दिवाली
कहने को भारत में त्योहारों का मौसम है , दिवाली आ रही है .होना तो यह चाहिए कि पूरा देश जगमग कर रहा हो,उमंग से सबके चेहरे खिल रहे हो .जैसे बाकी और काम सब अपनी क्षमता अनुसार करते हैं ऐसे ही अपनी अपनी क्षमतानुसार सभी त्योहार मनाये और एक दिन के लिए ही सही, अपनी समान्तर चलती जिन्दगी में कुछ बदलाव हो ,अपनी सारी परेशानियाँ , अपने दुःख भूल जाये .पर क्या वाकई त्योहारों का अस्तित्व रह गया है हमारे समाज में ? कुछ अत्याधुनिकता की होड़ में छूट गए हैं तो कुछ को सामाजिक समस्याओं और परिवेश के सवालों तले दबा दिये जा रहे है .बात जहाँ तक प्रदूषण की है तो क्या पहले ये हवाई जहाज , जहरीला धुंआ उगलती फैक्ट्रियां ,और घरों में दुकानों में ए सी लगने बंद नहीं होने चाहिए ,पहला प्रहार त्योहारों पर ही क्यों?..
होली जैसा मेल मिलाप का त्योहार अब सिर्फ कुछ गांवों – कस्बों तक ही रह गया है क्योंकि हम आधुनिक लोग उन रंगों से गन्दा नहीं होना चाहते. हमारे आलीशान घर उन रंगों से खराब होते हैं तुर्रा यह है कि अब रंग नकली आते हैं . अरे उन नकली रंगों को बनाने वाला है कौन ? हम ही ना .जबकि स्पेन में टमाटरों की होली जोरशोर से खेली जाती है. करोड़ों टन टमाटर बर्बाद कर दिया जाता है.कितने ही लोग इस आपाधापी में हलके फुल्के घायल भी हो जाते हैं और उसके बाद होता है सफाई अभियान , जिसमें बच्चे बड़े सभी शामिल होते हैं. उन्हें अपने त्यौहार पर शर्म नहीं आती.
.स्पेन का टमाटर उत्सव.
नवरात्रों में दुर्गा पूजा में पांडाल लगाने से लोगों को एतराज़ है कि इतना पैसा जाया होता है ..कोई बताये कि क्या ये रोक कर गरीबी रोक सकेंगे ये ?क्या इन पंडालों में गरीबो का पैसा लगता है ? ये रोक भी दिया गया तो क्या ये बचा हुआ पैसा गरीबों तक जायेगा?नहीं ..पर हाँ इस उत्सव से जो हजारों परिवार को रोजगार मिलता है ,जिससे उनका पूरा साल रोटी मिलती है, वो जरुर बंद हो जायेगा ,और भारतीय संस्कृति से जुड़ा एक त्योहार आधुनिकता,और पूँजीवाद की वेदी पर चढ़ जायेगा.मुझे याद है आज से ४-५ साल पहले एक साल नवरात्रों के दौरान मैं भारत में थी . तो जिस भी तथाकथित सभ्य और पढ़े – लिखे परिवार की कन्यायों को मैने पूजा के लिए बुलाना चाहा तो जबाब मिला ” अब कौन ये सब करता है ,बच्चों को एक तो दिन मिलता है वो अपने वीडियो गेम खेलते हैं अपने दोस्तों के साथ, ये पूजा वूजा में कौन जाना चाहता है.ये सब तो बस अब काम वाली बाइयों के बच्चों तक ही रह गया है. वो आयेंगे उन्हें प्रसाद दे देना आप.बात ये थी कि उनके साथ अपने बच्चों को भेजने में उन्हें गुरेज़ था .ये वही लोग हैं जो अपने ड्राईंग हॉल में बैठकर गरीब बच्चों की दशा पर “च च च वैरी सेड” कहते हुए चर्चा करते हैं.
अभी रश्मि ने एक बहुत ही मार्मिक पोस्ट री शेयर की थी जिसमें पटाखे बनाने वाले बच्चों की करुण स्थिति का वर्णन था .पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं,बहुत दुःख होता है .उस पोस्ट की मूल भावना के प्रति मेरा पूरा सम्मान है उस दशा को किसी भी तरह सही नहीं कहा जा सकता.
पर मेरे दिमाग में बहुत से सवाल कौंधने लगे कि क्या ये हालात बच्चों के सिर्फ पटाखे बनाने से ही है ?क्या इन कारखानों में सिर्फ बच्चे ही काम करते हैं?इन पटाखे बनाने वाले कारखानों में दिवाली के बाद क्या ताला लग जाता है ? जहां तक मुझे ज्ञात है जितने पटाखों का प्रयोग दिवाली के समय होता है उससे कही ज्यादा शादी विवाह के समारोहों और अन्य सामाजिक समारोहों में वर्ष पर्यंत होता है . ये सर्व विदित है कि दियासलाई का उत्पादन भी उन्ही कारखानों में होता है और उसके उत्पादन में प्रयुक्त गंधक भी हानिकारक तत्व है .जरुरत है जागरूकता की ,कि इन कारखानों में बच्चो को काम ना दिया जाए ना कि पटाखे का उत्पादन ही बंद कर दिया जाय . ऐसा कौन सा विकसित या विकासशील देश है जो पटाखे का उत्पादन नहीं करता है?
क्या जो बच्चे इस काम में लिप्त नहीं वो सब अपना अधिकार पा रहे हैं, अपना बचपन पा रहे हैं ? उन बच्चों का क्या जो CWG के दौरान दिन रात मजदूरी करते रहे ?उसे गुलामी के भव्य स्वागत को तो हमने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ा पर अपनी संस्कृति और त्यौहार मनाने के लिए हमें समस्याएं दिखती हैं,क्या उन बच्चों का जो ढाबों पर बर्तन घिसते हैं या ट्रेन में सारा दिन चाय बेचते हैं .क्या उन बच्चों का जो हर साल ठण्ड से दम तोड़ देते हैं .क्या ये बेहतर नहीं कि कोई काम ही बंद करने की जगह उसे करने के तरीके में और उसकी हालात में सुधार किया जाये.
