करी खा तो सकते हैं पर सूंघ नहीं सकते .
ब्रिटेन में करी का काफी प्रचलन है. जगह जगह पर भारतीय और बंगलादेशी टेक आउट कुकुरमुत्तों की तरह खुले हुए हैं और यहाँ के निवासियों में करी का काफी शौक देखा जाता है …पर समस्या तब खड़ी होती है जब उन्हें करी खाने से तो कोई परहेज नहीं पर करी की सुगंध से परहेज हो. एक समाचार पत्र की एक खबर के मुताबिक ब्रिटेन के एक प्राइमरी स्कूल की एक टीचर को २ साल के लिए सस्पेंड कर दिया गया है क्योंकि उसने कुछ बच्चों पर इसलिए एयर फ्रेशनर छिड़क दिया था क्योंकि उनपर से करी की दुर्गन्ध आ रही थी …इससे पहले इस अध्यापिका को एशियन बच्चों पर रंगभेदी टिप्पणियाँ करने का आरोप लग चुका है परन्तु वह साबित नहीं हो सका अब उसका कहना है कि बंगलादेशी /एशियन (यहाँ भारतीय,बंगलादेशी,पाकिस्तानी,श्रीलंकन सबको सम्मिलित रूप से एशियन पुकारा जाता है ) बच्चों से प्याज और करी की दुर्गन्ध आने के कारण उसने उन बच्चों पर एयर फ्रेशनर का छिडकाव किया. हालाँकि इन बच्चों में कुछ बच्चे नॉन बंगलादेशी भी बताये जाते हैं और उनके अभिभावकों का कहना है कि इस अध्यापिका को २ साल के लिए ही नहीं पूरे जीवन के लिए इस नौकरी से सस्पेंड किया जाना चाहिए.
हालाँकि यह पहली खबर नहीं जो मैंने पढ़ी है इससे पहले भी कई बार इस तरह की ख़बरें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सामने आती रहीं हैं ..एक बार मेरे अमेरिका प्रवास के दौरान एक भारतीय कंपनी ने अपने कर्मचारियों को एक मेल भेजा जिसमें हिदायत दी गई थी कि कृपया सभी अपना पर्सनल हाइजीन मेंटेन करें ..हुआ यह था कि एक क्लाइंट ने एक भारतीय कर्मचारी के साथ मीटिंग करने से इसलिए मना कर दिया था कि उसके शरीर से दुर्गन्ध आती है,और उसके साथ खड़े रहकर उसके लिए बात करना मुश्किल होता है .ये बातें पढ़ – सुनकर जाहिर तौर पर किसी भी भारतीय का खून खोल उठेगा परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या “एशियन वाकई बदबूदार होते हैं ?वो भी इतने कि सामने वाले की बर्दाश्त से बाहर की बात हो जाये …निश्चित ही ये बात हमें कहीं से पचने वाली नहीं लगती क्योंकि हमने भारत में तो कभी इस समस्या से किसी को दो चार होता हुआ नहीं देखा .परन्तु अगर हम ठन्डे दिमाग से सोचें तो कुछ बातों पर विचार कर सकते हैं हालाँकि ये बातें किसी भी तरह इस अध्यापिका के इस कृत्य को जस्टिफाई नहीं कर सकतीं.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता हम एशियन /भारतीय के भोजन में प्रयुक्त होने वाले मसालों की सुगंध बहुत ही तीव्र होती है और हो सकता है उन मसालों के आदी जो लोग नहीं होते उनके लिए वह सुगंध असहनीय हो जाती हो, जिस तरह से हममे से बहुत से लोगों के लिए चीनी भोजन की सुगंध या शकाहिरियों के लिए मांसाहारी भोजन की सुगंध असहनीय होती है .फिर भोजन में प्याज ,लहसुन की अधिकता जाहिर है आपके सांस को भी प्रभावित करती है ..और यह कहने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि अधिकाँश भारतीय उसके लिए चुइंग गम तक चबाना भी गवारा नहीं करते.जाहिर है इसका खामियाजा सामने वाले को भुगतना ही पड़ता है .यहाँ तक कि घर में बने खाने की वजह से मसालों की सुगंध कई बार कपड़ों तक में बस जाती है और शरीर पर चुपड़ा गया नारियल का तेल बेशक हमें सुगंध प्रतीत होता हो, पर किसी के लिए वह सुगंध असहनीय भी हो सकती है .पर उसके लिए भी कोई उपाय करना कुछ लोग अपनी शान के खिलाफ समझते हैं .बात भी ठीक है आखिर क्या खाया जाये, कब खाया जाये या क्या लगाया जाये ये हमारा मूल अधिकार है और अपने देश से बाहर आकर हम अपना ये अधिकार गँवा तो नहीं देते…परन्तु हम ये भूल जाते हैं कि एक पब्लिक प्लेस में काम करने पर या वहां शामिल होने पर वहां उपस्थित लोगों के बारे में सोचना भी हमारे अधिकारों के नहीं तो कर्तव्यों के अंतर्गत जरुर आता है ..जैसे कोई हमें हमारे मसालेदार खाना खाने से नहीं रोक सकता वह अवश्य ही हमारी आजादी का हिस्सा है ..परन्तु हमारी वह आजादी वहां ख़तम हो जाती है जहाँ से किसी और की नाक शुरू होती है .ऐसा नहीं है की बाकी देशवासी खाने में इत्र डाल कर कहते हैं या उनके शरीर से दुर्गन्ध नहीं आ सकती परन्तु सार्वजानिक स्थान पर लोगों के बीच वे इससे बचने के उपाय करने में गुरेज़ नहीं करते यानी शिष्टाचार के नाते हम और कुछ नहीं तो अपने साथी कर्मचारी की खातिर खाने के बाद एक चुइंग गम और कपड़ों पर डियोडरेन्ट का इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं.जैसे बाकी के लोग करते हैं …
मुझे याद आ रहा है एक मजेदार किस्सा जब एक अन्तराष्ट्रीय उड़ान के दौरान हमारे कुछ भारतीय साथी जहाज के ही गेलरी में पोटली खोलकर घेरा बनाकर बैठ गए कि “माँ का दिया हुआ खिचडी खाना है..जाने फिर कब मिलेगा” .अब क्योंकि उस उड़ान में ९९% भारतीय ही थे इसलिए किसी ने प्रत्यक्ष रूप से कोई आपत्ति नहीं जताई परन्तु अगर उस उड़ान में कुछ वेदेशी यात्री भी होते तो जरा सोचिये क्या हालत होती उनकी. क्या अपने साथी यात्रियों की सुविधा का ख्याल रखना हमारे शिष्टाचार के अंतर्गत नहीं आता?
