तुम पर मैं क्या लिखूं माँ,
तेरी तुलना के लिए
हर शब्द अधूरा लगता है
तेरी ममता के आगे
आसमां भी छोटा लगता है
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ.



याद है तुम्हें?
मेरी हर जिद्द को
बस आख़िरी कह
पापा से मनवा लेती थी तुम.
मेरी हर नासमझी को
बच्ची है कह
टाल दिया करती थीं तुम.
तुम्हारा वह कठिन श्रम 

तब मुझे समझ आता था कहाँ 
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ .

हाँ याद अब आता है मुझको
जब रोज सवेरे ईश्वर के सक्षम
कुछ बुदबुदाया करती थीं तुम
हम वैसा ही मुँह बना जब
हंसते थे जोर से नक़ल कर
झूट मूठ के गुस्से में तब
थप्पड़ दिखाया करती थीं तुम।
होटों पर थिरकते उन शब्दों का अर्थ
आज मैं समझ पाई हूं
क्योंकि अब हर सवेरे वही शब्द मैं भी
अपनी बेटी के लिए दोहराती हूँ
बच्चों की खातिर अपनी 
कर सकता कौन निसार जाँ
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ. 

साहस असीम भरा है तुझमे
धैर्य की तू मूरत है
ममता से फैला ये आँचल
जग समेटने में सक्षम है
तुझ से प्यारा,तुझसा महान
कोई बंधन होगा क्या यहाँ?
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ…