यूँ सामान्यत: लोग जीने के लिए खाते हैं परन्तु हम भारतीय शायद खाने के लिए ही जीते हैं. सच पूछिए तो अपने खान पान के लिए जितना आकर्षण और संकीर्णता मैंने हम भारतीयों में देखी है शायद दुनिया में किसी और देश, समुदाय में नहीं होती।
एक भारतीय, भारत से बाहर जहाँ भी जाता है, खान पान उसकी पहली प्राथमिकता भी होती है और मुख्य समस्या भी. घर में माँ से लेकर मिलने जुलने वालों तक, हर व्यक्ति उसके बाहर जाने पर उसके खाने पीने को लेकर ही सबसे ज्यादा परेशान नजर आता है. यहाँ तक कि इस समस्या को सुलझाने के लिए उसे उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सलाह तक दे दी जाती है कि “शादी कर लो तब जाओ जहाँ जाना है, वरना खाने पीने की परेशानी हो जायेगी”।
मैंने आजतक कभी किसी अंग्रेज को कहीं भी, अपने देश से बाहर जाने पर खाने पीने की इतनी चिंता करते हुए नहीं देखा। मैंने कभी नहीं देखा कि उन्हें कहीं बाहर जाकर अपने बेक्ड बीन्स और टोस्ट या पोच्ड अंडे की क्रेविंग होती हो. हाँ स्वास्थ्य को मद्देनजर रखते हुए वे इन चीजों को खोजते नजर आ सकते हैं. परन्तु कोई भारतीय किसी दुसरे देश के हवाई अड्डे पर उतरते ही कोई भारतीय भोजनालय ढूँढता नजर आता है. किसी से नई जगह की जानकारी लेते हुए उसका मुख्य प्रश्न होता है – क्या वहाँ आसपास कोई इंडियन टेक आउट है ?. दिन के किसी एक समय सम्भव है कि वह जो भी उपलब्ध हो वह खा कर काम चला ले. परन्तु दूसरा पहर होते होते उसकी अंतड़ियां रोटी के लिए कुलबुलाने लगती हैं. और वह भी घर की बनी रोटी। भारतीय भोजन जैसा स्वाद और परम्परा कहीं और नहीं. यह भी सच है कि एक बार यह मुंह को लग जाए तो लत बन जाती है. और इसके आकर्षण से विदेशी भी नहीं बच पाए इसका इतिहास गवाह है. आदि काल से ही भारतीय मसालों की सुगंध से बशीभूत हुए न जाने कितने ही विदेशी यात्रियों और व्यापारियों ने भारत के बंदरगाहों पर डेरा डाला और कुछ ने तो इसी बहाने पूरे देश पर कब्जा तक कर डाला.आज भी भारतीय भोजन की अपनी एक अलग साख है.
अब ऐसे में अपने घर वालों की आज्ञा मानकर कोई शादी करके बाहर आया हो और इत्तेफ़ाक़ से उसकी पत्नी घर में रहकर खाना बनाने को तैयार हो तो कोई समस्या नहीं। वरना और किसी दूसरे हालात में समस्या विकट हो जाया करती है. सारा दिन बाहर काम करके घर में घुसने पर बिना किसी मदद के भारतीय भोजन बनाना और फिर उसे समेटना, एक कामकाजी अकेले व्यक्ति या जोड़े के लिए एक और अभियान सा ही हुआ करता है. खासकर तब तक तो हर एक के लिए ही समस्या होती है जब तक नए परिवेश, नई जगह पर रहने, खाने, और पकाने की समुचित सुविधा न मिल जाए. ऐसे में अपने स्वदेशीय भोजन के आदी हमारे देशवासियों के लिए लंदन में कुछ डिब्बे वाले देवदूत का काम करते हैं.