निश्चित तौर पर उस अध्यापिका का वह व्यवहार किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता और उसे उसकी सजा भी मिली ..और निश्चित ही उस अमेरिकेन क्लाइंट का वह वक्तत्व अपमान जनक था ..पर क्या एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक होने के नाते हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि दुसरे देश में उस देश के मुताबिक अपने व्यवहार और थोडा ढाल सकें..जिस तरह अपने घर में हम कैसे भी रहे परन्तु घर से बाहर निकलते वक़्त , शिष्टाचार वश कुछ सामान्य मापदंड का हम पालन करते हैं . उसी तरह दुसरे देश में रहने पर ,वहां के लोगों के बीच काम करने पर ,वहां के नागरिकों के प्रति कुछ तो शिष्टाचार हमारा भी बनता ही है
aapne sirshak to aisa diya ki saare bhartiyan halla bol den…:)
par chuki main bharat ke baad sirf nepal ki dharti pe pair rakha hoon, isliye iss vishleshan pe jayaj tippani dena sambhav nahi hai!!
waise aapki sugandh lene kee pravriti bha gayee…:)
bahut khub!!
khali adhikaron ki bat na karke samajik paristhition ka bhi sochna jaruri he!
kyunki jab ham kisi samjah ka hissa bante hain to usi ke anusaar, niyamo ka palan karna jaruri he!
No doubt indian hone ke nate ajeeb si bat he; lekin jab aap bahar jate hain sudur desh me to aapko sochna mangta.
sudnar aalkeh, shiksha-prad
शिखा जी,
भारत की नई पीढ़ी आजकल इन सब बातों का बहुत ध्यान रखती है ,फिर भी जैसा आपने लिखा है, खान पान में अंतर होने के कारण ऐसा हो सकता है कि जो हमारे लिए नार्मल हो वही उनके लिए असहनीय हो !
दूसरों की like ,dislike का ध्यान देने में हर्ज़ ही क्या है ,यही तो अच्छी सभ्यता की निशानी है !
शिखा जी बहुत सि बाते ऎसी होती हे जिस मे दोष हमारा ही होता हे, लेकिन हम मे से कई लोग इसे नही मानते, हमारे घर मे जब खाना बनता हे तो उस समय किचन का दरवाजा बन्द कर दिया जाता हे ओर दो खिडकियो के आलावा भी चुल्हे पर लगा फ़ेन मसालो की हबा को बाहर फ़ेकता हे, ओर किचन या घर के कपडे भी हम सभी घर मे ही पहनते हे, बाहर जाने पर अलग कपडे पहनते हे, ओर खाना भी समय देख कर ही खाना चाहिये, मै प्याज का बहुत शोकिन हुं, लेकिन खाना खा कर झट से दांत साफ़ करे, अब बच्चे बडे हो गये हे, उन के मित्र (गोरे) भी घर आते हे, हमारा खाना खाते हे, लेकिन हमे खुद ही पहले अपनी सफ़ाई रखनी चाहिये, गोरो मे रंग भेद हे लेकिन सब मे नही, अच्छे स्व्भाव के लोग भी हे, हम हर बात पर इन्हे दोषी नही कह सकते, यहां बहुत से भारतिये हे जो उन्ही कपडो से खाना बनायेगे, उन्ही से बाजार घुम आयेगे, तो यह लोग चीखेगे ही, कई हमारे लोग बाजार मे भी बहुत उंची आवाज मे बात करेगे, हम भुल जाते हे कि हम जिस माहोल मे रहते हे वहां सब को आजादी हे, लेकिन हमारी तरह से दुसरो को भी आजादी का हक हे ओर हमे कोई हक नही उन की आजादी मे दखल अंदाजी करे, यानि यहां हमारी नाक खत्म हमारी आजादी की सीमा भी खत्म, आप के लेख की एक एक बात से सहमत हे , धन्यवाद
bilkul… humen aaj se nahi shuru se ye shiksha di jati rahi hai ki dusre ke ghar mein kuch had tak khud ko dhaalo
यह तो बिल्कुल सत्य है कि शराब, लहसुन, प्याज और तम्बाकू की गन्भ पसीने मे तो आती है है साथ ही मुँह और शरीर में बी आती है!
लेकिन वो अंग्रेज जो चेन स्मोकर है दूसरों की परवाह ही कब करते हैं!
दूसरों की सुविधा का ख्याल करना सभी का कर्तव्य होना चाहिए!
sab bhartiy badbudaar nahin hote, kuchh cheejen aisi hoti hain jinhen khane se badbu aati hai , fir angrej ho ya bhatiya
ये हो क्या रहा है आजकल्…………जि्से देखो वो ही भारतीयों के पीछे पडा हुआ है …………कभी बेचारे भारतीयो पर बहसियाने का ठप्पा लग जाता है और अब बदबूदार होने का…………यार बख्श दो बेचारो को …………सारी दुनिया की समस्याओ को सुलझाने का हमने ही तो ठेका नही ले रखा ना……………अब जब बाहर के लोग हमारे यहाँ आते है तो पतानही कैसी कैसी दुर्गंध आती है मगर बर्दाश्त तो यहाँ के लोग भी करते है ना…………ये कोई इतना बडा मुद्दा नही है मगर बना देते है बाहर के मुल्क्………इसका सीधा सा इलाज है जैसा वो भारतीओ के साथ करते है ना वैसा ही उनके साथ करने लगो सारी अक्ल ठीक हो जायेगी………………देखो शिखा यार सीरियस मत लेना …………तुम्हारा टाइटल देखकर ही जोश आ गया है आज्…………हा हा हा।
यह तो अजब प्रकरण है ,आश्चर्य हुआ,मेरे लिए तो नई जानकारी है,आभार .