पश्चिमी देशों में भी १३ साल के बाद बच्चों को काम करने की इजाजत है और बच्चे करते भी हैं. हाँ कुछ नियम जरुर है कि कुछ खास बच्चों के लिए अनुपयुक्त जगह उन्हें काम करने की इजाजत नहीं या एक समय अवधि में ही काम करने की इजाजत है और वो भी पढाई के साथ .और उपयुक्त परिवेश ,माहौल और सुविधाओं के साथ..उन्होंने काम करने के तरीकों में सुधार किया ना कि काम ही बंद कर दिया.और जरुरत मंद बच्चों से उनका रोजगार ही छीन लिया . ..
अभी यहाँ एक साहित्यक गोष्ठी में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को सुनने का मौका मुझे मिला वहां हिंदी की स्थिति पर बोलते हुए एक महानुभाव ने कहा कि हिंदी को जड़ से मिटाने की ये पश्चिमी देशों की सोची समझी साजिश है पश्चिमी देशों से लाखों ,करोड़ों में रकम भारत को जाती है सिर्फ इसलिए कि अपने पत्रों में पत्रिकाओं में कुछ प्रतिशत अंगेरजी शब्दों का इस्तेमाल किया जाये उनका इरादा है कि ये कुछ प्रतिशत धीरे धीरे बढ़ता जाये और एक दिन हिंदी नाम की लिपि को ही अदृश्य कर दिया जाये .क्या यही वजह नहीं हो सकती हमारे त्योहारों में कमियां निकालने की ?दुनियाभर में पटाखे जलाकर हर उत्सव मनाया जाता है .उन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि इससे प्रदूषण होता है इसे बंद किया जाये.
हमें ग्लोबल वार्मिंग का बहाना देकर कहा जाता है के आधुनिकरण रोकें पर दुनिया में लॉस वेगास ,और डिस्नी लैंड जैसी अनगिनत जगहों पर बेशुमार तकनीकियों का बिजली के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है
लॉस वेगास
अमेरिका जैसे विकसित देश हमसे कई गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते है लेकिन धरती सम्मलेन में वो हमारे ऊपर दबाव डालते है कि हमे इन गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास करने चाहिए
उनसे कोई उन्हें बंद करने के लिए क्यों नहीं कहता ?हमसे साल में एक त्यौहार मनाने को मना किया जाता है,क्योंकि हम तो हैं ही सर्वग्राह्य , सबकी बातें सुनेंगे और अपनी ही संस्कृति को कोसेंगे .और एक दिन इन्हीं साजिशों को समझदारी और सुधार का जामा पहना कर अपनी संस्कृति स्वाहा कर देंगे..
यू के में नया साल.
(तस्वीरें गूगल से साभार )
बहुत कुछ सोचने -समझने को विवश करती हुई, पोस्ट
किसी भी हाल में बच्चों का बचपन नहीं छीना जाना चाहिए….उनके, पढने-खेलने के अधिकारों का हनन अपराध की श्रेणी में आना चाहिए…अपराध है भी ,पर उसे रोकने को कानून भी है…उसे सख्ती से लागू किए जाने की आवश्यकता है. और इसके लिए हर एक नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा.
शिक्षा आज तो सारी बातें मेरे मन की लिख दी हैं ऐसा लगा जैसे मेरी ही पोस्ट हो। बहुत शुभकामनाएं दीवाली की।
हम्म….पढना शुरू किया तो पढता ही चला गया…बिलकुल सही कहा आपने….जो हमारी संस्कृति है शायद हम उसे भूलते जा रहे हैं, खासकर दीवाली में…
हालाँकि मुझे भी पटाखों का शोर पसंद नहीं लेकिन जब घर दीपों से सजा हुआ होता है…वो अनूठा नज़ारा होता है…उन दीपों की तुलना इन बिजली के बल्बों से नहीं की जा सकती..अब प्रदूषण हो तो हो..मेरी बला से…कोलकाता में ४० साल पुरानी बसें चलती हैं उससे से तो कम ही प्रदूषण होता है दिवाली में…huh ….
कभी कभी….
बहुत सार्थक बात कही है ..हमें अपनी संस्कृति और त्योहार मनोयोग से मनाने चाहिए …हमारे अंदर अनुशासन की कमी है …वहाँ यदि टमाटरों से होली खेली जाति है तो सफाई अभियान भी चलता है ..यहाँ तो बिना होली खेले ही गंदगी फैला दी जाती है .. पर फिर भी त्योहार तो त्योहार है ..उसका आनन्द पूरे जोर शोर से मनाना चाहिए …रही बाल मजदूर की बात तो सच तो यही है की यहाँ गरीबी अभिशाप है …वहाँ हर बच्चे की ज़िम्मेदारी सरकार उठती है ..यहाँ छोटा स बच्चा परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने लगता है …कम से कम बच्चों को ऐसे उद्योगों से तो दूर ही रखना चाहिए जिनसे उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है …और कन्या पूजन की बात :):) वैसे भी आज कल कन्याएं ही मिलना मुश्किल होता जा रहा है …
बहुत अच्छी और समसामयिक पोस्ट ..बहुत सी जानकारी देती हुई …
बाल मजदूरी तो बहुत बड़ा सवाल है ही..बात भी सही है, की कारखाने में पटाखे बनाने बंद तो कोई भी देश नहीं करता,और बंद करना कोई जवाब भी नहीं….बेहतर तो सही में यही होगा की काम बंद करने के बजाये हालात में सुधार लाया जाये..
मुझे कहीं न कहीं लगता है की हम जैसे लोग इन सब विषयों पे बस बातें ही करते हैं की ऐसा होना चाहिए, नहीं होना चाहिए, लेकिन क्या हम सब सही में कुछ बदलाव ला सकते हैं?
जो लोग हालात में सुधार ला सकते हैं वो भी कितने बार ही बहस कर के अपने अपने घरों में चले जाते होंगे…या तो इन मुद्दों पे बहस ही नहीं करते होंगे.
दी, आपने ठीक कहा..अभी दुर्गा पूजा की ही बात बताता हूँ…जब मैंने अपने आसपास रह रहे लड़कों से पुछा की घूमने चलोगे? पंडाल लगे हैं आसपास में…तो उनका जवाब आया, अरे क्यों टाइम बर्बाद करें अपना भैया….घूमने से अच्छा है की एक दो फिल्म देख लेंगे…टाईम का भी यूज कर लेंगे हम…
इनकी इस बात का क्या जवाब दिया जाये….हम लोग जितना उत्साहित रहते थे पर्व त्यौहार में, उतना ये लोग नहीं रहते….क्या किया जाये.