लंदन में ऐसी कई छोटी- बड़ी संस्थाएं हैं, जो मुम्बई के “डब्बा वाला” की तर्ज़ पर घर का बना खाना आपके घर या ऑफिस के दरवाजे तक पहुंचा देती हैं. फर्क सिर्फ इतना होता है कि यह खाना खुद वही संस्थाएं बनवाती भी हैं , आपके घर से बना बनाया टिफ़िन लेकर नहीं पहुंचातीं।
ज्यादातर संस्थाओं की अपनी वेबसाइट्स हैं. जिनपर पूरे हफ्ते के शाकाहारी- मांसाहारी मेनू से लेकर उनकी रेट लिस्ट तक सब मौजूद है. वरना बहुत सी छोटी संस्थाएं जो कुछ इलाकों तक सीमित हैं, अपने निर्धारित इलाकों में ही यह डिब्बा बहुत ही कम दामों में आपतक पहुंचाने का काम करतीं हैं. ज्यादातर ये संस्थाएं एक घर के सदस्यों द्वारा ही चलाई जातीं हैं और इन्हीं सदस्यों द्वारा ही इन डिब्बों का वितरण भी किया जाता है. और आपको घर या ऑफिस में बैठे बैठे ही, सिर्फ एक फ़ोन कॉल पर, कम कीमत पर घर का बना, पंजाबी, गुजराती , बंगाली जैसा चाहें, खाना नसीब हो जाता है.
बेशक लंदन के ये डिब्बे वाले, मुम्बई की तरह विस्तृत क्षेत्र पर काम नहीं करते परन्तु लंदन में रहने वाले भारतीयों के लिए अवश्य ही ईश्वर के भेजे किसी दूत से कम नहीं होते। और कम से कम इनकी बदौलत उन्हें अपने पेट और जीभ की क्षुधा शांत करने के लिए तो विवाह करने की जरुरत नहीं होती।
“लन्दन डायरी” १६/११/१३
दैनिक जागरण (राष्ट्रीय) में हर दूसरे शनिवार नियमित कॉलम।
ऐसे दब्बावाले अब करीब करीब हर देश (जहाँ भारतीय अच्छी संख्या में हैं) में हैं जो घर से दूर घर की महक ताज़ा रखते हैं …
यहाँ इनका भी अपना एक अलग ही महत्व है। मेरे जैसे लोग, जो घर से बाहर जाने पर पहली पसंद के नाम भारतीय खाने की तलाश में रहते हैं। उनके लिए तो यह डिब्बे वाले देवदूत से कम नहीं होते। मगर घूमकड़ी में इस खाने की पसंद की जरूरत को त्यागना ही पड़ता है। 🙂
This comment has been removed by the author.
यूँ घर का सा खाना दूर देश में मिलना सच में बहुत अच्छी बात है …..
लन्दन में रह कर भी डिब्बे वालों की वजह से भारतीय भोजन मिल जाए तो क्या कहना ……क्षु ग्धा शांत रहे तो काम में भी मन लगेगा। अच्छी जानकारी देती पोस्ट
जहाँ चाह वहां हम भारतीय राह खोज ही लेते हैं…..
जो डब्बा सप्लाई कर रहे हैं उनका और जो वो खाना खा रहे हैं दोनों का भला हो रहा है….
हमारे पड़ोसियों की बेटी भी वहां गुजराती food सप्लाई करती हैं……and she earns a good sum 🙂
अनु
याद आया हम भी जब भी बाहर घूमने जाते थे तो सदा यह फिकर रहती थी आज खाना कहाँ खायेंगे ! फिर भूख हो या ना हो , खाने के वक्त खाना ज़रूर खाते हैं .
अब कभी लन्दन आए तो इन डिब्बा वालों को याद रखेंगे ! 🙂
ये तो बहुत अच्छी बात है, दूर देश में देश की महक , दाल तड़का , मटर पनीर , खाइये हुज़ूर , और लिखते रहिये .
खाने के लिए भी शादी करते हैं लोग ,वाह ।
बहुत ही रोचक लगी ……………..
डब्बेवालों के लिए तो कुछ न कहूंगी ,बस जब – जब आपको देशी खाने की याद सताये हमें भी याद कर लेना 🙂
ye to achchha hai ki khana to milta hai na aap kisi bhi vishay pr bahut sunder tarike se likhti hai usko rochak bana deti hain
badhai
rachana
मज़ा तो घरवाली व् घर के खाने में ही आता है वो बहर………………………। कंहाँ
इस बात के जाबब के रूप में Dhan Singh Rathore की टिप्पणी पर गौर कीजिये :):)
भारतीय खाने में विभिन्न प्रांतों और मौसम के अनुसार इतनी विविधता है कि घर जैसा खाना आसानी से मिलना मुश्किल लगता है। शाकाहारी खाना भी हर स्थान पर नहीं मिलता , शायद इसलिए भारतियों को इतनी मुश्किल होती है !