मुझे लगता है की जब हम किसी दुसरे परिवेश में रहने को जाते है तो हमे उस परिवेश को अपनाने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए . अब अगर हमारा भोजन जो खुशबूदार मसालों के लिए लोकप्रिय है , हो सकता है उस मसाले की खुशबू अन्य देश के निवासियों को अच्छी ना लगे क्योकि वो इस खुशबू से परिचित नहीं है . हम अगर उनके साथ काम करते है तो हमे ये तो ख्याल रखना ही चाहिए की हमारी आदत उनकी परेशानी का सबब ना बने. ये भी सत्य है की शारीरिक दुर्गन्ध भारतीय या यूरोपियन नहीं देखती है . बात केवल जिस समाज में हम रहते है वहा के हिसाब से अपने को ढाल लेने की है .धुम्रपान जो भी करेगा ना करने वाले को उसकी गंध दुर्गन्ध ही लगेगी , लेकिन पीने वाले को ये तो सोचना ही चाहिए की उसके साथ में काम करने वाले लोगों को इस गंध से परेशानी हो सकती है और वो इसका उपाय ( जैसा की लेखिका ने लिखा है . चेविंग गम या कुछ सुगन्धित पदार्थ ) करना ही चाहिए . रही बात चमड़ी के रंग को देखकर किसी को बदबूदार कहना , ये तो सरासर अन्याय है . और उस अध्यापिका को उसकी सजा मिलनी ही चाहिए . आपने एक सटीक और प्रक्टिकल विषय को अधर बनाया है इस पोस्ट का .इसके लिए आभार आपका .
बेशक अध्यापिका का व्यवहार निंदनीय है ।
लेकिन यह सत्य है कि —
प्याज़ या लहसुन खाने से मूंह से बदबू आती है । विशेषकर सलाद में प्याज़ खाने से ।
पसीने की बदबू भी असहनीय होती है ।
जो लोग खाने के बाद कुल्ला या ब्रश नहीं करते , या जिनके दांत में केरिज होती है , उनके मूंह से भी बदबू आती है ।
नित्य प्रति स्नान भी इसीलिए आवश्यक है ।
अब कोई भारतीय हो या बंगला देशी या पाकिस्तानी या फिर अंग्रेज़ ही क्यों न हो –उपरोक्त स्थितियों में बदबू तो आयेगी ही । इसलिए सावधानी तो बरतनी चाहिए सभी को ।
वैसे अंग्रेजों से जो बदबू आती है , उसे बयान नहीं किया जा सकता ।
शिखा जी आज बहुत दिनो बाद आपका ब्लॉग देखा। पढ़ कर एक पुरानी टिप्पणी याद आ गई आप भी पढ़ियेगा और थोड़ा आनन्द लीजिये।
http://mereerachana.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
@ वंदना ! अरे यार पीछे कहाँ हम तो आगे पड़े हैं 🙂 हम भी भारतीय हैं और सोचो जब तुम्हें पोस्ट पढ़कर इतना गुस्सा आया तो हमें ये सब किस्से जब सुनने को मिलते हैं तो हमें कितना गुस्सा या शर्म आती होगी .
@अब जब बाहर के लोग हमारे यहाँ आते है तो पतानही कैसी कैसी दुर्गंध आती है" ही ही कैसी कैसी आती है ????:) 🙂 …
और बात यहाँ ट्यूरिस्ट की भी नहीं साथ काम करने वालों की है.
यह सही बात है कि सिगरेट की दुर्गन्ध या खास तरह की खाने की दुर्गन्ध हर इंसान से आ सकती है..मैंने कहा भी है कि ये लोग कोई इतर डालकर खाना नहीं खाते. जहाँ तक मैंने देखा है ज्यादातर लोग जब दूसरों से मिलते हैं या साथ काम से किसी एक स्थान पर होते हैं तो इस बात का ख़याल रखा जाता है .भोजन या सिगरेट के बाद के बाद मोउथ फ्रेशनर और डीओ का उपयोग उनकी आदत में शुमार होता है .जबकी बहुत से भारतीय इस बाबत उदासीन रहते हैं .( मैंने यह भी नहीं कहा कि सब भारतीय .)
कोई किसी के लिए अपनी आदतें नहीं बदलता सच है ..पर बात जब साथ रहने और काम करने की हो तो आपस में एकदूसरे का ख्याल रखना चाहिए…आखिर भारत से यहाँ आकर हम इनकी सुविधा के लिए अंग्रेजी भी बोलते हैं ना ? और यहाँ तक की आचरण भी पश्चमी सभ्यता के अनुसार ही करने लगते हैं :).और ये लोग भी हमारी सुविधा के लिए अपने बाजारों में हमारी जरुरत की चीज़ें मुहैया कराते हैं .तो फिर ये छोटी सी बात क्यों ध्यान हम नहीं रख सकते?
@ डॉ टी एस दराल जी, आप से सहमत हुं कि इन गोरो हे बहुत ही ज्यादा बदबू आती हे यह महीना महीना नहाते नही, ओर पता नही केसे केसे सेंट छिडक कर अपनी बदबू को छिपाते हे, जब कि भारतिया इन बातो मे इन से अच्छे हे हम नहाते तो रोज हे,
हा हा हा ..सुनीता जी ! कमाल टिप्पणी ढूंढ निकाली आपने …यहाँ आये सभी पाठकों से निवेदन है एक बार सुनीता शानू जी के इस लिंक पर अवश्य जाएँ :)निर्मल हास्य के लिए 🙂
http://mereerachana.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
शिखाजी,
आपसे कोई नहीं बच सकता.
