छतीस गढ़ के दैनिक नवभारत में प्रकाशित एक आलेख.
कुछ समय से ( खासकर भारतीय परिवेश में )अपने आस पास जितनी भी महिलाओं को अपने क्षेत्र में सफल और चर्चित देख रही हूँ .सबको अकेला पाया है .किसी ने शादी नहीं की या कोई किसी हालातों की वजह से अलग रह रही हैं.
और यह सवाल पीछा ही नहीं छोड़ रहा .कि आखिर जब हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है.और ज्यादातर वह उसकी पत्नी या माँ होती है. तो क्यों एक सफल महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ नहीं होता क्यों एक लड़की अपने पिता या पति का सहयोग पा कर अपना मक़ाम नहीं बना पाती.
आखिर जब एक पुरुष गृहस्थी और अपने काम में संतुलन बना कर सफल हो सकता है तो क्यों एक महिला नहीं हो पाती?पीछे मुड़ कर भी देखती हूँ तो इंदिरा गाँधी से लेकर महाश्वेता देवी और विजल लक्ष्मी पंडित, मलिका साराभाई से लेकर अमृता प्रीतम तक.( विवाह के सन्दर्भ में ) सभी सफल चेहरे को अकेले ही पाया है. भले ही इसके कारण चाहे या अनचाहे हालात कुछ भी रहे हों हालाँकि इनमें अपवाद के तौर पर किरण बेदी सरीखे कुछ नाम लिए जा सकते हैं.फिर भी ..आखिर इसकी वजह क्या है?
मुझे याद आ रहा है ,
कभी पकिस्तान की एक मशहूर लेखिका ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि हमारे मर्दों की ताज़ी रोटी खाने की आदत हमारी औरतों की तरक्की में सबसे बड़ी बाधक है.
कमेन्ट थोडा हार्श जरुर कहा जा सकता है और बहुत से लोग इससे असहमत भी हो सकते हैं, परन्तु मैंने गौर किया तो पाया कि बात काफी हद तक शायद ठीक थी हालाँकि इसके लिए जिम्मेदार भी शायद औरत ही है. इस पर बहुत से लोगों का तर्क हो सकता है कि जी आजकल रोटी बीबियाँ बनाती ही कहाँ हैं ? सारा काम तो मेड करती है.पर यहाँ इसपर रोटी से हट कर शायद थोड़े वृहद रूप में इस कमेन्ट को देखने की जरुरत है.
क्या यह सच नहीं कि भारतीय समाज में औरत चाह कर भी घरेलू जिम्मेदारियों से उऋण नहीं हो पाती. उसकी प्राथमिकताएं हमेशा चुल्ल्हे चौके से जुडी रहती हैं.और जहाँ वो इन सबसे मुँह मोड़कर अपने काम को तवज्जो देना शुरू करती है वहीँ घरेलू संबंधों में तनाव आ जाता है. और सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टूट जाता है.
यानि विकल्प दो ही हैं ..या तो गृहस्थी में रहे और अपने कैरियर से समझौता करे , या अकेली रहे और कैरियर में सफल हो.
एक मित्र से इसी बाबत कुछ बात हुई तो उन्होंने कहा कि महिलायें हमेशा अपनी योग्यता को किसी की राय का मोहताज़ बना लेती हैं.
महिलाएं क्यों अपनी योग्यता को किसी दूसरे की राय का मोहताज बना लेती हैं? क्या वे इसलिए पैदा हुईं हैं कि हमेशा दूसरों के मानदंड पर परफेक्ट साबित हों ? क्या उनकी जिन्दगी का मकसद दूसरों को खुश करना ही होना चाहिए?
बात काफी हद तक ठीक लगी मुझे .
पर क्या इस स्थिति के लिए महिलाएं खुद जिम्मेदार नहीं ? क्या खुद में आत्मविश्वास की कमी इसका कारण नहीं ?वे शायद बचपन से ही किसी आश्रय की मोहताज हो जाती हैं. यहाँ तक कि खुद की योग्यता के मापदंड भी वे दूसरों की राय से स्थापित करती हैं. और ये शुरू से ही स्वाभाविक रूप से शुरू हो जाता है.
कुछ खाने में बनाया है तो चखायेंगी पहले ….कि देखो कैसा बना है और वह वाकई अच्छा है या नहीं वो सामने वाले के स्वाद पर निर्भर करेगा.उसकी अपनी योग्यता पर नहीं .
कुछ पहनेंगी तो पूछेंगी ..कैसा लग रहा है ??/अब वो कैसा लग रहा है ये भी सामने वाले के मूड पर निर्भर है. कभी पिंड छुड़ाने को कह दिया अच्छा है तो अच्छा मान लिया.कभी मूड खराब है उसने कह दिया हाँ ठीक है तो परेशान कि ..अच्छा नहीं लग रहा.
पर पुरुष ऐसा कभी नहीं करता.वह कभी कोई डिश बनाएगा भी तो कहेगा देखो क्या लाजबाब बनी है …आखिर बनाई किसने है.. और जैसी भी हो खिलाकर ही दम लेगा.कपडे कैसे भी पहने हों आजतक किसी को पूछते नहीं देखा कि देखो तो कैसा लग रहा हूँ.वे अपनी योग्यता किसी कि राय पर नहीं नापते .ना ही कोई काम महज किसी के मापदंड पर परफेक्ट होने के लिए या किसी को खुश करने के लिए करते हैं.
यानि ज्यादातर महिलायें दूसरे की राय से अपनी योग्यता के मापदंड निर्धारित करती हैं जो राय वक़्त और इंसान पर निर्भर करती है. अत: जरुरी नहीं सही ही हो.