और,
"नवरात्रों में दुर्गा पूजा में पांडाल लगाने से लोगों को एतराज़ है कि इतना पैसा जाया होता है ..कोई बताये कि क्या ये रोक कर गरीबी रोक सकेंगे ये "
कुछ ऐसा ही मिलता जुलता तर्क एक बात मैंने भी दिया था अपने एक सीनिअर को
बहुत अच्छी पोस्ट है ये…
आपने ये कैसे कह दिया था की मुझे पसंद नहीं आएगी? 🙂
@अजीत जी ! लगता है आप सब मेरा नाम शिक्षा ही करके दम लेंगे 🙂 पहले भी कुछ लोगों ने शिक्षा लिखा.Prof. Prakash K ने तो एक टिप्पणी में यहाँ तक कह दिया कि "तुम्हारे पापा ने तुम्हारा नाम शिक्षा ही रखा होगा वो प्यार से तुम्हें शिखा बुलाते होंगे" हाहाहा.
सोच रही हूँ अपना तखल्लुस शिक्षा ही रख लूं :).
अरे अभि ! मुझे अपनी हर पोस्ट लिखते हुए ऐसा ही लगता है कि वो किसी को पसंद नहीं आएगी :)तुम्हें अच्छी लगी मुझे खुशी हुई 🙂
बुरा नहीं है "शिक्षा दी" 🙂
सार्थक और उपयोगी आलेख, त्यौहारों के संबंध में आपके विचार सभी के लिए चिंतन-मनन के योग्य हैं।…दीपावली की शुभकामनाएं।
हम हिन्दुस्तानी अगर अपने जीवन से त्योहारों को निकाल दे तो जीवन कितना एकांकी और बदरंग हो जायेगा ये कल्पनातीत है . संस्कृति को सजोने और इस पर इतराने का अहो भाग्य हम भारतीयों को सहज रूप में प्राप्त है . हम अपने खुशियों को जीने के लिए युगों से तीज त्याहारो को अपने जीवन में शामिल कर चुके है . हमे अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए किसी गैर मुल्क का उद्धरण देना पड़े ये तो हमे अस्वीकार है . प्रकाश पर्व हमारे लिए विजय और हर्षोल्लास का पर्व है और हमे इसको जीने का पूरा हक . आपने एकदम सटीक बात की है की पटाखे तो हर देश में बनते है .बाल शर्म तो प्रतिबाधित है ही लेकिन पटाखे उद्योग के अस्ताचल में जाते ही ना जाने कितने घरो के चूल्हे भी ठन्डे पड जायेंगे . जरुरत है जागरूकता की और सुरक्षा सम्बन्धी हिदायतों की . शानदार संस्कृति रक्षक और सामयिक आलेख .अजीत जी ने कहा तो सही ही है, शिखा का शिक्षाप्रद आलेख .
शब्द शब्द सहमति। ये त्यौहार हमारी अमूल्य धरोहर हैं। इनके पीछे की कथाएँ हमारे संस्कारों का निर्माण करती है।
शिखा जी… आपने इतनी सारी बातें समेट ली हैं कि बस यही कहने को जी चाहता है कि इस पोस्ट ने पास्ट, प्रेज़ेंट और फ्यूचर को एक साथ गले लगा लिया है… त्यौहारों के सामाजिक पहलू को सब महसूस करते हैं, लेकिन इसका एक आर्थिक पहलू भी है जिसपर रश्मि जी की पोस्ट के बाद हम आपस में चर्चा कर रहे थे.. आज आपने उन सारे पहलुओं को छुआ ही नहीं, जिया है. त्यौहारों के सेलेब्रेशन को एक नया अर्थ दिया है… अब तो मानना पड़ता है कि आप लंदन में नहीं रहतीं.. या शायद वो शिखा कोई और है, असली शिखा की शिक्षा विदेश में हुई हो, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी.. एक बहुत ही ख़ूबसूरत नज़रिया मॉडर्न मगर देसी!! शिखा जी आभार!!
जिसकी लाठी उसकी भैंस यह कहावत सदियों से सुनते आ रहे हैं। आज लाठी अमेरिका के हाथ में है, प्रदुषण फ़ैलाने का काम यही ज्यादा कर रहे हैं और दुसरे राष्ट्रों पर प्रदुषण कम करने की धौंस देकर उनके विकास में रोड़ा अटकाने की चाहत रखते हैं,इनकी मंशा स्पष्ट है। आपने लॉस वेगास का सही उदाहरण दिया जहाँ बिजली के बिना कुछ भी संभव नहीं है। भारत के गांव में आज भी लोग चिमनी और लालटेन की रोशनी में अपने काम करते हैं।
लेकिन हमें भी अपने पर्यावरण एवं आस पास के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। जिससे हमारी आने वाली पीढी को संकट का सामना न करना पड़े।
पहले जब हम त्यौहार मनाते थे तब इनका स्वरुप इतना विकृत नहीं था। सहजता से उल्लास के साथ त्यौहार मनाते थे। आज बाजारवाद ने त्यौहारों का स्वरुप ही बदल कर रख दिया।
शिखा जी आपकी पोस्ट अवश्य ही कुछ सोचने को मजबूर करती है।
दीप पर्व की ढेर सारी शुभकामनाएं
आभार
हम व्यापारी बन गये हैं, बस बात इतनी सी है. बालश्रम, जिन अधिकारियों के दस्तखत से रोक के आदेश जारी होते हैं, उन्हीं के घरों में मिल जायेंगे छोटे बच्चे काम करते हुये. सारा तन्त्र सड़ चुका है. सड़ांध नहीं दिखाई दे रही चारों तरफ. कैंसर के मरीज की तरह गल रहा है. कोढ़ सा फूटा हुआ है घोटालों का. पुलिस बदल गयी है डकैतों-हत्यारों में न्याय का मिलना दुष्कर होता जा रहा है.गुहार कोई सुनता नहीं..
पहले शिखा और शिक्षा पर …
वो जो लंदन में है … वह शिखा (अर्थ के रूप में भी)ही होगी भारत की
ये जो हम भारत में पा रहे हैं वह शिक्षा (अर्थ के रूप में भी) ही तो है …
अजीत जी आज से हम भी आपके साथ हैं।
सोचने को बाध्य करता आलेख!