वैसे मेरा मानना है कि सभी को सार्वजनिक स्थानों और और निजी अवसरों पर प्यार-मोहब्बत के दौरान खूशबूदार तो रहना ही चाहिए
सब लोगों की मानसिकता है ..क्या किया जा सकता है ..शीर्षक काफी कुछ वयां कर देता है ….पर प्रश्न रूप में..? उत्तर खोजना होगा …
अब यह बात तो सही है कि इंडियंस बदबूदार होते हैं. बहुत सारे एक्ज़ाम्पल यहाँ रोज़ मिलते हैं… हद तो तब होती है… जब एयर कंडीशन ट्रेन के बोगी में लोग ज़ोर ज़ोर से बेशर्म हवाएं छोड़ते रहते हैं… और यह भी नहीं सोचते कि बेचारे बाक़ी लोगों पर क्या असर हो रहा होगा..
शीर्षक ने लेख पढ़ने पर विवश कर दिया. लेकिन जब पढ़ाने लगा, तो लगा, यह किसी ललित निबंध से कम नहीं है. तथ्य भी है और भीतर का सत्य भी. यही कथ्य की सार्थकता होती है. भारतीय मानसिकता और तद्जनित सच्चाई पर सुन्दर विमर्श के लिए बधाई.
शिखा जी
आप की बात से बिलकुल सहमत हूँ | यहाँ भारत में भी एक समुदाय को बदबूदार कहा जाता है कारण वही है उनका ज्यादा मिट मसाला प्याज लहसुन खाना मेरी एक मित्र थी उस समुदाय से वो खुल कर उसे स्वीकार भी करती थी की हा हम लोगो में से ज्यादा दुर्गन्ध आती है | जब भारत में लोगो की ये सोच है तो यदि वहा ऐसा कुछ कहा जा रहा है तो गलत नहीं है हा वहा हम सब सामिल है | इस दुर्गन्ध से कितनी परेशानी होती है ये मुझसे बेहतर कोई नहीं जनता यहाँ मुंबई में लोग सुखी मछली खाते है जब वो पकाया जाता है तो उससे इतनी दुर्गन्ध आती है की मेरा अपने घर में रहना मुश्किल हो जाता है मुझे सारी खिड़किया दरवाजे बंद कर रूम फ्रेशनर छिड़कना पड़ता है मई कई बार अप्रत्यक्ष रूप से अपने पडोसी को टोक चुकी हूँ की जब वो सुखी मछली बनाये तो अपने दरवाजे खिड़की बंद कर ले पर वो नहीं सुनते है ऐसे ही होते है भारतीय क्या किया जाये |
.पर क्या एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक होने के नाते हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि दुसरे देश में उस देश के मुताबिक अपने व्यवहार और थोडा ढाल सकें..जिस तरह अपने घर में हम कैसे भी रहे परन्तु घर से बाहर निकलते वक़्त , शिष्टाचार वश कुछ सामान्य मापदंड का हम पालन करते हैं . उसी तरह दुसरे देश में रहने पर ,वहां के लोगों के बीच काम करने पर ,वहां के नागरिकों के प्रति कुछ तो शिष्टाचार हमारा भी बनता ही है
Shat pratishat sahmat!Kewal pardes me nahi,apne desh me bhee!
Meree naukree kee jagah,meree apni halat kharab ho gayi thi….ek sahkarmi roz kachha lahsun khake aata tha!Uf!
शिखा जी! आपकी पोस्ट ने सोचने पर और आपके दिये लिंक ने हँसने पर मजबूर कर दिया. महानगरों में जहाँ यातायात के साधन सिर्फ पब्लिक ट्रांसपोर्ट ही हैं,तो वहाँ इन सबसे बड़ी परेशानी होती हैं… खाने, पसीने के अलावा बदबूदार मोज़े… अब ये समस्या सिर्फ एशियन/भारतीयों पर ही लागू होती है या अन्य देश के लोगों के साथ भी..
जो भी हो ये तो सच है कि जा तन लागे सो तन जाने!!
शिखा जी
बस यही कहूंगा की गरीब की जोरु सबकी भाभी। क्या भारतीयों से आने वाली गन्ध मांसाहार की गन्ध से भी बुरी है जिसका लोग बडे चाव से सेवन करते हैं?
भारतीय मेहनत मशक्कत करने वाले लोग हैं …फिर पसीना तो आएगा ही …और पसीने की सुगंध भी ..अब लोग इसे दुर्गन्ध कहें तो क्या किया जाए ?
खाना कैसा कैसा खाते हैं यह भी जग जाहिर है …और वैसे भी प्याज़ नमक तो गरीब का खाना ही है ..वो बात अलग है कि आज कल प्याज़ खाने वाले अमीर माने जाते हैं …और खुद को अमीर साबित करने के लिए प्याज़ की सुगंध सबको पता चले यह भी चाहते हैं …तो भला चियुन्गम क्यों खाएं भला ?
खैर यह तो थी मजाक की बात ..पर जिस बात का ज़िक्र किया है उसका ध्यान विदेशों में ही नहीं बल्कि हर जगह रखना चाहिए …खाना बनाने वालों के हाथों से सच ही मिर्च मसालों की खुशबू आती है ..भारतीय क्यों कि आदी होते हैं उनको पता नहीं चलता …दूसरों के लिए शायद असहनीय ही हो …
वैसे भारतीय ज्यादा स्वच्छ रहते हैं …
सर्वप्रथम तो यह कहना की भारतीय बदबूदार होते है समस्त भारतियों का अपमान करना है और भारतीय अगर बदबूदार होते भी हैं तो इसमें उनका दोष नहीं ये तो कमबख्त अंग्रेजों की बदबू है जिन्होंने 2०० वर्षों तक हमारे देश में रहकर हमारे देश को बदबूदार कर दिया और अब उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज़ पर हम भारतियों को बदबूदार कह रहे हैं |
हमारी आजादी वहीँ ख़त्म होती है जहान से दूसरे की आज़ादी शुरू होती है… फिर होती है एक साझी आज़ादी ..जहान हमें दूसरे की आज़ादी का भी ख्याल करना पड़ता है…उम्मीद है कुछ लोग इसे पढ़ के सुधरेंगे..
hame to badboo aatee nahee so kya jaane lekin in angrejo ko adjust karnaa nahee aataa kya
ओह्ह..तो ये समस्या भी होती है…
अब इसमें कितनी सावधानी बरतें, अच्छा है मैं भारत में हूँ…
यहाँ लोगों को अगर बदबू लगती है तो लगे मेरी बला से..:D
बात सुगंध/दुर्गंध तक नहीं है, कहां का रहने वाला है,यह मुख्य हो गया हो तो गलत है। अच्छी चर्चा है। प्रत्येक व्यक्ति को देश काल परिस्थिति के मुताबिक ढल जाना चाहिये।
यहां के हाल भी कुछ अधिक बेहतर नहीं..
