सच्ची बात कही थी मैंने ……??" बाणी का अपना प्रभाव है ….लेकिन बात करना भी एक कला है …आपके भाव बाणी के माध्यम से प्रकट होते हैं ..लेकिन असली श्रोता आपके शब्दों के बजाए आपके भाव पर ज्यादा ध्यान देता है ….कई बार हम बहुत मीठे तरीके से बोलते हैं लेकिन उसके मिठास पीछे भाव बहुत कडवा होता है ….इसलिए सिर्फ बाणी का ही महत्व नहीं , बल्कि बाणी के साथ – साथ उस भाव का भी महत्व है जो उन शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जा रहा है …आपकी पोस्ट सराहनीय है ….! सलाम
संस्कृत साहित्य का यह अनमोल वचन –
सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम …..
सत्य तो बोलो मगर प्रिय बोलो ,अप्रिय सत्य भी मत बोलो …
और अच्छे वचन में दारिद्रय कैसा ? वचने का दरिद्रता ?
जीभ के घाव बहुत जल्दी भर जाते हैं – मगर जीभ से घाव जो लगते हैं वो आसानी से नहीं भरते!!
बात तो सच है आपकी मगर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है इस संसार में जो ऊपर से तो बहुत मीठा मीठा बोलते हैं मगर मन में उनके झर भरा होता है। उसे तो अच्छा है, कोई भले ही कड़वा बोले मगर दिल से तो बोलेगा 🙂
बहुत सार्थक आलेख…आदमी की ज़ुबान ही किसी को दोस्त या दुश्मन बना देती है…
तभी तो कहते हैं न की ….तलवार का घाव फिर भर जाता है ….शब्दों की मार का नहीं
सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात,
न ब्रूयात अप्रियं सत्यं।
एक पासवर्ड है,
जो खोल सकता है,
तमाम दिलों को,
तमाम बंद रिश्तों को,
तमाम उलझनों को |
वो,
पासवर्ड है,
बस,
**************
"दो बोल प्यार के"
तुलसी मीठे बचन ते , सुख उपजत चहु ओर
बसीकरन एक मंत्र है , परिहरु बचन कठोर
तुलसी बाबा तो कबहू गलत नाही बोलत है
आज तो आप दार्शनिक हुई जा रही हो. कडुवा पन को दिल में लेकर जीने वाले मीठी बातो से बाबस्ता नहीं रखते है.. एक बात और बचपन में दादी से काली जिह्वा के बारे मने सुना था . . . बहुते जबर चिंतन
बहुत अच्छी और सच्ची बात बताई है आपने शिखा जी.
सीखने की बाते हैं.
मेरी पोस्ट 'ऐसी वाणी बोलिए' और 'वंदे वाणी विनायाकौ' भी देखिएगा .अर्चना चाओ जी ने इनकी
पोडकास्ट भी बनाई हैं,जो उनके ब्लॉग पर और शायद
'मिसफिट' पर भी लगाई हैं.
वाणी का कितना महत्त्व है यह जानते तो सभी हैं … पर फिर भी स्वभाव के कारण जीव्हा पर बंदिश नहीं लगा पाते … कबीर ने अपने दोहों में सार्थक उपदेश दिये हैं …
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥
लेकिन हम स्वयं ही मन को अशांत कर बैरी बना लेते हैं ,
यह दार्शनिक पोस्ट सार्थक संदेश देती हुई ॥
🙂 "आज दर्शन चिंतन ज्यादा हो गया ना ..कभी कभी यूँ भी सही" 🙂
सही है जी सही है … 😉
darshan aur chintan bahut achchha hai aur sabhi ke chintan-manan yogya. sachchhi aur 100 fisadi khari baat. shubhkaamnaayen.
आपने तो ऐसा विषय छेड़ दिया है कि अगर लिखने लगूं तो …
फिलहाल तो हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है ..
पर बोलेगा ज़रूर …
… ज़ारी है …
हमें अपनी जुबान पर नियंत्रण रखना चाहिए। घर-परिवार में भी अधिकतर झगड़े वाणी के दुरुपयोग से होते हैं। हमारी जीभ खाने को तो मीठा-मीठा चाहती है और बोलती कड़वा-कड़वा है। इन्द्रियों में सिर्फ यही एक है जिसके दो-दो काम हैं। एक तो चखना और दूसरा बकना। हम इसका उपयोग चखने में करें बकने में नहीं। साथ ही बोलने और बकने के अन्तर को भी स्मरण रखना चाहिए। वरना रहीम जी का यह दोहा ध्यान में रहे
रहिमन जिह्वा बाबरी, कहिगै सरग पताल।
अपु तो कहि भीतर रहि, जूती खात कपाल।
सुना ही होगा, ‘वही मुख पान खिलावै, वही मुख पनही (जूता)!’
इसलिए हमें यह बात तो गांठ बांध लेनी चाहिए कि ‘गुड़ न दें तो गुड़ की-सी बात तो करें!’
क्योंकि बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है, किन्तु कटु वचन कहकर वाणी से किया गया भयानक घाव नहीं भरता।
वाणी को वीणा बनाएं, बाण न बनाएं।
वीणा बनेगी तो जीवन में संगीत होगा।
बाण बनेगी तो जीवन में महाभारत होगा।
किंतु कुछ लोग वाणी से ही अपना पराक्रम दिखाने में विश्वास रखते हैं।
आज अपने मित्र के साथ अस्पताल जाना हुआ वहां नोटिस बोर्ड पर एक सुन्दर बात लिखी देखी- ''क्रोध के वक्त किसी को बोलने से पहले दस बार सोचें।'' अक्सर इंसान क्रोध में ही गलत कठोर बोली बोलता है। इंसान को यह भी सोचना चाहिए कि दो मीठे बोल बोलने में उसकी जेब से तो कुछ खर्च होना नहीं फिर क्यों कंजूसी करना।
संभव हो तो जीवन की आपाधापी के बीच मौन ब्रत रखना अतिउत्तम है
मौन और वाणी का सही संतुलन आवशयक है मगर मुश्किल भी …जब मन कर रहा हो कि किसी का सिर फोड़ दे उस समय मुस्कुराकर बोला कैसे जाए:)
बहुत अच्छी बात, सच है सबकुछ आपके द्वारा बोले गए शब्दों पर ही निर्भर रहता है।
"बोली एक अमोल है,जो कोई बोली जानी
हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आनी.".