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ज्योति-पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
अब पोस्ट पर …
आपने तो मेरे मुंह (मन) की बात ही छीन ली। किस पर बोलूं … चलिए पहले पटाखे ही छोड़ूं …
जी बचपन में ही छोड़ दिया था… डरपोक हूं, डर लगता है इसलिए।
पर मेरा बेटा जब तीन साल का था, तो जब उसने पहला पटाखा छोड़ा था, दीपावली के दिन, तो उसके चेहरे पर जो हंसी थी, खुशी थी, "फत्ताक्" स्वर के साथ जो उसने मुंह से निकाले थे, तो मैं तो पूरी ज़िन्दगी जी गया था। आज भी १९ साल बाद वह दृश्य … वो खुशी मेरे सामने है।
पटाखे बंद कर हम उसके चेहरे की खुशी नहीं छीन सकते। साल में एक दिन आता है यह उत्सव … सल भर की खुशी समेटना है मुझे अपने बच्चों के संग।
क़िस्मत देखिए पटाखों से डरने वाले इस शख्स को नौकरी मिली दुनिया के शायद सबसे ज़्यादा आवाज़ करने वालों पटाखों की फ़ैक्टरी में। चलिए वह देश की सुरक्षा के काम आता है। पर हम पायरो तकनीक पर आधारित चीज़ें भी बनाते हैं, और एक से एक दृष्य यह आसमान और ज़मीन पर उपस्थित कर सकता है, कम से कम प्रदूषण के साथ।
मतलब मेरे कहने का था कि तकनीक है, सरकार चाहे तो सख्ती से अवैध कारखानों में वातावरण प्रदूषित करने वाले इन पटाखों को रोक सकती है।
यहां पर विषयांतर होकर तर्क है … हम जब घर से निकलते हैं तो कितने वाहन रोज़ हमें मिलते हैं जो वातावरण गंदा कर रहे होते हैं, क्या हमने कम्प्लेन किया है कभी उसके विरुद्ध।
फिर यह त्योहारों पर ही अटैक क्यों … यहां पर आपकी बातें तर्कसंगत लगती है … हमारी हंसी हमारी खुशी उन्हें अच्छी नहीं लगती जो हमारे मुंह से बबूल का दातून निकाल कर बहुराष्ट्रीय कंपनी का पेस्ट थमा चुके हैं। वो खुद तनाव में एकांगी जीवन जीते हैं, हमारे देश के ताना बाना को तोड़कर बना देना चाहते हैं अपनी तरह तनावग्रस्त देश। साम्राज्यवाद कहीं चुपके से हमारे ऊपर सांस्कृतिक हमला तो नहीं कर रहा।
जब-जब त्योहार आता है हम बहुत चिंतित हो जाते हैं उसके काले पक्षों को लेकर। आपने बिल्कुल सही कहा है कि उसके पीछे पूरी अर्थ वयवस्था की भी सोचिए। ये पंडाल, ये ढाकी, ये पंडित, ये रावण, कितनों की रोज़ी-रोटी सिर्फ़ इन दस दिनों के बदौलत साल भर की चलती है।
पंडालविहिन पूजा की हम कल्पना करते हैं यदि साकार हो गया तो इससे कितने लोग बेरोज़गार होंगे, कितनों का चुल्हा नहीं जलेगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते। एक छोटा उदाहरण देता हूं, मेरे ३८ फ़्लैट वाले इस सोसाइटी में पूजा होती है। उसमें पिछले ५ सालों से देख रहा हूं, एक ही ढाकी आता है। पूजा भर बजाता है। समिति उसे ५ हज़ार रुपए देती है। फिर वह रोज़ ५०० से कम नहीं बख्शिश पाता है। १० वीं के बाद हर घर जाता है। अलग से बख्शिश लेता है और सब गृहिणियों से अपने परिवार के लोगों के लिए कपड़े (पहने हुए ही सही) लेता है। उसका साल भर का इंतज़ाम हो जाता है। फिर अगले साल की प्रतीक्षा करता है।
अगर पंडाल न हो, तो, जिन लोगों के चंदा से यह आयोजन हुआ वे क्या एक धेला भी किसी को देंगे?
यूँ ही कोई कैसे छीन लेगा हमारी संस्कृति। अरे आज जो दो-चार शब्द अंग्रेजी के इस्तेमाल भी हो जाते हैं, वो भी नहीं होंगे आने वाले वर्षों में । ऐसे थोड़े ही इनके मंसूबे पूरे होने देंगे।
Aapke kahne me dam hai…America kee to khair baat hee nahee karnee chahiye! Karni aur kathani me wahan zameen aasmaan kaa antar hai! Lekin,in sab ke baavjood,mujhe nahee lagta ki, Diwali jaise tyohar manane kee hamari snskruti lupt ho rahee hai!
Patakhe banane ke kaarkhanon me to sachme behtar wyawstha kee sakht zaroorat hai.
sabhi problems me bal-majhdoori sabse badi hai.bachchon ko unka bachpan lautana shayad hamare samash sabse badi chunautihai.achchha aalekh .depotsav ki shubhkamnaye.
शिखा ये सवाल, तुम्हारे मन में मेरी पोस्ट देखकर उठे..इसलिए इन बिन्दुओं पर अपना मत रख रही हूँ…
क्या ये हालात बच्चों के सिर्फ पटाखे बनाने से ही है ?
मैने जो हालात बताएं हैं, त्वचा का जलना…हाथ का पीला पड़ जाना ..सुबह ३ बजे से रात १० बजे तक काम करना…हाँ, ये हालात उन पटाखों के कारखानों में काम करने से ही हैं.
क्या इन कारखानों में सिर्फ बच्चे ही काम करते हैं?
हाँ, ९०% बच्चे ही काम करते हैं.
इन पटाखे बनाने वाले कारखानों में दिवाली के बाद क्या ताला लग जाता है ?
नहीं, सालो भर…ये बच्चे काम करते हैं…और दिवाली के दिनों में सुबह ३ बजे से रात के दस बजे तक.
ये सर्व विदित है कि दियासलाई का उत्पादन भी उन्ही कारखानों में होता है
हाँ, दियासलाई भी वहीँ बनायी जाती है, तेरह वर्षीय सुहासिनी, एक दिन में ४००० दियासलाई बनाती है…और उसे ४० रुपये मिलते हैं.
ऐसा कौन सा विकसित या विकासशील देश है जो पटाखे का उत्पादन नहीं करता है?
हर देश करता है…लेकिन आठ साल के बच्चों से मजदूरी नहीं करवाता.