कभी किसी कारण वश अगर स्थान परिवर्तन करना है तो महिलाएं यही मान कर बैठी होती हैं कि समझौता उन्हें ही अपने काम से करना होगा अगर किसी को अपना काम छोडना पड़े तो वह भी घर कि महिला ही होगी. पुरुष किसी के लिए अपने काम में समझौता करते बहुत कम देखे जाते हैं.बच्चा बीमार है तो महिला ही छुट्टी लेकर घर में रुकेगी, कहीं कोई मेहमान आ गया तो उसकी जिम्मेदारी भी महिला की ही होगी. कहीं आना है , जाना है, कैसे जाना है , कब आना है सारे फैसले दूसरों की ख़ुशी और सहूलियत को ध्यान में रख कर लिए जाते हैं. यानि कि उसकी प्राथमिकताओं में हमेशा ही घर की जिमेदारियाँ पहले होती हैं. चाहें हम उसे संस्कार कहें या बचपन से देखा माहौल और आदत वह चाह कर भी अपने काम और घर में, अपने काम को ऊपर नहीं रख पाती. और बस इसी तरह चलता रहता है.थोडा ये ..थोडा वो..
और इसी स्वभाव के चलते घर और कार्य क्षेत्र की जिम्मेदारियों के बीच में हमेशा फंसी रहती हैं.खुद नहीं फैसला ले पातीं कि आखिर उनके लिए क्या सही है.अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें यही कहा जाता है कि उनकी पहली जिम्मेदारी घर है .अपना १०० % वह अपने काम को नहीं दे पातीं और फलस्वरूप वह मक़ाम नहीं हासिल कर पातीं जिसकी कि वो हकदार होती हैं.
और इसी स्वभाव के चलते घर और कार्य क्षेत्र की जिम्मेदारियों के बीच में हमेशा फंसी रहती हैं.खुद नहीं फैसला ले पातीं कि आखिर उनके लिए क्या सही है.अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें यही कहा जाता है कि उनकी पहली जिम्मेदारी घर है .अपना १०० % वह अपने काम को नहीं दे पातीं और फलस्वरूप वह मक़ाम नहीं हासिल कर पातीं जिसकी कि वो हकदार होती हैं.
शायद इसलिए जैसे ही ये आश्रय और जिम्मेदारी ख़तम होती है उनका पूरा ध्यान अपनी योग्यता और कार्यक्षेत्र पर होता है.उसके बंधे हुए परों को फैलने के लिए पूरा स्थान मिलता है और वो उड़ चलती है.
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हालाँकि इनमें अपवाद के तौर पर किरण बेदी सरीखे कुछ नाम लिए जा सकते हैं.
ये भी अपवाद नहीं हैं इनका विवाहित जीवन सही नहीं चला
अब आलेख पर
विवाह क्यूँ जरुरी हैं और इसकी इतनी महिमा ही क्यूँ हैं की हम नौकरी को विवाह से जोड़ कर देखते हैं ?
१९६० से पहले जिन स्त्रियों ने नौकरी की उनकी नौकरी और उनका परिवार दोनों उनकी ही ज़िम्मेदारी थी . वो सब कभी फक्र से नहीं कह सकी की उन्होने नौकरी की . इस बात को छुपा कर ही रखा जाता था और वो नारीवादी कहलाती थी
१९६०-१९७० के बीच में जिन स्त्रियों ने नौकरी की उनमे स्कूल या कॉलेज की टीचर रही जो आधे दिन में घर वापस आ जाती थी और परिवार संभालती थी
१९७०-१९८० में क्लर्क बैंक , स्टेनो इत्यादि ने नौकरी की जिन सब को प्रगतिशील और चरित्र हीन कहा जाता था इनका विवाह होता ही नहीं था ये अपने परिवार के लिये कमाती थी
१९८० १९९०
इस दशक में बदलाव आना शुरू हुआ और नौकरी नहीं स्त्रियों ने कैरियर पर ध्यान दिया कैरियर यानी कम से कम १२ घंटे की नौकरी ऐसे में शादी करने वाले इस लिये कम मिले क्युकी कैरियर बनाने वाली लड़कियों की सैलिरी और योग्यता ज्यादा होती थी . इस दौरान जिनके विवाह हुए भी वो ज्यादा नहीं चले पर उत्तर दाइत्व लड़की का ही माना गया .
१९९० से अभी तक
कैरियर को प्राथमिकता देने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ रही हैं और वो शादी भी कर रही हैं क्युकी उनकी तनखा से घर खर्च में सुविधा हैं . पति काम भी करते हैं घर का क्युकी बिना उसके पत्नी की नौकरी संभव नहीं हैं हाँ बच्चे जल्दी नहीं हो रहे हैं और कहीं कहीं नहीं भी हो रहे हैं . लेकिन इस समय लडकियां कम उम्र में ही नौकरी भी कर रही हैं शादी भी और उन्होने परिवार के विषय में ज्यादा सोचना बंद कर दिया हैं
ये सच हैं की आज भी पति की नौकरी और तरक्की पत्नी के लिये उपलब्धि हैं पर पत्नी की नौकरी और तरक्की उसकी अपनी उपलब्धि हैं
समाज में स्थिति तब बदलेगी जब लड़की के माता पिता लड़की की आय पर अपना अधिकार समझेगे और लड़की और लडके में विभेद नहीं करेगे .