ये गोरे महीनों नही नहाते, और फ़्रेशनर से ही फ़्रेश होकर काम चला लेते हैं। इनमें मरे मांस की बदबु आती है।
ये तो वो वाली बात हो गयी कि "भैंस अपना रंग तो नहीं देखती और छाते से चमकती है।"
सभी जगहों के खान-पान में फ़र्क होता है यह तो सब जानते हैं, लेकिन भारतीयों के नीचा दिखाने एवं प्रताड़ित करने के लिए यह सब हथकंडे अपनाए जाते हैं।
hahahahha
bhartiya thode aalasi to hote hain
bt tez dimag hote hain aur hamari inahi masaledar vyanjano se hamra dimag tej banata hain
nice post
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शिखाजी बाहर तो कभी गया नहीं सो वहां की बात का पाता नहीं लेकिन जब बाहर वाले हमारे यहाँ आते हैं तो उनसे थोडा संपर्क रहा हैऔर वह भी तमाम मुल्को से… शिष्टाचार के मामले में पूरब के देश वाले पश्चिम से कहीं बेहतर हैं… और जहाँ तक गंध और दुर्गन्ध की बात है तो वह जब देश के भीतर ही है तो बाहर का क्या कहना… बिहार में गोबर की गंध तो तटीय प्रदेशों में सुखी मछली की गंध… दक्षिण में मसालों के गंध तो पंजाब में साग के गंध… यह तो व्याप्त है.. रसियन के शारीर से अलग तरह के बदबू आती है… हाँ पब्लिक प्लेस पर सभी की जिम्मेदारी है.. वैसे डियो की अर्तिफ़िसिअल गंध से बेहतर है प्राकृतिक दुर्गन्ध… आपका शीर्षक देश को अपमानित करने सा है…
@ अरुण चन्द्र रॉय ! मेरे शीर्षक के आगे ? भी लगा है जो एक विचार विमर्श को आमंत्रित करता है.देश मेरा भी है और उसे अपमानित करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं.
बाकी विचार यहाँ हर तरह के हैं…
पर्सनल हाईजीन और प्रेजेन्टेबल रहना तो कर्तव्य है समाज में हर रहने वाले का.
हाँ, लेकिन इस आभार पर किया गया व्यवहार जो आपने बताया, निस्चित ही निन्दनीय है.
वैसे देखा जाए तो बदबू और एशियन मूल के लोगों को आपस में जोड़ना एक हद तक जायज़ नहीं है. रही बात उस शिक्षिका की तो सच ये है कि भारतीय खाने से उठने वाली तेल और मसालों की गंध अगर कपड़ों में से आने लगे तो हम लोग खुद ही बर्दाश्त नहीं कर सकते. कई बार मैंने खुद ही महसूस किया है कि जो कपड़े पहन कर खाना बनाता हूँ अगर उनपर अप्रोन ना पहिना जाए तो खाना बन जाने के बाद उन कपड़ों से उठने वाली गंध खुद को ही परेशान कर देती है.
ऐसा नहीं कि सिर्फ भारतीयों के साथ या एशिया से आये लोगों के साथ ही ऐसा है, जहाँ पहले मैं रहता था उसके कॉमन किचेन में एक अश्वेत दक्षिण अफ्रीकी लड़का रहता था, जिसके खाना(खासकर बीफ, चिकेन या फिश) बनाने के वक़्त सारे हाउसमेट्स भाग खड़े होते थे. वो तो गनीमत थी कि वो हफ्ते में एक बार बना कर वही सारे सप्ताह भर खाता था. कहने का मतलब है उनके मसालों से और भी अलग कड़वी गंध आती है जो कि हमारे लिए दुर्गन्ध है. काफी कुछ ऐसा ही एक अन्य आयरिश लड़की के खाने के साथ भी था, जोकि ज्यादातर खाने को उबाल कर, रोस्ट करके या फिर हलके तेल में फ्राय करती थी. उसके रोज के असहनीय गंध वाले खाने से तो सभी को इतनी परेशानी हुई कि अंततः उसको वो घर ही खाली करना पड़ा.
अब रही शरीर से या मुँह से दुर्गन्ध आने की बात तो यहाँ कई ऐसे अँगरेज़ हैं जिनके मुँह से आने वाली बदबू को कोई भी बर्दाश्त नहीं कर पाता, कोई ५ मिनट पास में खड़े होकर बात करले तो बिन क्लोरोफोर्म के ही स्वप्नलोक में चला जाए. हमारे ही स्कूल में एक प्रोफ़ेसर है जो अगर लिफ्ट में कहीं ऊपर-नीचे चला गया तो समझिये कि अगले ३० मिनट तक किसी और का उस लिफ्ट को इस्तेमाल करना नरक में प्रवेश करने जैसा होता है, कयास लगाया जाता है कि उसने सालों से ब्रश नहीं किया. 🙂
वैसे इस बात को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि मेलेनिन वर्णक और फेरोमोंस की गंध में एक सम्बन्ध होता है, जिसकी त्वचा जितनी गहरे रंग की होगी उसके पसीने में उतनी ही दुर्गन्ध होगी. त्वचा पर पलने वाले बदबूदार जीवाणु भी अलग-अलग हो सकते हैं. तभी ना अगर कोई श्वेत व्यक्ति ३ दिन ना नहाये तो इतनी बदबू नहीं आती जितनी एक एशियन के दो दिन ना नहाने पर या एक अफ्रीकन मूल के अश्वेत व्यक्ति के एक ही दिन ना नहाने पर आने लगती है. बाकी सब रहन-सहन और काम करने पर निर्भर करता है. संभव है मेरा कहाँ अजीब लग रहा हो. लेकिन यह जीव-विज्ञान कहता है, मैं नहीं.
