कल हमारी बेटी के स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग थी ..,जब हम वहाँ पहुंचे तो देखा कि अजब ही दृश्य था …एक हॉल में कचहरी की तरह लगीं कुर्सी- मेज़ और खचाखच भरे लोग ..आप उसे सभ्य मच्छी बाजार कह सकते हैं .हर पेरेंट को एक -एक विषय के लिए सिर्फ पांच मिनट पहले से ही दे दिए गए थे ..बस अपने समय से जाओ ,सम्बंधित अध्यापक के पास बैठो ..वो पहले से ही होठों पर ३६ इंच की मुस्कान लिए ,५ मिनट की स्पीच तैयार करके बैठा होगा… वो भी सब अच्छा ही अच्छा …यानी कि बच्चों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण … बस वो सुनो ..थेंक यू बोलो और आगे बढ़ो…बड़ा मजा आ रहा था…..आजकल स्कूल में अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं.. चेहरे पर मुस्कान और अच्छी अच्छी बातें …कितना भी नालायक हो आपका बच्चा हो पर वो उसमें भी खूबियाँ ढूँढ – ढूंढ कर आपको बताएँगे ..तभी बच्चे खींच खींच कर माता पिता को शिक्षकों से मिलवाने ले जाते हैं कि देखो कितने योग्य हैं हम और एक तुम हो जो घर में डांटते ही रहते हो.और घर आकर उन्हें लाइसेंस मिल जाता है हर वो काम करने का जिनके लिए माता -पिता उन्हें आम तौर पर मना करते हैं
हमें याद आ रहे थे अपने स्कूल के दिन जब साल में १ या २ बार ये पेरेंट्स मीटिंग होती थी …जिसमें कभी माता – पिता जाने को तैयार नहीं होते थे कि कौन लाडलों की बुराइयाँ सुनेगा जाकर , न ही बच्चे चाहते थे कि उनके माता – पिता इन मीटिंग्स में आयें…. त्योरियां चढ़ा हुआ अध्यापकों का चेहरा ,रोबीला स्वर और कितना भी अच्छा छात्र हो उसकी अनगिनत कमियां …कौन चाहेगा यह सब चुपचाप खड़े होकर सुनना.और फिर उनसब के ऊपर घर जाकर फिर डांट खाओ ” मीटिंग के आफ्टर इफेक्ट्स”..२ दिन खेलना बंद , टीवी बंद, गाने बंद, दोस्तों से बात बंद …बाप रे बाप किसे चाहिए ऐसी पेरेंट्स मीटिंग?
…
कितना बदल गया है परिवेश …पहले आपको शिक्षण संस्थान की जरुरत होती थी आप विन्रम होकर जाते थे कि बराय मेहरबानी आपके बच्चे को दाखिला दे दिया जाये हम फीस भी देंगे ….फिर भी शिक्षकों का स्वर तना ही रहता था एहसान सा करके दाखिला दिया जाता था.और मजाल जो उनकी किसी गलती पर आप चूं भी कर दें …कहीं आपने अपने बच्चे का पक्ष ले लिया या शिक्षक की कोई गलती निकाल दी ….फिर आपका बच्चा उस साल तो पास होने से रहा..
पर अब आपको नहीं बल्कि शिक्षण संस्थान को आपकी ..नहीं सॉरी सॉरी ..आपकी जेब की जरुरत है…जाइये देखिये आपके बच्चे के लायक हैं वो लोग या नहीं ….वो भी पूरी कोशिश करेंगे आपको लुभाने की… इससे अच्छा तो स्कूल हो ही नहीं सकता आपके नौनिहाल के लिए..सारी सुविधाओं से युक्त …आपका लाडला नबाब की तरह जायेगा ..जो मर्जी होगी पढ़ेगा …और मजाल टीचर की कि कम no . दे दे आखिर इतने पैसे किसलिए लेते हैं …भले ही बच्चा घर में रोटी को हाथ न लगता हो पर स्कूल में पूरा लंच न ख़तम करके आये तो अध्यापिका की आफत …दूसरे दिन ही मम्मी जी दनदनाती पहुँच जाएँगी कि आखिर करती क्या है अध्यापिका ? बच्चे को खाना भी नहीं खिला सकती …आखिर इतने पैसे लेते किस बात के हैं …..बहरहाल नाम भले ही उनका शिक्षक रह गया हो पर हालत उनकी किसी फाइव स्टार होटल की आया से ज्यादा नहीं रह गई
ठीक भी है भाई बदलता वक़्त है और उसके साथ परिवेश भी बदलता ही है …अब वो वक़्त शायद दूर नहीं जब अपने लाडलों के लिए महंगे होटल का कमरा बुक कराया जायेगा ….वहां वो आराम से पसर कर कुछ मूड हुआ तो पढ़ लेंगे ..एक एक करके टीचर आयेंगे और उनमे स्किल हुआ तो बच्चे को सोते सोते भी पढ़ा लेंगे ..आखिर उन्हें पैसे किस बात के मिलते हैं….और जों नहीं पढ़ा पाए तो बेकार… रास्ता नापो जी ..कोई और आएगा.ज्यादा लम्बी मुस्कान वाला ….