चलते चलते जो अविवाहित हैं लडकियां उनसे शादी शुदा महिला ज्यादा अकेली हैं और उनकी समस्या बहुत ज्यादा हैं . एक अविवाहित महिला सशक्त भी हैं और सक्षम भी अपने को संभालने में अगर अविवाहित रहने का निर्णय उसका निज का हो तो
और क्या पुरुष अपने कैरियर के लिये किसी महिला पर दीपेन्द करते हैं नहीं फिर महिला क्यूँ चाहती हैं की उनको सपोर्ट मिलनी चाहिये . सुख सुविधा अगर शादी से ही मिल जाती हो तो नौकरी का क्या करना है जी
hmm! very tough to answer!
par ek dam sahi kahi gayi hai! sthiti lagbhag aisi hi hoti hai!
viyogi hoga pahla kavi …. aur haath hota hai n viyog ka
इस के पीछे सब से बड़ा कारण खुद महिलाएयें ही हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी बचपन से शादी होने तक यही सिखाया पढ़ाया जाता है। कि औरत बनी है घर संभालने के लिए और मर्द बना है कमाई करने के लिए, यदि घर कि जिम्मेदारियाँ पूरी होगाई हों तभी किसी और विषय के बारे में सोचो……बात यही सिखाई जाती है बस रूप अलग-अलग होता है।
लेकिन जब भी इस विषय पर सोचो तो लगता है आखिर बुज़ुर्गों ने यह नियम बनाया था, उसके पीछे भी कोई न कोई महत्वपूर्ण कारण ज़रूर रहा होगा। बस अपना-अपना देखने का नज़रिया है।
mahilaon ka har nirnay kisi na kisi ki sahmati se hi hota hai .shayad unka palan poshan hi aesa hota hai.
ji aapki baat shayad bahut hi sahi hai .mahilaon ko yadi kuchh pana hai hai to bahut kuchh khona padta hai.
rachana
रचना जी की बातों से सहमत| धन्यवाद|
nice
स्त्री पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं । यह महज़ किताबी बात नहीं है ।
बहुत सी महिलाएं हैं जो शादी शुदा हैं और करियर के साथ घर गृहस्थी को संभालती हैं ।
डॉक्टर्स में ९० % ऐसी ही मिलेंगी । क्या उनसे बढ़कर भी कोई सुशिक्षित और ज्यादा काम करने वाली होती हैं ?
करियर में भी एक समय के बाद औरत को मर्द की ज़रुरत महसूस होने लगती है और कमी बहुत खलती है ।
प्राकृतिक नियम के विरुद्ध जाकर कोई पूर्णतया सुखी नहीं रह सकता ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , आभार
रचना जी ने कुछ तथ्य बताये हैं और आदरणीय डॉ टी एस दराल जी ने जो कहा है हम भी उससे सहमत है …..बाकी जाकी रही भावना जैसी , प्रभ मूरत तिन देखि तेसी ……!
vichaarniy aalekh
@डॉ दराल
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक बिलकुल नहीं हैं इस से बड़ी भ्रान्ति और क़ोई हैं ही नहीं
केवल और केवल पति पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं , जब तक आप विवाह बंधन में नहीं बंधते पूरक का प्रश्न ही नहीं उठता
विवाह का महिमा मंडन करने के लिये ये पूरक शब्द का इतना महत्व हैं
पिता और बेटी भी स्त्री – पुरुष हैं क्या वो पूरक हैं
i recommend that dr daral should read this post http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/04/blog-post_07.html
written by a lady blogger who is very senior in age
दूसरी बात प्रकृति के नियम व्यक्ति से व्यक्ति के लिये अलग होते हैं
ये भी निहायत गलत बात हैं की औरत को मर्द की ज़रुरत महसूस होने लगती है और कमी बहुत खलती है ।ये सब पर लागू नहीं होता पर बहुत से लोग इस मानसिकता के तहत ही अविवाहित स्त्रियों पर ऊँगली उठाते हैं ।
physical needs differ from person to person and one can always condition one self according to the need and desire
and its man who have more problems being single then woman and in indian society they have more options because our value system is tilted towards man
डॉ पत्नी और डॉ पति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं इस लिये विवाहित जीवन बहुधा सुखद होता हैं पर बहुत बार जितनी समय एक डॉ पति अपने करियर के लिये लगाता डॉ पत्नी नहीं लगाती हैं ऐसा भी देखने में आया हैं
और इस सब में ये कभी ना भूले की डॉ लड़की के विवाह में माता पिता को दहेज़ देना पड़ता हैं आज भी जबकि डॉ लडके के माता पिता मुह खोल कर बेटे की पढाई का हवाला देते हैं
कोई मानक निर्धारित करना अत्यन्त दुरूह…..
भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न परिणाम…
@ बहुत बार जितनी समय एक डॉ पति अपने करियर के लिये लगाता डॉ पत्नी नहीं लगाती हैं ऐसा भी देखने में आया हैं
और इस सब में ये कभी ना भूले की डॉ लड़की के विवाह में माता पिता को दहेज़ देना पड़ता हैं आज भी जबकि डॉ लडके के माता पिता मुह खोल कर बेटे की पढाई का हवाला देते हैं"
सहमत…आखिर लड़कियों के लिए डॉ या टीचर जैसे ही प्रोफेशन क्यों बेहतर समझे जाते हैं? क्योंकि शायद इन्हें घरेलु जिम्मेदारियों के साथ निभाना ज्यादा आसान समझा जाता है.जबकि लडको के लिए करियर चुने जाते समय यह सब नहीं सोचा जाता.
ये सही है कि वक्त बदला है अब लड़कियों को पढाया जाता है और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने दिया जाता है.फिर भी इन सबके पीछे समाज की मानसिकता रहती है कि अच्छा पढेगी लिखेगी नौकरी करेगी तो शादी में आसानी रहेगी और लड़का अच्छा मिलेगा.जबकि लड़के को पढाते वक्त उसके केरीयर को ही ध्यान में रखा जाता है.
@डॉ दराल पति पत्नी एक दूसरे के पूरक हैं".सहमत..होने भी चाहिए
@करियर में भी एक समय के बाद औरत को मर्द की ज़रुरत महसूस होने लगती है और कमी बहुत खलती है "
तो क्या मर्द बिना औरत के रह सकता है?उसे भी करियर के बाद भी औरत की कमी खलती है.
