लन्दन – पुस्तकों की दुकानों, पुस्तकालयों , प्रकाशकों , लेखकों का शहर .लेकिन इस शहर में तीन में से एक बच्चा बिना अपनी एक भी किताब के बड़ा होता है.जहाँ ८५% बच्चों के पास उसका अपना एक्स बॉक्स ३६० है , टीवी पर अपना कण्ट्रोल है, पूरा कमरा खिलोनो से भरा पडा है, ८१ % के पास अपना मोबाइल फ़ोन है. परन्तु कहने को भी,अपनी खुद की एक भी पुस्तक नहीं है .
जब एक बच्ची से उसकी टीचर ने कक्षा में सबके साथ पढने के लिए एक पुस्तक घर से लाने को कहा तो वह बच्ची आर्गोस का (एक दूकान) कैटलोग लेकर आई कि उसके घर में सिर्फ एक यही पुस्तक है. .
शेक्सपियर भी जब आसमां से ज़मीं पर देखता होगा ….
जरा इन आंकड़ों पर गौर कीजिये –
लन्दन में तीन में से एक बच्चे के पास अपनी एक पुस्तक भी नहीं है ..
११ साल की उम्र में जब बच्चे प्राइमरी स्कूल से निकलते हैं तो २५% बच्चे ठीक से पढ़ और लिख भी नही पाते .
लन्दन में पढने वाले एक चौथाई बच्चे सेकेंडरी स्कूल छोड़ते समय भी आत्मविश्वास से पढ़ लिख नहीं पाते.
लन्दन में काम करने वाले वयस्कों में से एक मिलियन व्यस्क ठीक से पढ़ नहीं पाते और ५ % इंग्लैण्ड के व्यस्क का साक्षरता स्तर एक सात साल के बच्चे से भी कम है .
४० % बच्चे जब ११ साल की उम्र में सेकेंडरी स्कूल में आते हैं, तो उनका पढने का स्तर ६ से ९ साल के बच्चे जितना होता है .
लन्दन के स्कूल में २०% बच्चे स्पेशल नीड्स जैसे डायलेक्सिया के शिकार हैं.
और लन्दन की ४०% फर्म कहती हैं कि उनके कर्मचारियों के लिट्रेसी स्किल बहुत खराब हैं, जिससे उनके व्यापार पर नकारात्मक असर पड़ता है.( लन्दन इवनिंग स्टेंडर्ड से साभार.)
आखिर क्या वजह है कि एक ऐसा शहर जो शब्दों की दुनिया का केंद्र है. वहां ११ साल की उम्र तक के एक चौथाई बच्चे ठीक से पढ़ और लिख नहीं पाते.
गौरतलब है कि लन्दन के प्राइमरी स्कूलों में पुस्तक पढने ( रीडिंग स्किल )पर बहुत जोर दिया जाता है.हर बच्चे के लिए उसके स्तर की पुस्तकें उपलब्ध कराई जातीं हैं,उन्हें स्कूल और घर में पढने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है . उनके माता पिता से कहा जाता है कि बच्चे के साथ बैठकर रोज एक पुस्तक पढ़ें.और और धीरे धीरे उनका स्तर बढ़ाया जाता है.फिर क्या वजह है कि आंकड़े इतने खराब हैं.
इसके कारणों के तौर पर कहा जाता है कि –
लन्दन में बाहर से बहुत लोग आते हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती.ऐसे घरों से आये बच्चे पढने में अपने माता पिता की मदद नहीं ले पाते और उनके माता पिता अंग्रेजी पढने के प्रति उदासीन रहते हैं अत: वे कमजोर रह जाते हैं.
ज्यादातर टूटे हुए परिवारों में एक ही अभिभावक पर इतना अधिक बोझ होता है, वह अपनी जीविका कमाने में इतना व्यस्त होते हैं , कि वे चाह कर भी बच्चों के साथ बैठकर पुस्तक नहीं पढ़ पाते.
ज्यादातर माता पिता पुस्तक पढने को लेकर उदासीन होते हैं. उसे इतना महत्वपूर्ण नहीं समझते अत: बच्चों के कहने पर भी कि “आज लाइब्रेरी चलें” उनका जबाब होता है .”आज नहीं फिर कभी”.इससे बच्चे में भी पढने की आदत कभी विकसित नहीं हो पाती और नतीजा बहुत खराब होता है.