सही कह रहीं हैं,बहुत कुछ बदल गया,भला शिक्षा कैसे अछूती रहती.
बिलकुल सही नज़ारा प्रस्तुत किया है आज की शिक्षा का…आज बच्चों को हाथ लगाना तो दूर धमका भी नहीं सकते…हमारे वक्त में अध्यापक से कहा जाता था कि चमड़ी आपकी हड्डी हमारी….अर्थात कि बस हड्डी मत तोडना बाकी आप चाहे जो मन में आए करो..:):)
क्या नज़ारा होगा उन स्कूलों का जो पांच सितारा होटल की तरह होंगे…वैसे अभी भी हैं पर इतना नहीं कि बच्चों के हिसाब से चला जाये ..अच्छा व्यंगात्मक लेख है….बधाई :):)
बात तो तुमने ठीक कही शिखा…कुछ ऐसे ही नज़ारे भारत में भी हैं…बच्चों को छुआ नहीं कि अभिभावक दनदनाते हुए पहुँच जाते हैं और शिक्षकों की ऐसी हालत देख ,बच्चे भी शेर बन जाते हैं. अधिकारों के प्रति तो हम हमेशा सजग रहते हैं पर उसी भावना से कर्तव्य भी निभाने चाहियें जिस से हम चूक जाते हैं.
एक यथार्थपरक लेख…व्यंग के तड़के के साथ
फाइव स्टार होटल की आया
पटक कर मारा है आपने तो 🙂
बी एस पाबला
मैं आपकी हमनाम ……………पहली बार आपके ब्लॉग पर आई अच्छा लगा। आज की शिक्षा का जो नज़ारा आपने पेश किया है हाल ही में वैसा ही कुछ खुद भी देख कर आई हूँ।
main ek lesson padhatee hun…22 cen. ka school..usme yahee sab hota hai.. bedroom ke bagal me school ka ek kamra hai..teacher computer aur robot honge…
पहले गुरु-शिष्य का रिश्ता पावन होता था अब तो दोनों ओर से स्तर की गिरावट आयी है.आज व्यावसायिकता ने शिक्षा सहित हर क्षेत्र में घुसपैठ कर ली है.आगे आगे देखिये होता है क्या? अब तो विदेशी संस्थानों को भी भारत में सिक्षा संस्थान खोलने की इजाजत दी जा रही है
वाह शैफाली! शुक्रिया बताने का ..मतलब मेरी कल्पना कोरी कल्पना नहीं है 🙂
ab ye siksha ke mndir nhi rhe hain apitu vyvsay ho gye hain aur aise vyvsayik snsthano se aap kya ummid kr skte hai
aap dehi me abhibhavk ekta mnch se smprk kren yh snstha shiksha me sudhar v adhikaron ke vishy me bda kam kr rhi hai aap chhe to un ka teliphon n9 aap le skti hain aap chahen to 09810155058 pr bhi smprk kr skti hain
हम भी कै साल बच्चो के स्कुल मे जाते रहे पेरेंट्स मीटिंग मै जहां हमे काफ़ी समय मिलता था, ओर टिचर पुरी ओर सही बात बताते थे, बाकी लोग सब बाहर होते थे, बस मां बाप ही अंदर जाते थे, ओर हमे टीचर आगे का रास्ता भी बताते थे…. जिस का हमे बहुत लाभ हुआ, वेसे भी यहां स्कुलो मै कोई फ़ीस डुनेशन या खर्च नही किताबे भी फ़्रि मै मिलती है, बाकी भारत ओर यु के का हमे नही पता
आप ने सुंदर ढंग से लिखा धन्यवाद
@ राज भाटिया ! जी सर ठीक कहा आपने यहाँ UK में भी पब्लिक स्कूलों में कोई फीस या खर्चे नहीं हैं और मीटिंग्स भी काएदे से होती हैं पर सिर्फ प्रायमरी स्कूल तक ..मेरी बेटी इसी साल सेकेंडरी स्कूल में आई है और ऐसा माहोल पहली बार ही देखा हमने ….बाकी कि बातें मैने भारतीय स्कूलों के सन्दर्भ में ही कही हैं.आपने अपना वक़्त दिया लेख को बहुत आभारी हूँ..