मैने सिर्फ एक पंक्ति में लिख दिया था कि" सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि इन बच्चों से भी बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली. "
इस से मेरा मतलब यही था की बच्चे खूब पटाखे चलायें…कम प्रदूषण फैलानेवाले पटाखे बने, पर छोटे-छोटे बच्चों से मजदूरी ना करवाई जाए. मैने व्यक्तिगत अनुभव वहाँ नहीं लिखे ,इस से सिवकासी के बाल मजदूरों से लोगों का ध्यान हट जाता, पर मुझे भी बहुत दुख हुआ था जब मेरा बेटा सिर्फ दस साल का था और इन बच्चों के हालात देख द्रवित हो, पटाखे ना चलाने का निर्णय लिया था.
मेरी खुद की बचपन की बड़ी खुशनुमा यादें हैं…पटाखों को लेकर…अपने सीमित बजट में पटाखे चुनना….उन्हें धूप दिखाना….चालाकी से धीरे धीरे चलाना…कि सबसे देर तक आवाज़ हमारे घर से ही आए.
पर मेरे बच्चों के पास पटाखे चलाने की यादें नहीं होंगी…और इसके लिए वे फैक्ट्री मालिक जिम्मेवार हैं. और मुझे नहीं चाहिए अपने बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी…अगर वो इस बिना पर मिले.
ये सच है…बाल मजदूर सिर्फ सिवकासी में ही नहीं हैं….पर हम अपने स्तर पर ही तो बदलाव ला सकते हैं…एक -एक को जागरूक करने की कोशिश कर सकते हैं. यह सोच कि हर जगह तो यही हाल है फिर इसी की चिंता क्यूँ करें……ठीक नहीं है.
और समय पर ही बात की जाती है…जब लोग पटाखे खरीदने चलाने जा रहें हों…तभी उन्हें इन बातों से अवगत कराने की जरूरत है.
मैं हर त्योहार खूब धूम धाम से मनाने के पक्ष में हूँ…पर उसके पारंपरिक स्वरुप में.
shikha ji bahoot sarthak post hai. kai muddon ko aap ne bakhoobi uthaya hai…………
रश्मि ! मैं आपकी इनसभी बातों से सहमत हूँ .मेरा कहना सिर्फ ये था कि इसके हल के तौर पर होना ये चाहिए कि बच्चों को ऐसे काम करने की सख्त मनाही हो. पटाखे ही नहीं उन्हें कानूनन ऐसा कोई भी काम न करने दिया जाये जो उनके लिए किसी भी तरह हानिकारक हो.न कि ये वजह देकर कह दिया जाये कि दिवाली पर पटाखे ही नहीं छुड़ाने चाहिए.ठीक है हम नहीं छुडाएंगे पर फिर भी ये पटाखे बनाकर कहीं तो भेजे ही जायेंगे. बस मेरा कहना इतना भर था.
आपकी प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया.
शिखा जी , आपने एक ही पोस्ट में बहुत से मुद्दे उठा दिए हैं । बेशक पर्वों की हमारे जीवन में बहुत महत्ता होती है। लेकिन कहीं न कहीं आज हम रास्ते से भटक गए हैं । दीवाली पर पटाखों का शोर और वायु प्रदूषण लोगों की जान लिए जा रहा है । मिलावटी मिठाइयाँ स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ बन रही हैं ।
यहाँ तक की दीवाली पर उपहारों का आदान प्रदान भी एक धंधे से ज्यादा कुछ नहीं जिसमे न भावनाएं होती हैं न प्यार । बस एक दूसरे को खुश करने का तरीका मात्र है।
शायद स्पेन में टमाटर ज़रुरत से ज्यादा होते होंगे । उन्हें डिस्पोज करने का यह सही तरीका है । वैसे भी वहां खाने वाले हैं ही कितने ।
बाल श्रम एक अभिशाप है ।
बहुत ही सार्थक लगी ये रचना.
रामराम.
sach Humari Sanskritik Virasat khoti jaa rahi hai……..
Ek bahut badaa aur chinta janak vishay…….
आपकी पोस्ट ने तो गम्भीर कर दिया शिखा जी. बहुत से विचारणीय मुद्दों को उठाया है आपने, इस दिशा में गम्भीर पहल अपेक्षित है.
5/10
औसत पोस्ट
बात तो बहुत पते की लिखी है किन्तु लेखन बेहद बिखराव लिए हुए है. लगता है लिखते समय दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था. क्या लिखूं…क्या छोडूं
शिखा जी
आप ने अपने पोस्ट में सारी बाते समेट दी है | मेरा भी मनाना है की इन त्यौहारों को बंद नहीं पर कम से कम थोड़े अनुशासित हो कर मनाने की जरुरत है | पहले भी हम पटाखे जलाते थे पर उनकी आवाज इतनी तेज नहीं होती थी और उनकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं होती थी साथ ही आधी रात के बाद पटाखे जलाना बंद कर देते थे | पर अब पटाखों की आवाज कई गुना बढ़ गई है और ये तीन चार दिनों तक जारी रहता है और आप को कुछ साल पहले का मुंबई का हाल बताती ही यहाँ दिवाली के दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक कोहरा छाया था हर तरफ वो पटाखों का धुँआ था जो सुबह तक ख़त्म नहीं हुआ था | पर अब ये काफी कम हो गया है पर आज भी मुंबई के कुछ पॉश इलाको में ये ही दृश्य होता है वहा त्यौहार मनाने के लिए नहीं अपनी रहिशी दिखाने के लिए पटाखे जलाये जाते है |
दूसरी बात जो आप ने बच्चो के लिए कही है उससे बिल्कूल सहमत हु केवल उनसे काम बंद करा देने से कुछ नहीं होने वाला है जरुरी ये है कि उनके स्थिति सुधारने के लिए कुछ जमीनी तौर पर किया जाये |
एक बार UN के सम्मलेन में अमेरिका ने अन्य देशो से कहा कि उनको ग्रीन गैसों का उत्सर्जन कम करना चाहिए तो मलेशिया ( जहा तक मुझे याद है ) जैसे छोटे से देश ने उठ कर कहा था कि हम करने को तैयार है बस आप हमारे विकाश की गति जो रुक जाएगी उसके लिए हमें अपनी तकनीक दे और साथ ही मुआवजा भी | अमेरिका की बोलती बंद हो गई थी | पर्यावरण के जिस नुकसन की बात की जा रही है उस पर पटाखे ज्यादा नुकसान नहीं पहुचाते है जितना की कुछ अन्य चीजे |
@ डॉ.दराल! सर ! बिलकुल ठीक कहा आपने बहुत से मुद्दे हैं बालश्रम,गरीबी,बेरोजगारी,प्रदुषण,स्वास्थ्य.