एक निश्चित निर्णय देना असंभव है। बहुत कुछ पति पत्नी दोनों की समझबूझ पर भी निर्भर है। बहुत से ऐसे परिवार हैं जहां दोनों अपने अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए, ग्रहस्थी की गाड़ी भी मिलजुल कर चला रहे हैं। आज पुरुष की सोच भी बहुत बदल चुकी है, वह केवल गरम रोटी खाने तक सीमित नहीं है।
बहुत सारगर्भित आलेख। आभार
विवाह औरत को मंजिल पाने के रास्ते में बाधक तभी कहा जा सकता है जब कि पारिवारिक सहयोग न मिले. हाँ औरत को संघर्ष तब भी करना पड़ता है क्योंकि वह करियर के लिए परिवार की उपेक्षा नहीं कर पाती फिर भी मंजिल मिल . ही जाती है. एकाकी जीवन चाहे पुरुष का हो या फिर स्त्री का उनको सफल जरूर बना सकता है लेकिन उस सफलता का साझीदार भी तो होना चाहिए. हमने उनकी सफलता देखी लेकिन एकाकीपन के दंश को नहीं. संतुलन हर जगह जरूरी है.
विवाह के बाद स्त्री चाहे जितनी प्रखर हो उसकी पहली जिम्मेदारी हो जाती हैं गृहस्थी का सुचारु प्रबंध ,और सबसे बढ़ कर बच्चों का भविष्य (अपने से अधिक महत्वपूर्ण ) अगर बच्चे ही योग्य न बने तो सारा किया-धरा निरर्थक लगने लगता है.पति से कब कितनी सहायता मिलेगी इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं.समझौता विवाहित महिला को ही करना होता है.
सहमत हूँ…
मेरे विचार से विवाह का तरक्की में बाधक ना होना सिर्फ़ एक special case है जो तभी सम्भव है जब महिला स्वंय इस बारे में aware हो। और ज़हिर है… बहुत मेहनत लगती है लीक से हटकर कुछ करने में। क्योंकि हमारे समाज में “normally” लड़कों को बिन मांगे ही और लड़कियों ना सिर्फ़ मांगने पर ही… बल्कि बहुत लड़ने पर ही अपने अधिकार मिलते हैं। अगर लड़की खुद ये सब ना समझे और इतनी जुझारु ना हो तो लगता है जैसे presently सारा set up तो आपकी ही पोस्ट को सही साबित करने पर तुला है।
और मेरे विचार से लड़ाई इस बात की नहीं कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना रह सकते हैं या नहीं… दोनों साथ तभी रहें जब एक दूसरे को एकदम बराबर सम्मान और अधिकार दे सकें… बिना किसी लाग लपेट के… एकदम बराबर। सिर्फ़ साथ रहने की रस्म निभाना, कभी समाज़, परिवार की खातिर तो कभी अपनी ही 'ज़रुरतों' पर अपनी महत्वकांक्षा की बलि चढ़ाना… गलत है…
कई बार स्त्रियाँ खुद बस इस comfort zone मे रहना prefer करती हैं… that's sad. बाकि सबको तो चाहे जितना दोष दे लिजिये… ofcourse वो तो दोषी हैं ही… परन्तु अपने ऊपर जो अन्याय होने देने का जो पाप आप करतीं हैं… वही सबसे बुरी बात है… 🙁
एक से भले दो, बशर्ते एक सा सोचें।
प्रश्न मुश्किल है| मगर कोई एक उत्तर नहीं हैं| यह परिस्थितियों पर निएभर करता है | अधिकतर पुरुष सामंजस्य बिठा लेते है | सार्थक आलेख……..
रचना जी , शिखा जी –यहाँ स्त्री पुरुष से तात्पर्य पति पत्नी से ही था ।
बेशक पुरुष भी बिना पत्नी उतना ही अधूरा है जितनी स्त्री बिना पति के ।
हालाँकि पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों ने अपने लिए सभी साधन जुटा लिए हैं ।
स्त्री पुरुष का पति पत्नी होना न सिर्फ परिवार के लिए ज़रूरी है बल्कि पति पत्नी को एक दुसरे की ज़रुरत बुढ़ापे में सबसे ज्यादा रहती है जब जीवन के सब उपवन मुर्झा जाते हैं और सब अपने साथ छोड़ जाते हैं ।
कृपया इसे किसी व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में न पढ़ें ।
विवाह वाधक नहीं होता परिस्थितियों को गाबू करके सफलता प्राप्त की जा सकती है। बस आत्मविश्वास होना चाहिए
जीवन में साथ की सभी को ज़रुरत होती है …आगे बढ़ने का अर्थ पैसा कमाना ही तो नहीं ..स्त्री पर बच्चों की देख भाल का ज़िम्मा ज्यादा है क्योंकि पुरुष की बजाये वो अपने बच्चों से ज्यादा जुडी है …बिना त्याग के परिवार नहीं चलता ….पुरुष भी कई बार अपने परिवार के लिए त्याग करते हैं किन्तु उनका त्याग दिखता नहीं है …
अच्छा लेख है शिखा जी …..एक सोच देता हुआ …
जी हाँ, विवाह तरक्की में बाधक है। लेकिन स्त्री-पुरुष दोनों के लिए। वह तरक्की में तभी सहायक हो सकता है जब वैवाहिक संबंध का आधार समानता हो। लेकिन सामान्य रूप से ऐसा नहीं है। होता है तो अपवाद स्वरूप ही। सारा समाज भारत से अमरीका तक पुरुष प्रधान है जिस में स्त्री को बहुत कुछ भुगतना पड़ता है। पुरुष जिस सामाजिक ढांचे से आता है उस का चरित्र लेकर जीवन भर चलता है। वह चाहे तब भी उसे अपनी पत्नी के साथ समानता का व्यवहार करना सीखने में जीवन गुजर जाता है। इस के लिए समाज के ढाँचे का बदलना जरूरी है। लेकिन वह अभी भविष्य में बहुत दूर की बात है।
विचारोत्तेजक पोस्ट!! और विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ!!