वजह जो भी हो लन्दन जैसे शहर के लिए साक्षरता का यह स्तर बेहद शर्मनाक होने लगा है. इससे जुडी संस्थाएं और अधिकारी इस बारे में खासे चिंतित नजर आने लगे हैं .और इसे सुधारने की भरपूर कोशिशें की जा रही हैं .
उम्मीद है कि सारी दुनिया को अपने शेक्सपियर की मिसालें देने वाला , सारी दुनिया के साहित्य पर अपनी धाक ज़माने वाला लन्दन अपने घर के बच्चों के साक्षरता स्तर को कुछ तो सुधार पायेगा . जिससे ऊपर बैठे शेक्सपियर को ज्यादा शर्मशार ना होना पड़े .
तस्वीरें गूगल से साभार
बहुत सही लिखा आपने.
आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर…यहाँ आपके ब्लॉग की कल होगी हलचल…
नयी-पुरानी हलचल
सादर
शिखा जी ,बढ़िया जानकारी …अगर हम भी अभी नहीं चेते तो ये स्थिति हमारे यहाँ आते देर नहीं लगेगी,सबसे खराब हालत बच्चो की हिंदी के साथ है ….
एक घटना -आजकल लोगों को अपने बच्चो के कठिन नाम रखने का शौक है हमारे जानने वालो के बेटे को क्लास में सभी बच्चों के नाम लिखने के लिए कहा गया …परिणाम .. विदुषी ,विद्वान, अश्लेष जैसे नाम नहीं लिख पाए
kafi vistrit sarvekshan hai… bahut kuch jana
aapne ko likha vo choukane wala hai .amerika ke school me bhi padhne par bahut jor dete hain akde to mere pas nahi hai pr yahan logon ke hath me sada aek pustak dekh kar aesa laga hai ki sabhi bahut padhte hain
pr hakikar ka pata nahi .
mujhe lagta hai log is disha me sochna shuru karenge aye halat sudhr jayenge
bahut khoob likha hai
rachana
उम्मीद है कि सारी दुनिया को अपने शेक्सपियर की मिसालें देने वाला , सारी दुनिया के साहित्य पर अपनी धाक ज़माने वाला लन्दन अपने घर के बच्चों के साक्षरता स्तर को कुछ तो सुधार पायेगा .
-उम्मीद तो की ही जा सकती है..अब तो शादी ब्याह भी निपट गया. 🙂
बेहतरीन आलेख.
बिलकुल ठीक कह रही हो सोनल ! हम एड्वंसियत के चक्कर में और पिछड़ते जा रहे हैं.
हमारे कई मित्र हैं जो विदेशों से वापिस लौट आये हैं कि वहां बच्चों की पढाई नहीं हो रही…. जिसमे से के मित्र लन्दन से लौटा है…एक थाईलैंड से…. जब हमारे गाँव से कोई आता है तो कहता है बच्चों को गाँव भेज दो वहां मन लगा के पढ़ेगा… बात यह है कि पढाई आपके फोकस में कितना है.. बढ़िया आलेख…
* हम पश्चिम का अंधानुकरण करके अपने को मॉडर्न और एडवांस कहलाना पसंद करते हैं।
** आंकड़े चौंकाने वाले हैं।
*** सोनल का पक्ष भी बहुत पसंद आया .. “आजकल लोगों को अपने बच्चो के कठिन नाम रखने का शौक है हमारे जानने वालो के बेटे को क्लास में सभी बच्चों के नाम लिखने के लिए कहा गया …परिणाम .. विदुषी ,विद्वान, अश्लेष जैसे नाम नहीं लिख पाए”
शिखा जी बहुत अच्छी जानकारी दी आंकड़े साथ में अब तो मानना ही पड़ेगा मगर हम भारतीय फिर भी विदेश की ओर रुख करते है मतलब उनका भी हाल आपने जैसा है |
अरे आश्चर्यजनक ,कभी जाना नहीं ऐसा !
बहुत रोचक जानकारी दी है आपने शिखा जी ,वाकई यह हालात धीरे धीरे अपने यहाँ भी बनने लगे हैं खासकर हिंदी को ले कर ….
एक निवेदन है शिखा जी … जो संभव हो तो इस आलेख को अंग्रेजी में अनुवाद कर वहाँ के गुणी जनों को भी दिखा और पढ़वा दें ( अगर वो पढ़ना जानते हो तो ) …
एक बेहद उम्दा आलेख … बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
शिवम जी! ये आंकड़े यहीं के समाचार पत्र से लिए हैं मैंने .तो जाहिर है उन्हें तो पता होंगे ही.