शिखा जी,
हमरे यहाँ भी बच्चों की पढ़ी मुफ्त है स्कूल में…किताबें भी स्कूल से ही मिलती हैं…
बच्चों के बारे में सही बात ही बताते हैं…स्टुडेंट काउंसिलर भी है जो जो सही रास्ता दिखाते हैं..बच्चो की क्या रूचि है इस की लाइन में जाना चाहिए इत्यादि….
यहाँ हर स्कूल में हर सुविधा बराबर उपलब्ध है …और वो सुविधा हर बच्चे को बराबर मुहैय्या होती है …
हां जो बच्चे मेधावी होते हैं उनके लिए थोड़ी सी ज्यादा सुविधा दी जाती है….और मेरे बच्चों को वो मिली है….
परेंट्स टीचर मीटिंग में टीचर्स ने बच्चों की तारीफ ज़रूर की लेकिन उसकी वजह थी की मेरे बच्चे हमेशा टॉप रहे…….. तो तारीफ ही सुनती रही हूँ….
बाकि ऐसा कुछ नहीं है यहाँ की ५-स्टार होटल है …ऐसा कहा जाए…
galati sudhaar…
शिखा जी,
हमारे यहाँ भी बच्चों की पढाई मुफ्त है स्कूल में…किताबें भी स्कूल से ही मिलती हैं…
इसे कहते हैं आमूल चूल परिवर्तन
भले ही परिवेश बदला है, प्रसंग बदले हैं इसलिए परिस्थितियों में भी बदलाव आया है परन्तु यह बदलाव कई मायनों में सकारात्मक परिणाम भी ला रहा है
उम्दा पोस्ट !
आजकल के एक टीचर ने एक बच्चे से क्लास में कहा-"आजकल तुमलोग कुछ सीखना नहीं चाहते,तुम्हे अच्छे नंबर नहीं आते.हम लोग के समय में ऐसा नहीं था. हमलोग खूब मन लगाकर पढते थे."
बच्चे ने जबाब दिया–" आपको कोई ढंग का टीचर मिल गया होगा….हमें तो……."
अदा जी ! शायद मेने ही कुछ अस्पष्ट लिखा है ..खैर शायद अब कुछ स्पष्ट कर पाऊं..मेरे लेख का पहला पेराग्राफ ही यहाँ यानि UK के संदर्भ में है .जहाँ सिर्फ पेरेंट्स मीटिंग का जिक्र है (जो कि आँखों देखा हाल है )बच्चे मेरे भी मेधावी हैं, ज्यादातर हिन्दुस्तानियों के होते हैं ..और अपने बच्चों कि तारीफ सुनना किसे बुरा लगता है…परन्तु ये आजकल की शिक्षा व्यवस्था का ट्रेंड है कि सकारात्मक ही बोला जाये फिर चाहे वो बच्चा हो या व्यस्क…और ये एक अच्छी बात भी है..बाकि सब बातें वैसी ही हैं जैसी आपने बताईं..
शेष आलेख भारतीय स्कूलों के सन्दर्भ में ही हैं जो मेने वहां देखा और सुना .है.
.उम्मीद है मैं अपनी बात अब स्पष्ट कर पाई हूँ 🙂
शुक्रिया आपका
bahut hi pyaara lekh jise padhkar kai baate yaad aa gayi aur apne bachcho ke parents meeting bhi ,sahi tasvir pesh ki aur rashmi r.ji ki baate umda lagi .
शिखा जी, यहां तो आलम ये है कि आज टीचर किसी ग़लती पर पिटाई कर दे, तो स्टूडेंट को लेकर अभिभावक अखबार के दफ़्तर पहुंच जाते हैं…सब कुछ बदलता जा रहा है…हम सब ’विकास के पथ’ पर अग्रसर हैं…
शिखा जी,
सौ बात की एक बात आपने एक लाइन में कह दी है—-"आजकल स्कूल में अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं."
बाकी मैं अभी इस अनुभव से अनजान हूँ.