पर क्या हल हमारे पास इन सभी का एक ही है अपने त्योहारों का बहिष्कार.
क्योंकि इन सब समस्याओं की बाकी वजह हमारी सुविधाओं से जुडी हैं जिनके बिना हम रह नहीं सकते और त्योहारों के बिना आसानी से जिया जा सकता है.
@बालश्रम अभिशाप है -१००% सहमत .अभिशाप ही नहीं संगीन अपराध है मेरी नजर में.और इसके दोषी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चहिये चाहे फिर वह फैक्ट्री का मालिक हो या इन बच्चों के माता -पिता.
मेरे ख़याल से विरोध बाल श्रम और बाल शोषण का होना चाहिए किसी खास उद्योग या कार्य का नहीं
समस्या जड़ की है तो इलाज जड़ का होना चाहिए ऊपर के २-४ पीले पत्ते तोड़ कर क्या होगा?
आपकी प्रतिक्रिया का बेहद शुक्रिया.
" उस्ताद जी ! एकदम सही पकड़ा है आपने 🙂 वाकई मेरे दिमाग में अभी भी इतना कुछ चल रहा है कि शायद १० पोस्ट में भी न समाये.
बहुत सुंदर बात लिखी, इस बारे मै कई बार लिखना चाहता था, लेकिन कोई कोना हाथ नही लग रहा था, वेसे आप ने तो देखा ही होगा नये साल मे युरोप मे उस रात सांस लेना भी कठिन होता हे जब रात के १२ बजते हे, वेसे दब्बू को सब दवाते हे लेकिन मुझे समझ नही आता हम क्यो दब रहे हे?अगर देश की जनता जागरुक हो तो सरकारो को भी जागना पडता हे, हमारी जनता ही बंटी हुयी हे अपने अपने स्तर मे, ओर भारतिय ही भारतिया को नीचा देखता हे जब कि यह गोरे दुसरे गोरे को इज्जत से देखते हे, स्तर का दोनो मे कितना भी अंतर क्यो न हो, धन्यवाद आप के इस जगारुक करने वाले लेख के लिये
चलिए बहुत अच्छा लगा कि आपने बख्श दिया और मुझे खरी-खोटी नहीं सुनाई … शुक्रिया
बस एक छोटी सी सलाह
ब्लॉग लेखन या कोई भी आर्टिकल लिखने से पहले अलग-अलग नोट्स जरूर बनायें. इससे एडिटिंग में आसानी होगी.
उस्ताद जी ! नापसंदगी पर मैं कभी किसी को खरी खोटी नहीं सुनाती यकीन मानिये आप जीरो भी देते तो कोई शिकायत नहीं होती क्योंकि पसंद नापसंद हमारी व्यक्तिगत राय होती है और उसपर किसी को भी कुछ भी कहने का हक हमें नहीं होता.
हाँ विचारों में असहमती हो सकती है.तब में उन विचारों के सम्मान के साथ अपने विचार जरूर रखती हूँ.
आपकी सलाह का बहुत शुक्रिया मैं कोशिश करुँगी कि ध्यान में रख सकूँ..
बेहद गुस्से में लिखी है शायद ये पोस्ट। एक-एक शब्द बोल रहा है।
दुष्यंत जी भी याद आ गए।
…महज हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सिरत बदलनी चाहिए
शायद आप भी यही चाहती हैं।
इस बार भी काफी दिनों बाद आपके ब्लॉग पर पहुंचा हूं। बुकमार्क तो है पर ब्लॉग पर फॉलो नहीं था। अब कर लिया है। लेटेस्ट पोस्ट से वंचित नहीं रहूंगा अब।
पिछले टाइम जहां छोड़कर गया था, ठीक वहीं से सारी पोस्ट पढ़ डाली। सभी पर तो कमेंट नहीं कर सका। मगर कुछ पर थोड़ा बहुत लिखा है। इसके अलावा श्रीलंका की सैर, गणपति विसर्जन, स्कूल समस्या और कहां बुढ़ापा ज्यादा पोस्ट खासी पसंद आई।
एक दम सत्य …..लेकिन ये बात वो सभी क्यों नहीं सोच पारहे जिनकी सोच इन निर्णयों को प्रभावित कर सकती है . हमारे त्योहारों पर उंगली उठाने से पहले ये खुद अपने आप को क्यों नहीं देखते …अरे डीज़नी में तो रोज़ ही शाम को भव्य आतिशबाजी की जाती है . नए साल और इनडीपेंसेंस डे के तो कहने ही क्या ….आपके दिए गए सारे तथ्य बहुत विचारणीय है .
बहुत सार्थक पोस्ट ….धन्यवाद
त्योहारों की तारीखें हैं , त्योहार कहाँ ……..
जब छोटे थे तो इन त्योहारों से एक खुशबू आती थी
एक ख़ास दिन का एहसास होता था
अब तो सही कहा जाये तो एक बोझ लगता है
बहुत अच्छे से लिखा है शिखा
आपने सचमुच कुछ विचारणीय बिंदु उठायें हैं तथापि भारत की उत्सवप्रियता आज भी अपने शबाब पर है -सामयिक बदलावों को कौन रोक पाया है -बाजार की अर्थव्यवस्था यहाँ भी लागू है !
शीखा जी, जब तक हम अपनी संस्कृति पर गर्व करना नहीं सीखेंगे, तब तक हम दबे कुचले ही रहेंगे …
बहुत सुन्दर और समयोचित आलेख …
पटाखों के प्रयोग पर थोड़ा संयत होना पड़ेगा।
शिखा जी!, आपने जो लोजिकल और प्रक्टिकल तथ्य दिए, एक दम दुरुस्त हे, में आपसे पूरी तरह सहमत हूँ, खाली चिल्ल-पो करने से बाल श्रम के ऊपर टिका टिप्पड़ी करने से, क्या होने वाला हे, सवाल तो ये हे की वो बाल श्रमिक या और मजदूर जो भी इन कार्यों से जीविकापोर्जन करते हैं, तो उनका क्या होगा, सब पापी पेट का सवाल हे, आई अग्री की बी प्रक्टिकल, उनके हालातों को कैसे सुधार किया जा सकता हे, कोई भी इस्थिति गैर जरुरी नही होती, इन सब पर बेन लगाना कोई समाधान नही हे, क्या हे की लोग जो इतनी बड़ी बड़ी बाते करते हैं, किसी ने इन पटाखों या बमों का बहिष्कार किया कभी, सिर्फ बाते करना और उन पर अमल करना दोनों अलग अलग बात हैं!