अच्छी जानकारी ……हैरान कर रहे हैं आंकड़े ….
आश्चर्यजनक रूप से चौंकाने वाले आंकड़े हैं. खुदा खैर करे.
अंग्रेज लोग तो किताबे पढने के लिए मशहूर थे अब क्या हुआ ? लगता है इलेक्ट्रोनिक माध्यम ने वहाँ के बच्चो में किताबो के माध्यम से पढाई पर से विश्वास उठा दिया है . जब बच्चो को लैपटॉप और वर्चुअल कक्षा में ही पढाई करनी है तो किताबो का क्या काम. हमारे मास्साब कहते थे . "मुझे क्या काम दुनिया से मदरसा है वतन अपना , मरेंगे हम किताबो में सफे होगे कफ़न अपना ". अब मास्साब की ये सीख पुरातनपंथी जैसे लगने लगी है .हिंदुस्तान में बच्चो के बस्ते भारी हो रहे है और लन्दन में किताबे गायब . राम ही राखे . सुँदर और जानकारीपूर्ण आलेख .फूटू में बचवा तो कितना शौक़ीन है पढने का . कार्टून ढूंढ़ रहा होगा .या फिर सुडोकू .
हिन्दुस्तान में आए दिन एक आम हिन्दुस्तानी लोर्ड मेकोले को गरियाता हुआ मिल जाता है जिसने यहाँ अंग्रेज़ी तालीम की बुनियाद राखी थी.. उसके खुद के मुल्क की ये हालत… ताज्जुब होता है!!
इस से खुश होने की जरूरत नहीं है। हमारे यहाँ स्थिति इस से बहुत बहुत बुरी है।
बहुत ही श्रम साध्य आंकड़े हैं आपके किन्तु चौकाने वाले भी. बहुत खूब शिखा जी.
सादर
श्यामल सुमन
+919955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
भारत में बच्चों की पीठ दुहरी हो जाती है बस्ता उठाने से… पन्द्रह किलो का बच्चा दस किलो का बस्ता. प्रवीण पाण्डेय जी ने एक पोस्ट भी लिखी है. और साक्षरता का मतलब हस्ताक्षर कर लेना भर.
आत्मा चीत्कार कर रही होगी उनकी भी।
यह तो बिल्कुल नवीनतम जानकारी है …और उस पर सोनल जी की टिप्पणी भी आगाह कर रही है ..भारत में तो बच्चे के वज़न से ज्यादा वज़न बस्ते का होता है …
अच्छी पोस्ट
nice
आशा के विपरीत लगा।लंदन जैसे शहर में शिक्षा का स्तर इतना गिरा हुआ है.पता नही था.पोस्ट पढ़कर जानकारी बढी। धन्यवाद।
हम तो कुछ और ही सोच रहे थे, यह तो दूर के ढोल सुहावने हुआ.
बहुत ही अफ़सोस और आश्चर्य की बात है… लन्दन जैसी जगह के यह हाल हैं….
परिवारों के टूटने से कितनी समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं, यह हमारा समाज अभी भी नहीं समझ पा रहा है। काश इसे शीघ्र समझ आए और बच्चे एवं वृद्ध मिलकर अपना स्वाभाविक जीवन जी पाएं। वैसे भी कम्प्यूटर के कारण सभी जगह पुस्तकों के प्रति रुचि कम हुई है।
चौंकाने वाली जानकारी दी है आपने …..
क्या यह वही लोग हैं जिन्होंने अपनी बुद्धि और चालाकी के बल पर हमको सैकड़ों साल गुलाम बनाये रखा …आज उनकी दुर्दशा जानकार यकीन नहीं होता !
खैर हम तो उन्हें शुभकामनायें देना चाहेंगे की वे अपनी अगली पीढ़ी को इस लायक बनाएं कि उनपर कोई कब्ज़ा न कर सके !
आभार इस जानकारी के लिए !
ओह तो ये वजह है कि क्यों अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश भारत के बच्चों से डरे हुए हैं….
जय हिंद…
कारण पढने के बाद तो नतीजा साफ समझ आता है।
उम्दा जानकारी दी शिखा जी । अफ़सोस हुआ जानकार की इतने विकसित देश में शिक्षा का ये स्तर है।
very unfortunate…
I would have never thought about it. Thanks for sharing.
sochniye prastuti!
fir bhi ham log aaj bhi higher study ke liye west ka rukh karte hain! jahan ki jade itni khokli ho chuki hain!