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देश विदेश की बात नहीं है , अपनी स्वतत्रता के साथ दूसरों की सुविधा का ख्याल भी रखना चाहिए …
भारत में स्थितियां अलग है ..विभिन्न वातावरण में काम करने वाले श्रमिक कहाँ से खर्च उठाएंगे डीओ या परफ्यूम का ..
हमारे बुजुर्ग प्याज लहसुन की गंध बर्दाश्त नहीं कर पाते ..और हमें मांस मछली की गंध से परहेज है ..मगर जो लोग इनका उपयोग करते हैं , हमारे लिए तो छोड़ने से रहे …विदेशी मांसाहारी ही होते हैं , फिर भी उन्हें भारतीय खाने की गंध बदबू जैसे लगती है ??
एक बड़ी सामयिक और सामाजिक समस्या पर वार्ता शुरू करने के लिए धन्यवाद!
मानुस गंध वाकई एक बड़ी समस्या है| जहां घर, दफ्तर, परिवहन सभी कुछ वातानुकूलित हो वहां इसे झेलना बहुत कठिन हो जाता है| हम भारतीय लिहाज़ के मारे किसी दूसरे को कुछ कह नहीं पाते हैं जबकि पश्चिमी संस्कृति में ऐसी झिझक के लिए कोइ स्थान नहीं है| फिर भी कई गोरों का व्यवहार चमड़ी का रंग देखकर बदल जाता है इसमें कोई शक नहीं है|
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खान पान के कारण चाहे जैसी भी smell आये , वो हमारे वश में नहीं है । लेकिन किसी का अपमान करते हुए उस पर इत्र छिड़कना निसंदेह आपतिजनक है और Europeans के arrogance कों परिलक्षित करता है । उस टीचर कों जिसने निलंबित किया वो बधाई का पात्र है ।
जब Big brothers में शिल्पा शेट्टी के साथ रंग भेद कर दिया , तो भी जेड गुडी ने अपने अभद्र संस्कारों का परिचय दिया था ।
ये अंग्रेज जब भारत में रहते थे तो भारतीयों कों गुलाम करके कैसे हमारे साथ पेश आते थे , ये तो हम सभी कों पता है ।
जहाँ तक बदबू का सवाल है , इन लोगों कों तो सफाई का कोई कांसेप्ट ही नहीं है । कागज़ से पोंछकर काम चलाते हैं । इन लोगों की तो निकटता से भी घिन आती है। मैं तो विदेशों में रहकर इनकी पसंद नापसंद का सिर्फ इस लिए ख़याल रखती हूँ , क्यूंकि पता नहीं कब ये arrogant और मगरूर प्रजाति , मेरे लिए कोई मुसीबत न खडी कर दे ।
जब हम भारत में इनके गुलाम थे तो विदेश में रहकर इनकी थोड़ी तो गुलामी करनी ही पड़ेगी ।
इनके सिर्फ तन ही उजले हैं , मन बहुत ही काले ।
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आपके आलेख में पर्सनल हाइजीन की बात आयी। कोई मुझे यह बताए कि टायलेट पेपर से कैसे हायजीन ठीक रहेगी? क्या यह गन्दगी नहीं है?
अब पता नहीं कि मास्टरनी का व्यवहार नस्लभेदी था या सचमुच ही कोई गंध आ रही थी. पर एक बार मैं बैंककॉक में था. मुझे वहां भी चारों तरफ उबलते कीड़े—मकौड़ों की गंध आती थी … मुझे पक्का पता है कि मैं न तो नस्लभेदी हूं न ही वह गंध नस्लभेद के कारण थी…
गोरे ही नहीं हम भी अक्सर इन्ही कारणों से परेशान होते है ….
discussion padh kar maja aa gaya…:)
anyway ham to daily mooli khayenge, chahe jo ho jaye..:D
बहुत सही कहा आपने, हमारे मसालों और प्याज लहसुन की तेज गंध किसी अन्य को अरूचिकर लगती है और यहां भी इससे रोज रूबरू होना ही पडता है. तो यह शिष्टाचार तो खाने वाले को पालना चाहिये. पर गोरे लोग शायद ये नही भूल पाते कि उन्होने कालों पर राज किया है. शायद इसी के झौंके उनको आते रहते हैं. शायद उस टीचर के मन में भी यही दबी छुपी भावना बैठी है.
रामराम
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उन अध्यापिका ने क्या किया और उनके साथ जो हुआ उसके बारे में तो कुछ नही कहूंगा।
लेकिन हमें हमारी दुर्गंध की वजह से दूसरों को होने वाली परेशानी का ध्यान तो रखना ही चाहिये।
पूना में एक जगह मुझे केवल इस वजह से एन्ट्री नहीं मिली थी क्योंकि मैनें आंवला का तेल सिर में लगाया हुआ था और मुझे दोबारा नहाकर आना पडा।
ड्रिंक करने के बाद भी मैं दूसरों से बातें करने में इसी वजह से परहेज करता हूँ और दूरी बनाकर रखता हूँ।
प्रणाम
shikhaji aapki najar kamal ki hai…kisi bhi chij ko badi khubsoorat andaj me prastut karti hai aap………
शीर्षक पढकर जो पहली प्रतिक्रिया मन में आई पहले वो …..
बाक़ी पोस्ट पढकर जो आया वो बाद में …!
अगर भारतीय बदबूदार होते हैं
तो इसलिए कि ‘वो’
बदबू फैलाते हैं
और वह बदबू हम समाहित कर लेते हैं
अपने में
और हो जाते हैं बदबूदार!
अब देखिए जी … आपने अच्छा लिखा है।
बहुत अच्छा लिखा है।
पर … इस विषय पर अगर दिल खोल कर विचार रख दिया तो … सब मुझे जाहिल और नकारा साबित कर देंगे।
पर ‘वो’ जो दिन भर दारू और सिग्रेट में डूबे रहते हैं, उफ़्फ़ कितनी घिनौनी गंध आती है जब भी वो बगल में आ जाते हैं।
…
दूसरी बात कि …
एक संस्मरण में लिखा भी था कि स्नो-पाउडर लगाकर चले थे इम्प्रेस करने तो लोगों ने कार्टून घोषित कर दिया। ऐसे ही हमारे यहां इत्र-सेंट लगया नहीं कि लोग कहेंगे … छछून्दर के माथा में चमेली का तेल!