अच्छा विषय चुना है … और पाठक अपने विचार भी बहुत अच्छे से दे रहे हैं …
भारतीय परिवेश में लडकियों को प्रारम्भ से ही यह सिखा दिया जाता है कि घर गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उनकी है ..बचपन में मान भी लें कि घरों में लडके और लडकियों के साथ समान व्यवहार होता है लेकिन किशोरावस्था आते आते परिवर्तन हो जाता है ..लड़कियों को अकेले घर से बाहर जाने कि या देर से घर लौटने कि आज्ञा नहीं मिलती …अब इसके पीछे उनकी सुरक्षा की भावना हो सकती है … और विवाह के बाद बहुत ही कम स्त्रियों को ऐसे मौके मिलते हैं जो अपनी योग्यता के अनुसार कैरियर को बना सकें .. माना कि स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी परिवार है और बच्चे हैं ..पर कितनी पत्नियाँ हैं जो अपने मन की कर पाती हैं …स्त्रियां अपने कम्फर्ट ज़ोन में नहीं रहतीं ..बल्कि दूसरों के कम्फर्ट को देख कर अपने मन को मार लेती हैं ..मैंने तो आस पास यही देखा है या तो स्त्रियां परिवार के हिसाब से अपने कैरियर को दांव पर लगाती हैं या फिर साथ रहते हुए भी एक अलग दुनिया बना लेती हैं तभी वो अपना कैरियर बना पाती हैं ..लेकिन तब वो पति से और अपने बच्चों से भी दूर हो जाती हैं ,एक ही घर में रहते हुए .. ..जहाँ तक पति पत्नि एक दूसरे के पूरक होने की बात है ..वो अलग विषय है ..
सच तो यह है कि विवाह स्त्रियों के कैरियर में बाधा डालता है क्यों कि स्त्री के सामने अपने कैरियर से पहले परिवार आजाता है … और भारतीय परिवेश में यह उसकी प्राथमिकता में आता है ..
विवाह ..बाधक होता है,कैरियर के लिए..इसमें कोई संदेह ही नहीं है…बचपन से जो दिल दिमाग में भरा गया होता है..उसके चलते परिवार ही पहले आता है..पर,मुझे यह गलत भी नहीं लगता..हरेक इंसान की ज़िंदगी में उसकी अपनी प्राथमिकताएं होती है .. प्राथमिकताएं चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए…लड़की का मन है तो वो काम करें….नहीं मन है तो न करे …पर ज़बरदस्ती कुछ भी थोपना ठीक नहीं है.
सब कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है….
कुछ चर्चित नामों को छोड दें तो समाज में ऐसे कई दम्पत्ति मिल जाएंगे तो एक दूसरे की मदद से और एक दूसरे की मदद कर सफल हैं।
बहरहाल, अच्छा विषय चिंतन करने के लिए।
सोच और समझ एक सी हो तो राह आसान होगी नहीं तो परिस्थितियाँ तय करती हैं स्थिति क्या और कैसी होगी….ऐसे प्रश्नों का कोई एक सर्वमान्य उत्तर दे पाना मुश्किल है…..
चाहे पाकिस्तान हो या विश्व का अन्य कोई देश!
पुरुषों की मनःस्थिति सभी जगह ऐसी ही है!
शिखा जी,विचारणीय सुन्दर और सार्थक पोस्ट है आपकी.कुछ भी हो स्त्री-पुरुष के भेद
भाव में कमी होना अति आवश्यक है.
बधाइयाँ जी, अच्छा आलेख है….
विचारणीय अच्छा आलेख है…बहुत बधाई.
बल्कि पति पत्नी को एक दुसरे की ज़रुरत बुढ़ापे में सबसे ज्यादा रहती है
my mother is 72 today and needs a constant young companion
my father had he been alive would have been 81 years
dr daral no way a old couple can manage toghether alone
the paradox is that in old age even a couple who are together are alone
if they have money then the life is simpler for them if not whether man and woman both have a hell to face
its important that woman start earning and saving for old age whether they are married or unmarried
बहुत शानदार … दिल को छू लेनी वाली पोस्ट.
बहुत सुंदर…
rachna ji , it is not only physical and financial support one looks for in old age but emotional support also . no one can support emotionally as much as husband and wife can mutually. of course if both are supportive and love each other.
have you ever seen the plight of a single mother i.e. unmarried mother.
dr daral we are not talking about single mother or unmarried mother at all
a mothers plight remains same in any case single married divorce unmarried so on so forth
emotions can never be help in physical problems at an age of 72-82 years so if are getting married for companion ship in the late years its your choice but its not the reason in many cases
in old age also the wife needs to perform all duties towards her husband who is elder to her
and we always divert the issue by saying single mother vs married mother
the issue is simple is marriage a imedepent for woman to make a successful career
yes its
शनिवार (१०-९-११) को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है …कृपया आमंत्रण स्वीकार करें ….aur apne vichar den..
rachna ji , be it men or women, besides career, both need a happy, stress free, family life . in some cases , marriage may bring more stress but in most cases reverse is true .
i do'nt deny that men should also be equally responsible to run the house , take care of kids and do household chores, if needed .
dr daral
the right to choose is most important and all should have that right
some roles have been defined by society and they are tilted which makes woman give up career
being educated is one thing
doing a job is another
and having a career is altogether a different cup of tea
most woman are still happy being just a house wife we should not critisize them
but if they crib in marriage then they are not right because they have a comfort zone
we need to learn to make are own desicions and be responsible for it and give eqaul rights to man and woman that are given by law and constition
we need to learn to make are own desicions and be responsible for it and give eqaul rights to man and woman that are given by law and constition–FULLY AGREED .
रचना जी , अब इस डिस्कशन को यहीं ख़त्म कर देते हैं .
भारत अमेरिका की तरह संयुक्त टिप्पणी देते हुए यही कहा जा सकता है –we agree that we disagree on some points .
यह सच है कि पुरूषों की सफलता में लगभग हर कदम पर महिलाओं की प्रशंसा का हाथ होता है .. और महिलाओं की सफलता में हर कदम पर पुरूषों की टीका टिप्पणियों का .. मैं नहीं समझती कि वहां कोई दुर्भावना होती है .. उनकी स्वभावगत विशेषता समझकर सकारात्मक अर्थ में लेने में ही पूरे परिवार भलाई है !!