हमारे स्कूल में तो कभी गल्ति से पिता जी को बुलवाया मतलब लात खाना तय समझो…घर पर भी और स्कूल में भी. बस, यही मतलब होता था टीचर्स पेरेन्टस मिटिंग का. 🙂
अब समय बदल गया है.
पेरेंट्स को हमारे मास्साब ने जितनी बार भी बुलवाया उतनी बार स्कूल से बजाते बजाते हमारे बापू हमें घर तक ले जाते थे. वो आज समझ मे आया कि वो पेरेंट्स टीचर मिलन समारोह होता था.:)
रामराम.
अपने विचारों को बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया आपने …….बात रही पैरंट्स मीटिंग कि तो मेरा तजुर्बा है ……..मै तो बहुत डरता था इस दिन से …..लेकिन अब शायद वक्त के साथ ये सारी चीजे बदल गयी है
इस लेख के आधार पर कुछ टिप्पणियां पढने का अवसर मिला…अच्छा लगा कि कहीं तो बच्चों के लिए शिक्षा मुफ्त है…और शिक्षा का स्तर भी उच्च कोटि का है ….भारत की बात करें तो सरकार ने शिक्षा की प्रगति के लिए काम तो बहुत किया है…प्रगति हुई भी है परन्तु सरकारी विद्यालयों की पढाई का क्या स्तर है बताने की आवश्यकता नहीं है….आज कल शिक्षण संस्थान व्यापारिक केन्द्र बने हुए हैं…ज्यादातर लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए प्राइवेट स्कूल में ही पढ़ाते हैं और जब कभी मैं वहाँ की फीस के बारे में सुनती हूँ तो दंग रह जाती हूँ…प्रवेश शुल्क हज़ारों में नहीं लाखों रुपयों में होता है…बच्चा के. जी . में जाता है और फीस ३ महीने की ४० हज़ार रुपये…
आज तो हाल ये है कि दिल्ली के एक स्कूल ने कहा कि यदि बच्चे को वातानुकूलित कक्ष में बिठाना है तो अलग फीस और जो फीस ना दे पायें उनके बच्चे को अलग कमरे में पढ़ाया जायेगा.
तो भाई ये पांच सितारा होटल जैसा ही हो गया ना?
और हमारा ज़माना था कि M. A . में एक इकोनोमिक्स की किताब १० रुपये की थी तो हमने नहीं खरीदी और लाइब्रेरी से जा कर नोट्स बनाये थे ….अब आप सोच सकते हैं की कितना बदल गया है ज़माना .. :):)
शिक्षा अर्थ बदल गये हैं। हमारे महाराष्ट्र में आपको पता है शिक्षा का मतलब क्या होता है यानी मराठी में- सजा। दंड।
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कसूर हम मां-बाप का भी कम नहीं है…दिल पर हाथ रखकर बताइए, काम की आपाधापी के चलते हम कितना वक्त दे पाते हैं बच्चों को…लेकिन चाहते यही हैं कि हमारा बच्चा क्लास में टॉप पर रहे…हम बिना बच्चे की रूचि और काबलियत पर ध्यान दिए अपने अधूरे ख्वाब ही उनके माध्यम से पूरे होते देखना चाहते हैं..दरअसल स्कूल या टीचर
सिर्फ बच्चों को नियमित और व्यवस्थित होना ही सिखा सकते हैं…बच्चा स्कूल में तो पांच या छह घंटे ही गुज़ारता है, बाकी वक्त तो घर पर ही रहता है…इसलिए घर पर ही ज़्यादा तय होता है कि बच्चा किस दिशा में जा रहा है…स्कूल नए ज़माने के हिसाब से अपने को ढालते रहते हैं, ज़रूरत है बस हमारे जागते रहने की…
जय हिंद…
हमारे बचपन में तो मास्टर जी का डंडा ही सब मीटिंग सेट कर देता था …. मगर एक दो बार ऐसा हुआ कि पैरेंट्स ने मास्टर जी को ही सेट कर दिया …तब से मार कुछ कम हो गयी
……………………………
रही बात पैरेंट्स टीचर मीटिंग की तो आपने एकदम ठीक तस्वीर खींची है … आज तो स्कूल शिक्षा स्थल कम और बाज़ार या दूकान ज्यादा लगने लगे हैं … आप कहती हैं आपके यहाँ किताबें स्कूल से मिलती हैं … हमारे भारत में तो किताबों के साथ साथ ड्रेस, टाई, बेल्ट, मोज़े और किताबों पर चढाने वाले कवर भी स्कूल से ही मिलते हैं लेकिन दो तीन गुने दामों पर … बाहर से खरीद लिया तो बच्चे की खैर नहीं और फिर से पी टी मीटिंग…
शिखा जी, आपकी पोस्ट को अमेरिका में रह रहे बेटे को सुना रही थी। उसके भी यही हाल है। पोता अभी डे-केयर में जाता है। वहाँ का सबसे आज्ञाकारी बच्चा और घर में कुछ भी नहीं मानने वाला। टीचर कहती है कि तुम्हें ही बच्चे पालने नहीं आते यह तो बड़ा ही नेक बच्चा है। इस विषय पर सभी के अनुभव अलग हो सकते हैं लेकिन आपकी पोस्ट सार्थक बहस लिए है।
itni achchi post aur main itni der se dekh paaya.dukhad!!