सुन्दर सार्थक लेखन के लिए दिल से बधाई
अक्षरशः सहमत !!
शिखा जी,
उत्सवधर्मिता खत्म होने की सबसे बड़ी वजह ये है कि बड़े शहरों में रहने वाले हम लोगों ने आधुनिकता का आडम्बर ओढ़ कर खुद को रोबोट बना लिया है…या यूं कहिए कि हम सिर्फ धनपशु बन कर रह गए हैं…पैसे की इस दौड़ में रिश्ते, त्यौहार, रीति-रिवाज सब कहीं पीछे छूट गए हैं…समझ सकता हूं कि विदेशों में जो भारतवंशी रहते हैं, वो इन त्यौहारों की कसक कितनी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं…लेकिन वो फिर भी भारतीय समुदाय को इकट्ठा कर त्यौहार का मज़ा ले लेते होंगे…यहां भारत में तो त्यौहार अब बस रस्म अदायगी तक ही सीमित रह गए हैं…
त्यौहार का मज़ा अकेले नहीं सब के मिल कर साथ मनाने से ही आता है…इसलिए अब ब्लॉगर जहां कहीं भी, जिस किसी दिन भी मिलते हैं, वहीं दिन त्यौहार हो जाता है…अब बताइए आप का अगला भारत दौरा कब है…पटाखों के साथ आपके स्वागत के बाद उस दिन हम एक बार फिर दिवाली मना लेंगे…
जय हिंद…
शिखा जी, तर्क संगत आलेख है.
शिखा जी,
आपकी पोस्ट सोचने को मजबूर करती है और एकदम सटीक लिखा है……………मेरे ख्याल से अपने दिमाग का भी थोडा इस्तेमाल कर लिया जाये तो काफ़ी कुछ सही हो सकता है मगर यहाँ ऐसा होता नही है जिसकि वजह से ऐसे हालात बन जाते हैं।
Chennai: As you prepare to light up a sparkler to celebrate Diwali next week, spare a thought for the around 40,000 children employed in the hazardous firecrackers industry in Sivakasi, Tamil Nadu, for whom the festival simply translates into more forced work. Sivakasi, about 650 km south of Chennai, is India's fireworks capital. It employs over 100,000 people.
http://sify.com/news/these-kids-make-crackers-to-light-up-your-diwali-news-national-kk5mufcdhab.हटमल
ये सत्य है की शिवकासी के इन उद्योगों में बहुतायत में बाल श्रम का प्रयोग होता है , लेकिन उपरोक्त समाचार में स्पष्ट शब्दों में लेखा जोखा दिया गया है की कुल १००००० श्रमिको में से ४०००० बाल श्रमिक है जो कुल श्रम शक्ति का ४० प्रतिशत है . जरुरत है प्रभावी उपायों की.
खड़े होंकर ताली बजाने का मन कर रहा है.. कई दिशाओ में दृष्टिपात करवाती पोस्ट.. बहुत उम्दा
आपकी पोस्ट उद्वेलित करती है … सोचने पर मजबूर करती है … कहाँ से चल कर आज हम कहाँ आ गए … क्या ये रास्ता उन्नति को ले जा रहा है या अवनति की और …… क्या त्योहारों में आडम्बर जरूरी है, दिखावा जरूरी है … सादगी से क्यों नहीं मना सकते हम त्यौहार …. हम सब को सोचने की जरूरत है …
आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ….
बहोत ही गंभीरता से लिखा है आपने ये पोस्ट………….
आपको सपरिवार दिपावली की ढेर सारी शुभकामनाएँ
बहुत अच्छी प्रस्तुति। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
राजभाषा हिन्दी पर – कविता में बिम्ब!
ओह पहुंचने मे बला की देर हो गई …
खान पान रहन सहन बदला है तो बाकी बदलाव भी होकर रहेंगे ! हमारी संस्कृति भी मौखिक से लिखित परंपरा में कूदी और उससे आगे भी बदलती रही है ! बदलती रहेगी ! सो उसके अंश त्यौहार भी इस बयार से अछूते कैसे रहेंगे ?
हमारे उद्यम /व्यवसाय हमारी अद्यतन परम्पराओं /जीवन शैली से धन दूहने का उपक्रम मात्र हुआ करते हैं जिनमे अक्सर नैतिकता वाले प्रश्नों का कोई मोल नहीं हुआ करता ! आपको मावे की दरकार है व्यवसाय सिंथेटिक मावा देगा ! आपको पटाखे चाहिए व्यवसाय अभिशप्त बचपन देगा ! आपको घी चाहिए …आपको रौशनी चाहिए …आपको ये चाहिए …आपको वो चाहिए ?…व्यवसाय समाज की इस चाहत में पूंजी देखता है ! निष्ठुर पूंजी के आगे मानवीयता पानी भरती है !
पूजा पंडाल पहले कब ऐसे थे ? रंगोत्सव ,प्रकाशोत्सव सभी तो हमारे जीवन के स्वाभाविक बहाव के अनुकूल बह रहे हैं ! हमारी आकांक्षाओं को भव्य से भव्यतम चाहिए और व्यवसाय यही छिद्र खोजता है ! कहने का आशय ये है कि व्यवसाय से इतर बदलाव सहज है पर व्यवसाय में बदलाव के साथ कुटिलता भी समावेशित है ! ज़ाहिर बात ये कि व्यवसाय में कुटिलता कोई अलौकिक धारणा तो है नहीं वो हम मनुष्यों की ही 'जाई' है ! तो फिर बदलाव में नकारात्मकता का श्रेय भी हमारा है और विसंगतियों तथा समस्याओं का ठीकरा भी हमारे ही सर फूटना चाहिए !
भूख से भयभीत बचपन , बेरोजगारी से जूझती आबादी , आखिर किसकी जिम्मेदारी है ? निश्चित ही हमारी समुदायगत जिम्मेदारी है यह ! हमने सरकार बनाई किसलिए है ? अगर कोई पीड़ित है शोषित है तो फिर हमारा सामुदायिक भ्रातत्व कहाँ है ?