अपवादों से निरापद कुछ भी नहीं होता . देर से आने पर आलेख पर विद्वजनो की विचारो एवं कई धारणा से परिचित होने का मौका मिला . विस्तृत बहस को प्लेटफोर्म देता सुँदर आलेख . साधुवाद .
सटीक और सार्थक आलेख्।
सार्थक व सटीक लेखन ।
विचारोत्तेजक लेख
बहुत अच्छी विवेचना…
".बच्चा बीमार है तो महिला ही छुट्टी लेकर घर में रुकेगी, कहीं कोई मेहमान आ गया तो उसकी जिम्मेदारी भी महिला की ही होगी."
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बात सुनने मैं अच्छी लगती है लेकिन व्यावहारिक नहीं है. अगेर इसी मैं यह जोड़ दूं की अगर बच्चा चाहिए तो केवल महिला ही उसी ९ महीने पेट मैं क्यों रखेगी? तो शायद अजीब सा लगे लेकिन यदि यह हमारे वश मैं होता तो सब से पहले इसी काम को बांटने को आज़ादी कहा जाता.
शिखा जी औरत या तो घर अच्छे से संभाल ले या बाहर जा के तरक्की कर ले. दोनों तो संभव नहीं, इसी लिए अकेली महिलाएं बाहरी दुनिया मैं तरक्की अधिक कर पाती हैं. यह बात कोई कम अक्ल भी समझ सकता है.
ना जाने क्यों घर मैं औलाद की परवरिश करना, घर को बेहतर तरीके से संभालना तरक्की करने की गिनती मैं नहीं आता?
औरत और मर्द मैं से जिस को जिस काम मैं महारत हासिल है, जिस काम को बेहतर तरीके से कर सकता उसी वही करते हुई अपना जीवन सुखी बनाते हुई व्यतीत करना चाहिए. यदि कोई पति अपनी पत्नी से अधिक अच्छा घर संभाल सकता हो और पत्नी बाहर जा के कमा सकती हो अपने पति से बेहतर तो कोई हर्ज नहीं हैं इसमें? शर्ट यही है कि शरीर का प्रदर्शन कर के यह कमाई ना की जा रही हो.
महिलाएं भी अपनी बेटी को रोटी पकाना सिखा देती हैं बेटे को नहीं .पता नहीं यह कौन सा राज़ है
राजनैतिक सामाजिक परिवेश की सफल महिलाओं के नाम देख कर
मैं तो घोर व्यवसायिक वातावरण में सफल महिलाओं के नाम याद कर रहा
और उनकी स्वीकार्य सामाजिक स्थिति भी!
विचारणीय सुन्दर और सार्थक पोस्ट …
स्त्रियों के सामने आज दो विकल्प,दो फ्रंट खुले हुए हैं,जबकि पुरुषों को आज भी एक ही फ्रंट पर परफोर्म करना है….
और सफलता का मापदंड केवल बाहरी (अर्थार्जन) ही बच कर रह गया है…गृहस्थी की व्यवस्था कितने अच्छे ढंग से सम्हली ,इसे सफलता न स्त्री मानती है,न पुरुष…
लाख कोई अधिकारों और समानता की बात कह ले…लेकिन गृहस्थी में कुछ उत्तरदायित्व (नन्हे बच्चों की देखभाल, घर के बुजुर्गों की देख रेख) जो कि भारी समय और मेहनत की मांग करते हैं,स्त्रियाँ ही निभा सकती हैं,पुरुष नहीं…जबकि प्रोफेशन,कम से कम हमारे देश में केवल अपने फ्रंट पर स्थापित कीर्तिमानों को ही कंसीडर करता है…
इसलिए इन हालातों में इस विषय/प्रश्न का समाधान तो नहीं दीखता…
आलेख बहुत ही विचारात्मक है!…धन्यवाद शिखा जी!
मेरे विचार से गृहस्थी की गाड़ी एक साइकल या मोटर साइकल की तरह है!..एक पहिया आगे और दूसरा पीछे होता है!..दोनों समानांतर नहीं चल सकतें!…आप की बात सही है,स्त्री को ज्यादातर पिछला पहिया बनना पड़ता है!…अन्यथा अकेले ही आगे बढ़ना पढ़ता है!
अगर पुरुष शादी के बाद भी अपनी घर और बाहर की जिम्मेदारी निभा सकता है तो स्त्रियों का ये सोचना कहा जायज है कि विवाह बाधक है पर ये जरुर है कि कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना पड्ता है सफलता भी अपना हिस्सा मांगती है….
स्त्री हो या पुरुष , अपनों के सहयोग से और अपने पुरुषार्थ से ही आगे बढ़ते हैं। जब तक एक स्त्री पर परिवार का दायित्व होता है वह अपने करियर में बहुत आगे नहीं जा पाती। जब अकेली होती है तो उसकी वही ऊर्जा उसको ऊंचे मकाम तक ले जाती है।
गहन विमर्श का विषय है यह।
आपने समस्या का विश्लेषण तो कर दिया, कोई समाधान नहीं प्रस्तुत किया इसलिए यह आलेख अधूरा लग रहा है। इस पर भी प्रकाश डालतीं तो कुछ दिशा मिलती ।
खैर इसका सबका उत्तर अपने-अपने हिसाब से होगा। हम अपनी-अपनी परिस्थितियों से समझौता कर ही लेते हैं। मेरी पत्नी हाउस वाइफ़ हैं और बहन प्रोफ़ेशनल हाउस वाइफ़। तो दोनों के घर चल ही रहे हैं और २५ वर्ष के आसपास उनके घर चलाते हुए हो गए।
लगता है अब तो फैसला हो कर रहेगा.
kuchh had tak vivah badhak hai….kyonki naukri ke sath sath ghar ki jyada jimavari aurat par hoti hai…
SHE में ही है HE
FEMALE में ही है MALE
WOMAN में ही है MAN
फिर एक दूसरे को अलग अलग देखने का सवाल क्यों…
जय हिंद…
किसी निश्चय पर पहुंचना आसान नहीं है इस विषय में … शायद समाज और विषय और बहस मांगता है …
मुझे नहीं लगता इस विषय पर बहस करने से, कुछ हासिल होने वाला है!परिवारों के संस्कार और व्यक्तियों की मनोवृत्ति समय,और परिस्थितियों के साथ धीरे-धीरे बदलती है .अब पहलेवाली स्थिति नहीं है.अब के पति अधिक उदार,और सहयोग देने लगे हैं .