…
इस लिए तो हम जो हैं … वो हम हैं।
यही हमारी पहचान है।
तभी तो हमारे यहां ‘एक’ दूसरे से कहेगा/गी
“अहा! तुम्हारे बदन से जो ये लहसून जैसी गंध आती है, वल्लाह! … उसने दिवाना बना दिया है!!”
हाँ कुछ लोग यहाँ पर्सनल हाईजिन और उसके सामाजिक दुष्प्रभावों के प्रति बेखयाल से रहते हैं -मगर वहीं कुछ लोग सुगन्धित तेल इत्र आतडी भी बहुत लगाते हैं जो बर्दाश्त नहीं होता -आशियाँ ही नहीं श्याद यह समस्या कमोबेस दुनिया में हर जगह है -ब्रिटिश उन राजाओं का बड़ा उपहास उड़ाते थे जो तीव्र गंध वाले तेल फुलेल और इत्र लगाए बैठे रहते थे और ब्रितानियों से मिलने को आकुल रहते थे मगर ब्रितानी उतने ही उनसे दूर भागते थे …
जब आपका लेख पढ़ना शुरू किया था तो मन में कुछ ख्याल/जवाब स्वत ही बन रहे थे.. पर जब आगे बढ़ा तो देखा कि आपने भी वही बात कही है जो मुझे ठीक लगी..
किसी भी जगह के कस्टम्स को फोलो करते हुए काम करने में कोई बुराई नहीं.. हाईजीन रहना कुछ गलत नहीं है और गलत बात के लिए टोकने में भी कोई बुरे नहीं..
टीचर का व्यवहार उनका व्यक्तिगत था.. इसलिए सभी को दोषी मानना भी ठीक नहीं..
आपके आलेखों में सामजिक मुद्दे और वो भी ऐसे जिन्हें देखने के लिए बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है, मुखर होते है.. हिंदी ब्लोगिंग में जिन्हें मैंने पढ़ना है उसमे रश्मि रविज़ा जी की दृष्टि भी कुछ ऐसी ही है..
सभी लोगों को दूसरों की सुविधाओं का ख्याल रखना चाहिए।
———
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
इसमें एशियन और नान एशियन वाली कोई बात नहीं…
मुझे याद है,एक बार हम सिलीगुड़ी से गैन्टक बस से जा रहे थे..हमारे आगे वाले सीट में कुछ विदेशी पर्यटक बैठे थे..उनके शरीर से ऐसी दुर्गन्ध आ रही थी कि दिमाग झनझना जा रहा था…गोरे चिट्टे चमड़ी पर तहों मैल बैठा हुआ था..एक जगह बस रुकी और जो मैंने रहत की सांस ली तो देखा बस के नीचे ठीक मेरी खिड़की के सामने दोनों तीनो लोगों ने ब्रश पेस्ट से दांत मांजे और फिर बिना थूके सारा कुछ पानी के साथ गटक गए…क्या कहूँ मैं अपनी कै(उल्टी) नहीं रोक पायी..
उस समय मेरे ध्यान में भी यही आया कि ये फिरंगी कितने गंदे होते हैं…
बहुत सही कहा आपने, लोग सुन्दर सुन्दर मंहगे कपडे तो पहन लेते हैं,पर अपनी स्वच्छता के प्रति उतने सजग नहीं होते..एक बार फ्लाईट में आ रही थी तो बगल वाले सज्जन को देखा,मनोयोग से नाक खोद खोदकर नीचे गिराए जा रहे थे…मन घिना जाता है यह सब देखकर…पर क्या किया जाय…
यह तो बेसिक हाइजीन और एटीकेट की बात है,लोगों को दूसरों की असुविधा का ख्याल जरूर रखना चाहिये।बिल्कुल सच लिखा है आपने ।
मुद्दा दिलचस्प है और शुद्ध रूप से रंगभेद का ही एक नमूना सामने आया है| ऐसे नाक-भौं सिकोडू अंग्रेजों को जब एक पूरे वर्ग से ही चिढ है तो वे समय समय पर ऐसी हरकत करते रहते हैं मगर हम सबको दोष नहीं दे सकते क्योंकि वो शिक्षिका सस्पेंड भी तो कर दी गयी है| यह सच तो है कि कुछ लोग सार्वजनिक जगहों पर दुर्गन्ध फैलाते रहते हैं और कुछ लोग सामंतवादी आचरण करते हुए एयर फ्रेशनर छिड़कने से बाज नहीं आते|
Hi..
Sabki tarah shershak padh kar maine bhi virodh darj karne ki sochi thi par aapke aalekh aur es par likhi tippniyon ne meri soch badal di..
Ashiyan bhale chewing gum aur deo se apni durgandh na chhipate hon par personal hiegine main uropeans se lakh darze achhe hote hain.. Jara sochiye Bharat main aane wale uropeans ek chhota sa bag lekar tan par pahne hue kapdon ke sath maheno yahan vahan ghumte rahte hain..to wo log kaise safai rakh paate honge.. Fir to majboori hi hai na deo aur mouth freshner ki..badbu dabane ke liye..
Maine en yayaver videshiyon se es durgandh ka anubhav kai baar kiya hai.. Aur baaki kai logon ko bhi yah anubhav hua hoga.. Tab hum to nahi un par deo chhidakne lagte..
Sach to ye hai ki ye tan ke gore man ke kaale hain aur akaran bahanon se apne desh main rahne wale ashians ko pareshan karne main apni hethi samajhte hai..
Vicharottejak aalekh..
Hum kuen ke mendhak bane hi theek hain.., Dollar, pound aur uro kanane ke liye kin mansik pratadnaon se guzarna padta hai, yah es lekh se jahir hai..
Film 'naam' ka ek gana yaad aa gaya hai.. Chithi aayi hai..vatan se chithi aayi hai.. Sunen aur amal karen..yahan koi nahi puchega,
"kya bhartiya badboodar hote hain'..?!!