बहुत सही लिखा आपने!पेरेंट्स मीट मे तो जाने का मौका नही मिला मगर पिछले साल अपनी भतीज़ी का रिज़ल्ट लेने गया था और वैसा ही कुछ अनुभव हुआ था।कल ही मेरी भतीज़ी का स्कूल से बाहर निकलते समय खींचा गया फ़ोटो यंहा के अखबार के फ़्रंट पेज़ पर छपा था मैने उसे बताया तो वो लड़ पड़ी थी।आपने स्कूल की दिनों की याद ताज़ा कर दी अब कालेज के दिनों से निकल कर स्कूल की शैतानियों मे डूबने की इच्छा हो रही है।बहुत ही अच्छा चित्र खिंचा है आपने।
"आजकल स्कूल में अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं.. चेहरे पर मुस्कान और अच्छी अच्छी बातें …कितना भी नालायक हो आपका बच्चा हो पर वो उसमें भी खूबियाँ ढूँढ – ढूंढ कर आपको बताएँगे .."
विद्या कभी दान देने की वस्तु हुआ करती थी किन्तु आज बेचने खरीदने की वस्तु बन चुकी है। बेचने वाले को कस्टमर केयर का ध्यान रखना ही पड़ता है ना! नहीं तो उसकी दुकानदारी कैसे चलेगी?
True. Each and every word is true. Education has been customized.
pariveshiye prabhaw yahan bhi…….had ho gai
मैंने अपनी एक पोस्ट में लिखा था.. "समय बदल रहा है सर पहले सरस्वती जी के सुर होते थे अब माता लक्ष्मी की ताल होती है ओर सब बस उसी ताल पर बेताल नाचते रहते है.."
यही हो रहा है सब जगह आजकल..
bahut badhiya vyangya.
आप बहुत अच्छा लिखती हैं. वाकई आप महान हैं. शिक्षा तो इन्सान की बुनयादी जरुरत है. जिसके बिना जीवन ही अधूरा है.
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आजकल स्कूल में अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं
सहमत !
प्राइमरी का मास्टर
Parenting is really a tough job.
aaj shicha ka najariya badal gaya hai sabkuchh byavasayeek ho gaya hai aatamiya lagaav kee kamee hai achhi prastutee ke liye danyavaad
Hi..
Vyang Shikha ka padhkar ke..
Yaad aa gaya humko sab..
KG se Inter tak ki wo..
Bhuli bisri yaaden sab..
Pure saal nirdwand the rahte,
jab number kam aate the..
Gharwalon ko jab bulwayen..
Naye bahane banate the..
Papa bahar gaye hain mere,
Mummy ko bukhar hua..
Plage muhale main faila hai..
Har koi beemar hua..
Shikshak bhi jab plage ki sunte,
sab sach main ghabra jaate the..
Humko hi samjhakar ve sab..
Chhutti ve sab pa jaate the..
Aisa nahi ki har dam hi bas..
Yahi bahana chal jaata tha..
Kabhi kabhi fans bhi jaate the..
Juta hum par chal jaata tha..
Ab to daur hai badle yug ka..
Shiksha main vistaar hua..
Kal tak the vidya ke mandir..
Ab vidya-vyapar hua..
Faishon TV wali madam..
Sari main dikh jaati hain..
Abhibhavak se milti hanskar..
Bina baat muskaati hain..
Parents meeting main jaakar ke,
humko ye ahsaas hua..
Beauty peagent ke judge hum hon..
Aisa hi aabhas hua..
Bachchon ki mummy aur madam..
Dono aisi saji dhaji..
