यह उस दौर की बात है जब न तो मोबाइल फ़ोन थे, न सोशल मीडिया और न ही पूरी दुनिया को एक क्लिक से जोड़ता हुआ इन्टरनेट.
ले दे कर या काले चोगे वाला जम्बो टेलीफोन था, (जिसकी लोकल कॉल्स भी खासी महँगी थीं) या फिर दूरदर्शन. इनके इस्तेमाल पर भी माँ बाप का पहरा रहा करता था. तो बेचारे नए नए टीनएज बच्चों के पास अपनी अक्ल और प्रतिभा का शो ऑफ करने का या एक्सपोजर का कोई एक साधन था तो वह था पत्र मित्रता. जिसमें दाम कोड़ी भी कम लगा करती थी और माता पिता भी इसे बाकी गतिविधियों की तुलना में हानिरहित, इज्जतदार माध्यम में शामिल कर लिया करते थे.
देश के उत्तरी इलाके में रहने वाले बच्चों के लिए हिमाचल, गोवा या केरल में रहने वाले बच्चे विदेशी मित्र जैसी धाक रखते थे या फिर बहुत हुआ तो नेपाल, भूटान या श्रीलंका विदेश की श्रेणी आते थे, बाकी स्थान भाषा की दुविधा को देखते हुए निरस्त कर दिए जाते थे. पत्र पत्रिकाओं से या किसी करीबी मित्र से किसी का पता ढूंढते समय प्रेक्टिकली यह ध्यान रखा जाता कि संवाद हिन्दी में होगा या टूटी फूटी, रैपिडेक्स भर तक की अंग्रेजी में.
बच्चों और युवाओं के लिए छपने वाली पत्रिकाओं में से, अपनी उम्र और शौक से मिलते जुलते लोगों के पते निकाले जाते फिर शुरू होता सुन्दर – सुन्दर लेटर पैड खरीद कर लाने का अभियान. जिसके लिए गुल्लक तोड़ी जाती और फिर आसमानी, गुलाबी पन्नों पर बने हुए फूल पत्ती या उभरे हुए दिल वाले कागजों वाले लेटर पैड और रंगीन पेन खरीदे जाते.
शुरुआत में पत्र एकदम औपचारिक हुआ करता. ‘आदरणीय’ … से शुरू होता और दो पंक्ति के परिचय एवं मित्र बनाने की इच्छा के साथ “आपके पत्र की प्रतीक्षा में” पर ख़त्म हो जाता. और फिर बैचेनी से वापसी पत्र का इंतज़ार होता. भेजे गए 10 पत्रों में से शायद 5 अपनी सही जगह पहुँचते और किस्मत अच्छी हुई तो उनमें से एक का जवाब आता. वर्ना फिर से मित्र ढूंढने की कवायत आरम्भ होती.
खैर थोड़ी कोशिशों के बाद कोई न कोई मिल ही जाता और फिर शुरू होता पत्रों का सिलसिला जो अमूमन 15 दिन से 1 महीने के अंतराल पर होता क्योंकि इतना वक़्त एक शहर से दूर दूसरे शहर या देश तक पत्र पहुँचाने में लग ही जाता था. जैसे जैसे पत्र व्यवहार बढ़ने लगता पत्र की पंक्तियाँ भी बढती जातीं और धीरे धीरे उनमें शेरो शायरी का शुमार होने लगता.
फिर पत्र लिखते वक़्त के मौसम और मूड के मुताबिक लेटर पैड का चुनाव किया जाता और उसी के मुताबिक रंग के पेन से, कलात्मक लिखावट में “प्रिय मित्र” से पत्र की शुरुआत की जाती.
“मैं यहाँ ठीक हूँ, आप भी वहां सकुशल होंगे” की रवायती पंक्तियों के बाद कुछ स्थानीय मौसम की बात होती, कुछ आने वाले उत्सव त्योहारों की, कुछ स्कूल की और अधिकांशत: दोस्ती की महिमा का बखान और अपने सामान्य ज्ञान का वह प्रदर्शन हुआ करता जो असल में किसी घरवाले या मित्र के समक्ष करने पर सुनने को मिलता है “तुर्रम्खां मत बन” या “भाषण मत दे यार. लगभग हर स्थिति के लिए कुछ तुकात्मक पंक्तियाँ ढूंढ ढूंढ एक डायरी में लिखी जातीं थीं फिर उसमें से ढूंढ कर, अलग अलग रंगों के पेन से उस पत्र में उतारी जाती थीं.
पत्र आने में संभावित समय से देरी हो जाती तो शुरू में ही ‘शेर’ लिखा जाता.
“मित्र क्या बात है, पत्र आना बंद है
तुम ही नाराज हो, या डाकखाना ही बंद है”
यदि फिर थोड़ी कहा सुनी के बाद –
“दोस्ती का चमन जो एक आंधी उजाड़ गई
आओ हम फिर उसमें बहारें बसा लें.”
फिर मित्र को मक्खन लगाता हुआ एक बब्बर शेर होता
“रोजेज आर रेड, वाय्लेट्स आर ब्लू
यू लव मी, आई लव यू. “
और फिर पत्र की सम्पत्ति पर अंतिम कील की तरह ठोका जाता
गुलाब खिल गया अब कमल की बारी है
मैंने पत्र लिखा ,अब तुम्हारी बारी है. “
और इस तरह गुलाबी, नीले कागजों पर महकती दोस्तियाँ चलती जातीं. जन्मदिन, त्यौहार आदि खास मौकों पर या तो आर्चीज के कार्ड काम आते या गुल्लक की क्षमता कम होने पर, किताबों के अन्दर दबे सूखे फूल – पत्ती तोहफे के तौर पर भेजे जाते.
इस पत्र मित्रता से न तो फेक अकाउंट या पते का रिस्क था, न ही फेक आई डी का. न ही यह डर था कि किसी अनजान को घर का पता दे दिया तो वह गलत इस्तेमाल न कर ले, न ही यह डर के वह पत्रों को लेकर ब्लैकमेल न कर ले.
कम सुविधाओं के जमाने की खुश मन, आपसी संवाद और सीधी साधी मित्रता का माध्यम होते थे ये पत्र- मित्र .
#ये उन दिनों की बात है
तस्वीर – गूगल से साभार