Deepak..
खानपान व रहन सहन का सम्मान होना चाहिये।
लोगों को दूसरों की असुविधा का ख्याल जरूर रखना चाहिये। बिल्कुल सच लिखा है आपने ।
कई दिन से लग रहा था कुछ छूट रहा है पढने से मगर याद नही आ रहा था। याद आया तो पता चला कि मन मे एक सपंदन की कमी थी तभी मन बुझा बुझा था। इस पर एक बात अभी अभी की बताऊँ कि मेरे बच्चे आये हुये थे रात को खाना बनाने खाने के बाद सोने लगे तो मैने नातिन से कहा चलो तुम्हें कहानी सुनाती हूँ। वो पास आयी तो बोली नही आपके कपडों से समेल आ रही है। मुझे याद आया कि थकावट की वजह से मैने रात को कपडे नही बदले थे। निश्चित ही जब हम रसूई मे भी काम करें तो वो गब्ध हमारे कपडों मे रह जाती है। कई लोग लह्सुन प्याज नही खाते तो उन्हें लहसुन प्याज खाने वालों से बदबू आती है। निश्चित ही वहाँ के लोग स्पाईसी कम खाते हैं जिससे उन्हें ऐसी बदबू आती है। आज कल तो बच्चे भी ऐसे शिष्टाचार की आपेक्षा करते हैं फिर वो तो बडे हैं। अच्छी पोस्ट के लिये बधाई।
एक बार ट्रेन में मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ था…ऐ.सी डब्बे में किसी भी खाने की चीज़ की गंध बड़े अच्छे से फैलती है…एक परिवार था, वे लोग पता नहीं कौन सी चीज़ और कैसी चटनी वैगरह लाये थे…डिब्बे में रुकना असहनीय हो गया था…
दूसरे डिब्बे में मेरे दो दोस्त थे, मैं तो कुछ देर के लिए वहीँ चला गया था…तब कुछ आराम महसूस हुआ…
बाकी आपने तो बात कह दी, और लोगों ने जवाब बी दिया..मेरी प्रतिक्रिया का एक्स्पेक्टेस्न तो नहीं है न 😉
वैसे ये पोस्ट उसी दिन मैंने पढ़ा था…लेकिन अभी तक मुझे ये समझ नहीं आ रहा है की उस दिन मैंने कमेन्ट क्यों नहीं किया..
sare jahan se accha hindositan hamara……….in angrejon ki aisi ki taisi………..
BADHAI Ho………Badhiya lekh.
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आपकी बात से सहमत हूँ … अधिकाँश भारतीय … कम से कम जिनको मैं जानता हूँ … इन सब बातों से लापरवाह ही रहते हैं … पर अब समय बदल रहा है … और ये बदलाव भी जल्दी ही नज़र आने लगा है …
jo asian america me gaye hai, we koyi sadharan byakti to nahi hi honge ?..achchhe padhe – likhe log honge, phir unhe hi samajhane de ….ki america me kaise rahana hai…?..ham to bharat me hi khush hai..
प्रवीण पाण्डेय-की टिपणी का समर्थन करते हुए
INDIA & INDIAN, i proud 2 be
वैसे शिखाजी एक उपाय है इस तकलीफ के छुटकारे का — और वह है शुद्ध जैन शाह्काहारी भोजन का सेवन … उसमे ना तो जमीकंद की मात्रा होती है ना ही मसालेदार
दुर्गन्ध….. भोजन कोई भी ले ले भारतीय भोजन , हो या अमेरिकन या लन्दननीया भोजन उसके लिए दुर्गन्ध. शब्द प्रयुक्त करना
कारगर नही है ….. अमेरिकन या लन्दननीया भोजन अगर ताजा बना है तो प्रयुक्त मसालों की बास तो आएगी .
sab mansikta par nirbhar karta he
sunder
aapka aabhar
सब लोगों की मानसिकता है ..क्या किया जा सकता है ..शीर्षक काफी कुछ वयां कर देता है.
ब्लॉग लेखन को एक बर्ष पूर्ण, धन्यवाद देता हूँ समस्त ब्लोगर्स साथियों को ……>>> संजय कुमार
आप के लेख की एक-एक बात से सहमत.हमे ये तो ध्यान रखना ही चाहिए की हमारी आदत उनकी परेशानी का सबब ना बने.
आपके पोस्ट के माध्यम से पहली बार ज्ञात हुआ कि योरोपियन देशों में इस प्रकार की समस्या आती है। वैसे एक बार मुझे भी इस प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा था। पहली बार कोलकाता गया था। हावड़ा स्टेशन पर यात्री निवास में ठहरा हुआ था। मछली की गंध से मेरी भूख हवा हो गयी थी, जबकि वहाँ के लोगों को कोई समस्या नहीं थी। आभार।
अपने घर में हम कैसे भी रहे परन्तु घर से बाहर निकलते वक़्त , शिष्टाचार वश कुछ सामान्य मापदंड का हम पालन करते हैं . उसी तरह दुसरे देश में रहने पर ,वहां के लोगों के बीच काम करने पर ,वहां के नागरिकों के प्रति कुछ तो शिष्टाचार हमारा भी बनता ही है
अभी तक तो ये सौभाग्य मिला नहीं विदेश जाने का लेकिन कभी मिला तो इस बात का ख्याल जरूर रखेंगे ..एक अच्छा ज्ञानवर्धक लेख
शिखा जी,
ये क्या कह दिया आपने? बदबूदार और भारतीय? अरे विदेशी लोगों से तो दूर से हीं बदबू का भभका आता है| मांसाहरी होते हैं जाने क्या क्या खाते हैं| किसी भी रेस्तरां में जाएँ मांस के दुर्गन्ध से सादा खाना भी मुंह में नहीं दिया जाता| हमारे भारतीयों में तो शुद्ध शाकाहारी होते कुछ जैन खाना खाते तो बदबू कहाँ से? अच्छी जानकारी मिली और ये भी सही है कि जहाँ जैसा हो वहाँ के हिसाब से आचरण करना चाहिए और सुगंध दुर्गन्ध का ख्याल रखना चाहिए| शुभकामनाएं!
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