Baat padhai ki kya puchhen..
Najar lage bas bhatak rahi..
Sundar vyang,
DEEPAK..
बढ़िया पोस्ट…….."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
सच है शिखा जी. आज शिक्षकों की कोई गरिमा ही नहीं रह गई. ज़रा-ज़रा सी बात पर टीचर को दोष देना शगल बन गया है अभिभावकों का. यही वजह है कि बच्चे भी टीचर को यथोचित सम्मान नही देते. कुछ ऐसे शिक्षक भी है जिन्होंने शिक्षक-वर्ग की छवि बिगाडने का काम किया है. सुन्दर पोस्ट.
bilkul theek likha hai aapne .paise ne kya kya sikha diya hai .nkli hasna ,nakli musurana ,nakli shikshk aur nkli hi shiksha .
bahut suundar aur rochkta liye aalekh
शिखा जी अपन को गर्व है कि अपन ने हर शिक्षक से मार खायी है….भले ही प्यारी सी चपत ही क्यों न हो..हमारे माता-पिता कभी स्कूल नहीं गए. शिक्षक भी काफी दिल लगा कर प़ढ़ाते थे, जैसे अपने बच्चे को पढ़ाते थे…..पर अब वो बात कहां …..
ड़ी सटीक तस्वीर पेश की है, बिलकुल ऐसा ही है, पहले अच्छे स्कूल होते ही कितने थे? और हो होते थे इनके नियम कानून सख्त. अब तो ये एक धंधा बन गया है. जिनके पास काली कमी अधिक हुई , बढ़िया सी बिल्डिंग बनवा दी और लम्बी लम्बी AC बसें लगवा दी. इतने बड़े स्कूल में जाएगा और मोटी फीस आप जमा करेंगी तो किसी राजकुमार से कम शान से रहेगा. अब सब व्यापार है. डिग्री मिल जाती हैं, बस पैसा चाहिए. इसमें ज्ञान की जरूरत नहीं है.
shikha ji,
hamara saamjik aur aarthik parivesh itna badal gaya hai ki aapne yun to vyang likha hai par ye hakikat ban chuka hai. india me kai aise school hain jaha five star facility di ja rahi. teacher to bechare ban gay hain ab, bachche ko daant nahi sakte, khana khilana, sabhya susanskrit banana sab unki jimmewari.
bahut achha likha hai aapne, desh koi bhi ho haalaat ek hin hai.
shubhkaamnayen.
mere $50,000 wapis karo
Is this progress or we are heading towards catastrophe?
Something is amiss among Indians outside India.What's that?…Thats Our Indian culture !
When brain gets drained overseas, then we are bound to face such problems. Expats miss Indian education, system , culture, our teachers and their honest opinions about students…
Anyways, its the problem everywhere…Be it India , UK, Canada or anywhere on the earth.
People are living in fears and under huge pressure. In cut throat competition ERA, teachers are more worried about their job security and mental peace. They are unwilling to buy any kind of stress by being honest with parents regarding their wards.
In International schools specially, students are getting freedom , which is more than required. Students are pampered and spoiled.
Worried parents !….Do they have any option?
Yes they have !
Put your children in some better schools !
Better than International school?
Yes !…In Government colleges !
Otherwise…."Paisa phenk, tamaasha dekh"
Smiles !
Divya !
हमें तो अपने गाँव का प्राइमरी स्कूल याद आने लगा ,
'' क ख ग घ ङ / मुन्सी जी का टंगा | ''
सुन्दर विवेचन किया है ,
पहले कहाँ निःस्वार्थ भावना थी , '' पढ़ते सहस्रों शिष्य थे पर फीस
ली जाती नहीं /……….. बस भक्ति से संतुष्ट हो गुरुवर पढ़ते थे उन्हें || ''
— वही आज 'रिचुअल' प्रमुख हो गया है !
आभार !
दिल हमारा भी खिला
सम्मान आपको मिला
ढेरो अभिनन्दन
बहुत खूब स्पन्दन
AAPNE BILKUL SAHI FARMAYA HE.
Kya kahen?
Ramnavmi ki anek shubhkamnayen!
यह पढ़ के तो मज़ा आ गया पता नहीं ऐसा क्यों होता हैं की हम रोजाना बहस के लिये एक नया विषये चुन लेते हैं जब की एक और हमारे साहित्य वासुदेव कुटम्बकम का दावा करते हैं! ऐसे मैं देसी और विदेशी दोनों का महत्व क्या रह जाता हैं !
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