मेरे ऑफिस की खिड़की से दीखता है, बड़े पेड़ का एक छोटा सा टुकड़ा। जो छुपा लेता है उसके पीछे की सभी अदर्शनीय चीजों को. उन सभी दृश्यों को जिन्हें किसी भी नजरिये से खूबसूरत नहीं कहा जा सकता। फिर भी उन शाखाओं के पीछे से मैं झाँकने की कोशिश करती रहती हूँ. उन हरी हरी पत्तियों के पीछे भूरी -भूरी सी पुरानी ईंटें, काली जंग लगीं लोहे की सीढ़ियां और टूटे फूटे गमलों में न जाने क्या ढूंढने की कोशिश करती हूँ.
क्यों हम जो है उसे नजरअंदाज करके उसे देखना चाहते हैं ,जो छुपा है. क्यों जो सामने है उसका आनंद लेने की बजाय उसके बारे में सोचते हैं जो दिखाई भी नहीं देता। क्यों वर्तमान को अनदेखा कर इंसान भविष्य के पुर्जे निकाल कर देख लेना चाहता है.
क्यों हम जो है उसे नजरअंदाज करके उसे देखना चाहते हैं ,जो छुपा है. क्यों जो सामने है उसका आनंद लेने की बजाय उसके बारे में सोचते हैं जो दिखाई भी नहीं देता। क्यों वर्तमान को अनदेखा कर इंसान भविष्य के पुर्जे निकाल कर देख लेना चाहता है.
हम अपना अतीत याद रख पाते हैं, वर्तमान का अवलोकन कर पाते हैं, पर भविष्य को नहीं देख पाते उसके बारे में नहीं जान पाते तो आखिर इसके पीछे प्रकृति की कोई तो वजह होगी। प्रकृति ने सब कुछ इसके प्राणियों के भले के लिए ही किया है. परन्तु ये मनुष्य को मिले मष्तिष्क की जिज्ञासु प्रवृति है या अपने को ऊंचा समझने की जिद कि वह, उसे भी जान लेना चाहता है जिसकी इजाजत प्रकृति ने उसे उसके भले के लिए ही नहीं दी है. और सारी ऊर्जा और शक्ति लगा देता है प्रकृति की अवहेलना करने में, बदले में पता है असंतोष, निराशा और दुःख।
हम खुश नहीं रहते अपने वर्तमान में, उसे आनन्दायक बनाये रखने के लिए नहीं करते जतन, बल्कि परेशान रहते हैं भविष्य के लिए, जिसका कि अनुमान भी हमें नहीं होता, प्रयत्नशील रहते हैं उसे संवारने के लिए जिसपर मनुष्य का बस भी नहीं होता।
यह मनुष्य का अहम नहीं तो और क्या है? उसकी प्रकृति से होड़ नहीं तो और क्या है ?
यह मनुष्य का अहम नहीं तो और क्या है? उसकी प्रकृति से होड़ नहीं तो और क्या है ?
सच में … जो जी रहे हैं उसकी कम और आने वाले वक़्त की ज़्यादा सोचते हैं, सब कुछ जान समझकर भी निकल ही नहीं पाते इस इस द्वंद्व से …विचारणीय बात लिखी है
भविष्य के सहारे ही तो वर्तमान में जीते हैं लोग । वर्तमान तो क्षणभंगुर ही होता है न । सबसे विस्तृत अतीत होता है अतः उसका प्रभाव सबसे अधिक होता है और भविष्य तो अनंत है अपने में अनंत संभावनाएं छुपाये ,बस उसी अनंत छुपी संभावनाओं में अपना वर्तमान अतीत बनते देखता रह जाता है यह संसार और संसारी दोनों ।
उम्दा खयाल ….
सच कह है हमारी प्रवृति ही ऐसी है या तो अतीत में रहते हैं या भविष्य की सोच में और वर्तमान को जी ही नहीं पाते … जो इस आदत को बदल पाते हैं खुश रहते हैं …
विगत और आगत के बारे में सोचते हुए इंसान वर्तमान की दुर्गति कर देता है 🙂
विचारणीय लेख ।
मेरे गुरुदेव जो की कि एक सिद्धयोगी हैं ,कहते हैं योग द्वारा कुंडलिनी जागृत हो तो व्यक्ति तीनो काल देख सकता हैं ,फिर गुरुदेव का प्रश्न था क्या, तुम्हारे अंदर अपनों की मौत देखने का साहस हैं . तब से मैं तो वर्तमान पे ही जीता हूँ ,भविष्य जानने की जिज्ञासा में दुःख भी हो सकता हैं .
ठोस चिंतन का मुद्दा !
आगत अनागत की चिंता से मुक्त वर्तमान में जीना ही उचित है , आवश्यक है !
सार्थक चिंतन !
इंसानी फितरत है ये…जो सामने है उसको अनदेखा कर के अनजान के लिए लालायित रहना…इस चक्कर में जो है उसका भी सुख नहीं ले पाते…। बहुत अच्छी बात उठाई है…बधाई…।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-06-2014) को "जिन्दगी तेरी फिजूलखर्ची" (चर्चा मंच 1652) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
कौन कहता है जीना आसान है, यहाँ तो राई भी पाषाण है!
(दरअसल राई का पहाड़ तो हम खुद ही करते हैं :P)
भूत-वर्तमान-भविष्य काल की शृंखला की कड़ियाँ हैं एक दूसरी से संबद्ध -एक कड़ी पकड़ो तो आगे पीछे की साथ जुड़ी चली आती हैं .न आप दृष्टि को एक जगह बाँध सकते हैं न सिर्फ वर्तमान में सीमित रह सकते हैं एक की व्याप्ति दूसरे तक पहुँचती है.
बिलकुल सही कहा हम आज को जीना छोड़ कर कल के लिए सोंचकर वक्त बर्बाद करते रहते हैं …
अतीत ने वर्तमान को गढ़ा है और वर्तमान ही भविष्य को गढ़ रहा है…
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
Sach mein didi !! 🙁
जिज्ञासा…!! जो गुज़र गया वो अब बदला नहीं जा सकता.. जो बीत रहा है वो पल-पल गुज़रे ज़माने का हिस्सा होता जा रहा है.. तभी तो कहा है गुलज़ार साहब ने
इक बार वक़्त से/ लम्हा गिरा कहीं
वहाँ दास्ताँ मिली/ लम्हा कहीं नहीं!
ये लम्हों में जीने की ख्वाहिश से ज़्यादा आकर्षण भविष्य में दिखता है, जिसे लोग सोचते हैं कि जान लिया तो बदल लेंगे. गीता को झुठला देंगे.
लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि मैकबेथ ने भी जान लिया था सब, सच भी हो रहा था सबकुछ उसके मन मुताबिक… लेकिन जैसे उसने इससे छेड़छाड़ की.. हुआ वही जो होना था, लेकिन कितना विकृत!!
बेहतरीन प्रस्तुति
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