व्यवसाय ने अपनी समृद्धि के वास्ते अस्तित्व के लिए जूझ रहे हाथों में से बचपन को निशाना बनाया है और निशाना अचूक है! तो इस निशाने को जायज ठहराने का कोई बहाना ढूँढने के बजाये अपना सामुदायिक दायित्व बोध और अपनी जिम्मेदार सरकार ढूँढना होगी ! यहां संस्कृति पर खतरे से पहले संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए परवान चढ रही नस्ल पर अयाचित हमला , हमें नंगी आंखों से दिखना ही चाहिए !
बहरहाल रोजगार और संस्कृति पर छिटपुट असहमति के बावजूद ,एक अच्छी विषयवस्तु और एक अच्छे आलेख पर आपको सराहना मिलनी ही चाहिये ! आभार !
शिखा का मतलब चोटी होता है और शिक्षा का संबंध ज्ञान से है 🙂 एक कहावत है की चोटी इस लिए रखी जाती थी जिससे गुरुजी उसे खींच कर विद्यार्थी के ज्ञान को जागृत कर दें ?
त्योहारो के बारे में दो बातें हैं अमीरों का त्योहार और गरीबो का त्योहार लेकिन अब इनमें दूरी कम होने लगी है क्योंकि अब हर त्योहार इस देश में होली की तरह मनाए जाने लगे हैं।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था जब यह पता चला था की बिहार में लोग नए कपड़े सिलवाते हैं होली खेलने के लिए । तब शायद होली परंपरागत टेसू के फूलों से खेली जाती रही होगी।
इतने सालों की गुलामी ने हमारे जीन्स में ही परिवर्तन कर दिया जो कोई भी कहीं से हड़काते रहता है और तो देश से अलग हुआ पाकिस्तान ही जाने बवाल बना हुआ है ।
रही बात बच्चो और उनके काम की तो सैद्धांतिक रूप से कौन असहमत होगा की उनके बचपन की सुरक्षा की जानी चाहिए लेकिन क्या कानून बना देने भर से समस्या हल हो जाएगी । बिना सोचे समझे कानून बनाकर हम अनगिनत लोगों को भूखे मरना छोड़ देना चाहते हैं क्या, बिना किसी उचित व्यवस्था के ।
ग्लोबल वार्मिंग हा हा हा
उनको पसीना निकला तो हमारा एसी बंद करवा दो । अमेरिकन का प्रति व्यक्ति कितना ऊर्जा खर्च है ?
बढ़िया पोस्ट और सार्थक प्रतिक्रियाएं ! दीपावली की शुभकामनायें !
main late ho gaya, aur lagta hai saari bahas ho chuki hai…….:)
kash ham bachpan bachate hue apne khushurat system ko jiiwit rakh payen…:)
deepawali ki bahut bahut jagmag karti hui subhkamnayen……:)
एक बेहतरीन पत्रकार की कलम एक बेहतरीन वैचारिक लेख के लिए धन्यवाद ज्योति पर्व दीपावली की इन्र्ददनुषी शुभकामनाएँ
दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं
Aapko Deepavali ki hardik subhkamnai.
“नन्हें दीपों की माला से स्वर्ण रश्मियों का विस्तार –
बिना भेद के स्वर्ण रश्मियां आया बांटन ये त्यौहार !
निश्छल निर्मल पावन मन ,में भाव जगाती दीपशिखाएं ,
बिना भेद अरु राग-द्वेष के सबके मन करती उजियार !! “
हैप्पी दीवाली-सुकुमार गीतकार राकेश खण्डेलवाल
सही और सार्थक चिंतन ।
मैंने आपके पास इन्हें भेजा है…. इन लोगों का अपने घर पर दीवाली ( 5 Nov 2010) शुक्रवार को स्वागत करें.
http://laddoospeaks.blogspot.com/
इसी तरह आप से बात करूंगा
मुलाक़ात आप से जरूर करूंगा
आप
मेरे परिवार के सदस्य
लगते हैं
अब लगता नहीं कभी
मिले नहीं है
आपने भरपूर स्नेह और
सम्मान दिया
हृदय को मेरे झकझोर दिया
दीपावली को यादगार बना दिया
लेखन वर्ष की पहली दीवाली को
बिना दीयों के रोशन कर दिया
बिना पटाखों के दिल में
धमाका कर दिया
ऐसी दीपावली सब की हो
घर परिवार में अमन हो
निरंतर दुआ यही करूंगा
अब वर्ष दर वर्ष जरिये कलम
मुलाक़ात करूंगा
इसी तरह आप से
बात करूंगा
मुलाक़ात आप से
जरूर करूंगा
01-11-2010
दीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!
आप को सपरिवार दिवाली की शुभ कामनाएं.
बहुत कुछ सोचने -समझने को विवश करती हुई, पोस्ट
….
आपको व आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ
काफी विचार पूर्ण पोस्ट लिखी है आपने , कुछ पल तक सोचता रहा मैं कि क्या टिप्पणी करूँ ….हमारी संस्कृति हमारी जिन्दगी का अहम हिस्सा है काश हम इसे सरंक्षित करने में योगदान दे पाते…सुंदर पोस्ट
चलते -चलते पर देखें ….हार्दिक शुभकामनायें ….काश ..!
hi… happy diwali and happy new year and ma'am requst hai, thoda kam likhiye but unme aap sari bat prastut kar jaye and take care
ज्योति पर्व के अवसर पर आप सभी को लोकसंघर्ष परिवार की तरफ हार्दिक शुभकामनाएं।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें … …
बेहतर रचना के लिए बधाई
mere man mein uthti hui anek prakar ke bhaon ki jhlakiyan aapke post mein dekhne ko mili. behatarin post.
shikha ji,
jin vichaaron ko aapne rakhaa hai us par sabse pahle hum aam janta ko sochna chaahiye. kaanoon ban jata lekin todte bhi hum hin log hain, chaahe wazah gareebi ho ya fir zarurat se jyada paa lene ki aakansha. chhote bachchon ko aise kaam mein jhonk diya jata hai jahan pabandi hai, lekin wahan bhi le dekar maamla thik ho jata aur kaam chalta rahta hai.
aapka post padhkar bahut kuchh likh jaane ka mann ho raha.
sochne ke liye vivash karte aalekh ke liye bahut badhai.
संस्मरण से इतर यह पोस्ट बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ….वैसे हम तो पटाखे छुडाते ही नहीं |
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