बाकी तो सबका अपना समाधान अपने हिसाब से .
आपने जिस मुद्दे को उध्य है मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ आपका इस लेख का पूरा निचोड़ ये हैं की ओरत को ही सब मामले में समझोता करना पड़ता है आपकी बात बिलकुल सही है और जो हिम्मत कर लेती है वही अपने हुनर को विकसित कर सकती है |
बहुत सुन्दर लेख |
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अंशुमाला जी,
शायद आप पेप्सीको की चेयरमैन इंदिरा नूई की बात कर रही हैं…
जय हिंद…
टिप्पणियों से एक और पोस्ट निकल सकती है दीदी 🙂
ईमानदारी से देख जाये तो कुछ हद तक पारिवारिक जिम्मेदारिया महिलाओ के निजी तरक्की में रुकावट तो है ही हा यदि पति आगे बढ़ कर उसमे कुछ हाथ बटा दे तो महिलाए भी वो सब हासिल कर सकती है जो कोई पुरुष | हाल में ही मैंने भी इस विषय में आलेख पढ़ा था जिसमे बताया गया की कैसे पेप्सीको की चेयरमैन इंदिरा नुई के पति ने उनके काम के बोझ को समझते हुए अपनी नौकरी छोड़ दी और खुद का कंसल्टिंग का काम शुरू कर दिया ताकि वो उसके साथ घर और बच्चो की भी देख भाल कर सके और इंदिरा नूई अपने क्षेत्र में आगे बढ़ सके और इसका नतीजा सभी के सामने है | पर ऐसा करने वाले कितने पति भारत में मिलेंगे की पत्नी की तरक्की करने के लिए एक छोटा सा भी सहयोग कर सके | होता ये है की जब पत्नी घर में पति के कारण या सास ससुर के कारण अपने बच्चे की जरूरतों को अनदेखा करती है उसे रोता छोड़ती है तो किसी को कोई परेशानी नहीं होती है किन्तु यदि वो अपने कैरियर के लिए बच्चे के लालन पालन में जरा भी कमी आ जाये तो लोग ताने मारने से बाज नहीं आते है जबकि कई बार तो घर पर रह रही महिलाए भी बच्चो और घर पर उस तरीके से ध्यान नहीं दे पाती है | पति साथ देना तो दूर की बात वो कई बार तो लोग पत्नियों की तरक्की से कुढ़ने लगते है और उसे जनबुझ कर घर की जिम्मेदारियों में उलझाने का प्रयास करते है | पत्निया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है जैसा की आप ने कहा की ताजी रोटी वाली बात असल में पत्निया खुद को कई बार जानबूझ कर गृहस्थी के कामो में इतना उलझा लेती है सारी जिम्मेदारिया खुद पर इस तरह ओढ़ लेती है की जब वो उससे निकलना चाहती है या पति से कोई मदद चाहती है तो उन्हें नहीं मिल पाती है क्योकि ये गलत आदत वो खुद ही डालती है | उस पर से बचपन से सिखाई गई ये भावना ही बलिदान तो महिला को ही देना होगा उन पर क्या हर किसी पर हावी रहता है पति मान कर चलता है की जब भी बात समझौता करने की आयेगी तो वो काम सिर्फ और सिर्फ पत्नी को ही करना है |
खुशदीप जी
गलती की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद | अक्सर टिप्पणिया लिखने के बाद उसे ना पढ़ने की आदत भी गलत है 🙂
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"kya vivah badhak hai"
Rachna me vivah par yah kahana ki tarakki me badhak hai, theek nahi hai chunav to mahila/purush ko saman roop se prabhvit karata hai yah to nirbhar karata hai ki dhara ke sath bahana hai ya sanghras purn jeevan.
🙂
सुन्दर पोस्ट बधाई
सुन्दर पोस्ट बधाई
विचारोत्तेजक आलेख. स्थितियां बदल रही हैं. अपवाद जरूर हो सकते हैं.
विकास में किसी भी तरह विवाह तो बाधक नहीं दिखता। विकास में बाधक होती है हमारी सोच। स्त्रियों के विकास में ऐसा नहीं है कि पुरुष का हाथ नहीं होता। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के विकास में उनके पिता पं. जवाहर लाल जी का योगदान भूला नहीं जा सकता। मुहावरे और कहावतें किसी सशक्त व्यक्ति की उक्ति के बाद चल पड़ती हैं। जैसे मैथिली बाबू की पंक्तियाँ- एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी।
वैवाहिक जीवन में एक दूसरे पर जितना विश्वास हम बनाए रखते हैं, सफलता उतनी अधिक मिलती है। भारतीय इतिहास में कुछ ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं, जिससे यहाँ की मानसिकता अन्य देशों से भिन्न दिखाई देती हैं। यह एक लम्बी रचना की अपेक्षा रखती हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में यह आन्दोलन काफी नकारात्मक रूप लेता रहा है। पुरुषों की जड़वादी सोच जहाँ महिलाओं के विकास में बाधक रही है या उनके जीवन को नरक बनायी, वहीं महिलाओं की नकारात्मक सोच से भी पुरुषों के जीवन को पददलित किया है। दहेज के कारण हत्याओं में सास का भी हाथ देखा गया है।
http://hindi-kavitayein.blogspot.com/
कुछ हद तक पति अपनी पत्नी को पीछे खींचने में लगे होते है किन्तु आज तो बहुत सी जगह उल्टा है पति अपनी पत्नी को आगे बढने के लिए काफी प्रोत्साहन देते है और मदद भी करते है फिर ये उस महिला पर भी तो निर्भर करता है वो खुद कितना आगे बढ़ना चाहती है ?वो खुद अपना कितना प्रतिशत देती है अपना कैरियर बनाने के लिए |
कभी कभी ये प्रश्न भी तो उठता है गृहणी होना क्या ऊँचा नहीं बनता महिला को ?