लन्दन में भी डब्बे वाले , रोचक !
रोचक !! भोजन की अहमियत हम भारतीय ही समझते हैं, इसका मतलब तो यही हुआ 🙂
Filhaal usi samasya se do char hoon.. Isliye yah post FEAST FOR THOUGHT lagi!!
ye khabar badi achchi lagi…..
यह जुबां…इंसान कि सबसे बड़ी दोस्त, सबसे बड़ी हमदर्द और सबसे बड़ी दुश्मन है …….इसके चलते पूरी दुनिया …या कहें पूरा भारतवर्ष तो चल ही रहा है ..होटल इंडस्ट्री …चल रही है …कहने को तो दाल रोटी से भी पेट भर जाता है …लेकिन नए स्वाद , नए व्यंजन …और देशी खाने की चाह …जो न करवाये सो थोड़ा…नतीजा …तुम्हारी प्रेरणा …. यह लेख …:)
घर का खाना और जॉब विदेश में रह रहे भारतीय जोड़े बहुत मिस करते हैं मेरी भांजी अक्सर फ़ोन पर कहती हैं कि मासी थक गये हैं अब तो बस माँ के हाथ का एक एक गर्म फुल्का खाने का मन करता हैं .:)) उम्दा लेख
बहुत खूब
शुभकामनाएं.
अंशुमाला जी की मैलसे प्राप्त टिप्पणी।
कहते है भूखे पेट न हो भजन गोपाला , जब भूख लगी हो तो भजन भी नहीं होता तो काम क्या खाक होगा , हम भारतीयो को घर के खाने की ये लत है की भारत में ही कही घूमने जाते है एक हफ्ते बाद ही घर के खाने के लिए कुलबुलाने लगते है वो भी तब जब हमें भारतीय खाना ही मिल रहा होता है , तो देश के बाहर जाने वालो की हालत समझ सकती हूँ । यहाँ विदेश टूर ले जाने वाले भी विज्ञापन में बड़ा बड़ा लिखते है टूर के साथ भारतीय और जैन खाना भी है , हमारी जैन मित्र तो १५ दिन के लिए विदेश घूमने जाती है तो खाना यहाँ से ले कर जाती है पराठे थेपले और १५ दिन तक चलने वाले सारे खाने ।
सही है शिखा. सफ़र पर जाना हो, तो साथ जाने वाला खाना पहले पैक होता है. लम्बा सफ़र हो, तो सूखे नाश्ते भी पैक कर लो…. 🙂 वैसे अपने देश का खाना है ही इतना स्वादिष्ट कि जिसने खाया, इस खाने को ढूंढता नज़र आया… 🙂 बढिया पोस्ट.
अच्छी जानकारी दी आपने -काश गांधी जी के लन्दन प्रवास के समय ये डब्बा वाले होते तो बिचारे को शाकाहारी खाने के लिए दर दर नहीं भटकना पड़ता –
यह आवाज उन्ही ने बुलंद की थी कि लोगों को जीने के लिए खाना चाहिए न कि खाने के लिए जीना चाहिए !
मगर एक ठेठ देशी भारतीय होने के नाते मैं शिखा जी आपसे (और गांधी जी से भी ) असहमत हूँ -जिसे खाने पीने का शौक न हुआ तो वो आदमी ही क्यॉकर हुआ ? 🙂 कुछ संस्मरण हैं इस पर कभी साझा करूँगा!
व्यंग्य का पुट लिए हुए रोचक जानकारी
रोचक!!
डिब्बावालों पर अच्छी व रोचक जानकारी। बहुत दिनों बाद व देरी से आने के लिए क्षमा।
चलिए सांत्वना मिली की मुझे सिर्फ खाने के लिए परेशान होकर शादी नहीं कर लेनी चाहिए
….. मेरी माँ तो यही उदाहरन देती है 🙂
I respect your work, regards for all the informative posts.