यही तो है वाणी का खेल …………शब्द ही अपना बनाते है और शब्द ही पराया……………सार्थक लेखन्।
ye kya ho gaya tumhe??
updesh dene lagi..:))ham tum jaise dost bhi aisee baaten kahne lage, to manana hi padega!!
par waise aajkal log namak(salt) liye chalte hain, jahan kisi ka jakhm dikha nahi ki daal diya:D:D: ab hote raho lahuluhaaan!!
शिखा जी विचारणीय पोस्ट के लिए सादर आभार ….
बात जो दिल से निकलती है असर रखती है |
पर नहीं , तकते परवाजे मगर रखती है ||
इंसान की जुबान जब दिल से निकलती तो असर क्र ही जाती है.
मेरा ख्याल है … आत्मचिंतन का ख्याल यूँ हीं नहीं लम्बा होता , दार्शनिक होना यूँ हीं नहीं – तो जो है वह सही है और सोच समझ के है .
बिल्कुल सही कहा है आपने …बहुत ही बढिया।
कई महत्त्वपूर्ण 'तकनिकी जानकारियों' सहेजे आज के ब्लॉग बुलेटिन पर आपकी इस पोस्ट को भी लिंक किया गया है, आपसे अनुरोध है कि आप ब्लॉग बुलेटिन पर आए और ब्लॉग जगत पर हमारे प्रयास का विश्लेषण करें…
आज के दौर में जानकारी ही बचाव है – ब्लॉग बुलेटिन
बहुत बेहतरीन….
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
सुन्दर.
बातचीत से दुनिया की हर समस्या का हल निकाला जा सकता है और फिर मीठे बोल… यह तो सोने पर सुहागे की तरह है।
सार्थक लेखन।
जय हो…प्रवचन सुन लिया…सतसंग का आनन्द आया. 🙂
सच कहा शिखा जी वाणी पर संयम अवाश्यक है. सार्थक प्रस्तुति.
इसलिए तो देखिये मैं हमेशा "मीठी" बातें करता हूँ..
ऐसा दर्शन-चिंतन करवाते रहिये ब्लॉग पर, ज्ञान बांटना चाहिए 😉
सार्थक और सामयिक पोस्ट, बधाई.
सार्थक, सीख देता आलेख ,
सादर
शिखा जी ऐसी वाणी जो सिर्फ काम निकलने के लिए बोली गई हो …परन्तु मन में शुद्धता न हो क्या फायदा …..
वाणी के साथ साथ विचार भी वैसे हों तो कोई बात है ….
काम के लिए मीठा बोलना मतलब निकलना सा लगता है ….
आपका आलेख अपने आप में एक सुभाषित है। मेरा भी उल्लेख करने के लिए धन्यवाद।
सादर !
सच कहा..बहुत सार्थक आलेख..
सच लिखा है … इंसान की बोली उसके चरित्र का भी धयोतक होती है … मीठी वाणी से हर कोई अपना अपने आप ही बन जाता है …. सार्थक पोस्ट …
बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,
शिवरात्रि की शुभकामनाएँ।
कभी कभी यूँ भी सही 🙂
बिलकुल सही कह रही है. डा. दाराल जी से सहमत.
अच्छा लगा आपके दार्शनिक विचार पढ़ कर ..कभी कभी जीवन दर्शन बहुत सकूं देता है
सही है. वाणी हमेशा विनम्र और मीठी होनी चाहिए, लेकिन अधिक मिठास भी खतरनाक होती है. जो हमसे केवल मीठा-मीठा बोले, समझिये वो हमारा हितैषी नहीं है. हां ये बात दीगर है, कि हम हर व्यक्ति के प्रति तटस्थ भाव अपना लें, कि हमें क्या करना, भाड़ में जाये अगला , तो ऐसे व्यक्ति भी घातक होते हैं. क्योंकि ये मित्र नहीं होते. मित्र कभी तटस्थ नहीं हो सकता. वो अपने दोस्त की तारीफ़ करेगा तो उसकी कमियां भी बतायेगा ही.
कहा गया है कि 'असम्मानात् तपोवृद्धि: सम्मानातु तप: क्षय:।' यानी असम्मान से तपस्या में वृद्धि होती है और सम्मान से तपस्या का क्षय होता है।
निरी प्रशंसा और सम्मान से व्यक्ति अहंकारी होकर अपने उचित मार्ग या कर्तव्य-पथ से विचलित हो सकता है। प्रशंसा तो विष के समान है जिसे मात्र औषधि के रूप में अत्यंत अल्प मात्रा में ही लेना चाहिए। अधिक मात्रा घातक होती है। विरोध, निंदा या अपमान कटु औषधि होते हुए भी अच्छा है, क्योंकि यह रोग का उपचार करता है। कबीर ने तभी तो कहा है :
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ,
बिनु साबुन पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।
🙂 🙂 🙂
विनम्रता तो सदा ही प्रशंसनीय है मगर बुराई का मुखर विरोध भी अच्छे चरित्र की निशानी है।
You completed certain nice points there. I did a search on the issue and found most folks will consent with your blog.
बहुत बढ़िया