मुश्किल है इस पर कुछ कहना ….. मगर ये हो सकता है की अकेले जितना समय अपने कैरियर के लिए निकल पायेगा वो थोडा परिवार के बीच मुश्किल है.
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पुरवईया : आपन देश के बयार
पढ़ने का वक्त मिला तो मोमोज़ कविता भी पढ़ आई…विवाह बाधक है या नहीं ..सबकी अपने अपने कारण हो सकते हैं..विवाह और नौकरी दोनों साथ चल सकते हैं अगर परिवार के सभी सदस्य एकजुट हों..एक दूसरे का सहयोग और मान रखते हों…मैने अपनी सुविधा से सालों तक नौकरी की और अब अपने ही कारणों से,अपनी इच्छा से छोड़ भी दी….
स्त्री और पुरूष एक दूसरे के सहयोगी बनकर ही जीवन की उॅचाईयो को प्राप्त कर सकते है।आपसी समझदारी से विवाह जैसे पवित्र बॅधन को निभाते हुए समय व परिस्थिति के अनुसार निणर्य करना पडता है इसमे किसी का अहम आडे नही आना चाहिये।
बीते ब्याह ही आयी हूँ, क्या करूं प्रवास पर थी। बस मैं तो अन्त में इतना ही कहना चाहती हूँ कि मैं ऐसी कितनी ही विवाहित महिलाओं को जानती हूँ जिन्होंने अपना मुकाम पाया है। क्या उसमें आपका नाम याने शिखा का नाम नहीं है? हम सब भी हैं। हा हा हाहा।
शिखाजी….
सबसे पहले आपकी प्रसंशा करना चाहूंगी कि आपका लेख वर्तमान समाज में महिलाओं की स्थिति का काफी कुछ सही चित्रण करता है, ज्यादातर हालत वैसे ही हैं जैसा कि आप ने चित्रण किया या फिर इस चर्चा में भागीदार लोगों ने बताया है….!इस लेख ने जितना महिलाओं की दशा का वर्णन किया है उससे कहीं ज्यादा उसके पाठकों का नजरिया महत्त्वपूर्ण नज़र आ रहा है…..मजेदार बात यह है कि स्त्रियाँ ही हर तरफ से दोषी हो जाती हैं…. एक अच्छा सफल कैरियर बना भी लिया और शादी न हुई तो भी वही जिम्मेदार हैं और शादीशुदा हो कर कैरियर को बनाने में पारिवारिक जिम्मेदारी न पूरी कर पायी तो भी घर की सुख-शान्ति भंग करने का क्रेडिट उन्हीं को जाता है(हालांकि कोई भी स्त्री माँ और पत्नी होने के बाद उसे जानबूझ कर नेगलेक्ट नहीं करती है ) और खुदा न खास्ता कहीं डिवोर्स हो गया कैरियर को ले कर तो भी विवाह की असफलता का सारा श्रेय स्त्री को ही जाता है….
इन सब चर्चाओं में अपवाद भी होते हैं परन्तु उनका प्रतिशत क्या है…??
इस बात पर भी गौर करना चाहिए…..!!
सारी टिप्पणियाँ कुछ सोचने को मजबूर करती हैं……!
स्त्री-पुरुष दोनों के बारे में…
भले ही रिश्ते में वो कुछ भी लगते हों..!!
कोई भी माता बहन या तो पत्नी अपनी करियर यतो नौकरी पर ज्यादा महेनत क्यों करती है ? ..केवल अपने स्वार्थ के लिए ..? केवल अपनी स्वतंत्रता के लिए ….नहीं ..हमारी संस्कृति मैं तो कभी नहीं ..वो अपने परिवार के लिए यतो अपनों के लिए …ये अपना परिवार की बात ही स्त्री को जोड़े रखती भावनाओ के साथ …और अगर औरत मैं से भी ये भावनाए ख़त्म हो जाएगी तो .. औरत चाहे कोई भी हो वो कभी भी केवल अपने स्वार्थ की बात नहीं कर शक्ति ..और उसमे इश्वर ने ही ऐसी शक्ति दे राखी है की वो अगर चाहे तो ..पूरी कायनात का सञ्चालन करते हुए भी अपने फॅमिली को भी पूरा न्याय दे शक्ति है …
शिखा जी,
आपने लेख में जो बात कही हैं उसे काट नहीं रहा हूँ.क्योंकि वो अपनी जगह सही हैं.मैंने लेख जब पढा था तब एक लंबा कमेंट करने वाला था क्योंकि मुझे अपने आस पास के पुरुषों को देखकर लगता हैं कि अब उनकी सोच में परिवर्तन आ रहा हैं.विवाहित महिलाएँ भी सफलताएँ पाती हैं जिनकी सफलता में पुरुषों का हाथ होता हैं भले ही ऐसे मामले अभी बहुत कम हैं.लेकिन ऐसे उदाहरणों को हम अपवाद मानकर भूल जाते हैं.मुझे लगता हैं इन उदाहरणों पर भी बात होनी चाहिए.बहरहाल देखें कि कैसे पुरुष वर्चस्व के सामरिक गढ को एक महिला ने ध्वस्त किया हैं.इन पर पूरे देश को नाज़ हैं.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/04/120420_thomas_vk.shtml
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