सब कुछ छोडकर मज़ा आ गया आखिर की तस्वीर देखकर …………और तुम कह रही हो वहाँ साक्षरता के मामले कम है देखो तो बेचारा कहाँ पढ रहा है कोई जगह नही छोडता पढाई के लिये………।
बहुत अच्छा आलेख है, शिक्षा की स्थिति और आंकड़े चौकाने वाले और दुखद हैं. शुभकामनाएं.
इस सच्चाई से अवगत कराने के लिये आपका यह आलेख अच्छा लगा …।
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (11.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये……"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
very Nice article.
आश्चिर्यत करनेवाले तथ्य .. चिंतन का विषय है ये !!
ओह ..इतने मुर्ख लोग हैं वहां? जल्द्दी से अपने बच्चों को वापस बुला लेना चाहिए…नहीं तो सारे-के-सारे मैकाले जैसे मुर्ख हो जायेंगे…हासिये मत….ठीक कह रहा हूँ मैं.
पंकज झा.
शिखा जी
आश्चर्यजनक
……..बढ़िया जानकारी
कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
इसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
जानकारी भरी बढ़िया पेस्ट लगाई है आपने!
लंदन ही क्या, कमोवेश सभी जगह यही हाल है.
इसी स्थिति के मद्देनज़र…
हमारे बच्चे जब छोटे थे तो हम कुछ बाल-पुस्तकें/बाल-पत्रिकाएं उनके आस पास ज़रूर छोड़ देते थे. पढ़े न पढ़ें हम नहीं कहते थे. जब वे बाक़ी चीज़ो से बोर हो जाते थे तो खुद ही उन्हें पलट लेते थे. एन्साइक्लोपीडिया कंप्यूटर पर तो था पर प्रिंट में भी रखा जिसके चलते, सोने से पहले वे अपने आप ही उसे खंगालते रहते थे. आज उन्हें पढ़ने की आदत है, बाक़ी संसाधन उनके लिए कोई बहुत ज़्यादा ज़रूरी नहीं रहे हैं.
Dubai mein to saxch mein padhaai ka star jyaada achhaa nahi .. par jahan tak pustakon ki baat hai … jyaada ya kam ab sabhi jagah se sthiti aati ja rahi hai … teji ki hod lagi hai …
are angreji to bol lete hain na… aur jyada kya chahiye jeevan me safalta ke liye… unhen yahan bhej do.
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अजीब बात है, पर क्या किया जा सकता है,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
अफ़सोस हुआ जानकार की इतने विकसित देश में शिक्षा का ये स्तर है।
shikha ji
waqai me aapki yah jankari achhambhit kar dene wali hai .fir to isme sudhar lane ki jitni bhi koshhishe ho unhe takal hi lagu kiya jana chahiye.ye to yahi hua jaise yaha ke angnreji madhyam se padhne wale bahut se topper bachcho ko bhi hindi jaise vishhhay par kam ank aksar hi prapt hue milte hain.
agar aaj kisi bachche se hindi ki puri varn-mala puchhli jaye to aousatan bahut hi kam bachche honge jo pura bata payenge.
aapki jankari bahut hi prbhavpurn
sanketik bhi hai
bahut bahut dhanyvaad
poonam
यदि लंदन के ऐसे आँकड़े हैं, तो लगता है कि पूरे इंग्लैंड की स्थिति कुछ इसी प्रकार की होगी और भारत की शैक्षणिक स्तर से काफी कुछ मिलता-जुलता है। आभार।
jaandaar….
ताई कह रही थी रमलु से कि "इंग्लैंड के तो छोटे-छोटे बच्चे भी इन्टलिजेंट हैं, सारे ही अंग्रेजी बोला करें।"
आपकी पोस्ट से ताई का भरम टूट जाएगा 🙂
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी (कोई पुरानी या नयी ) प्रस्तुति मंगलवार 14 – 06 – 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ …शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच- ५० ..चर्चामंच
बहुत ही आश्चर्य की बात है… लन्दन जैसी जगह के यह हाल हैं….बढ़िया आलेख…
very informative…
सचमुच, ये तो चौंकाने वाला तथ्य है…
bahut hi sudar aur jankari bhara aalekh…
क्या बात है। बहुत बढिया
उपयोगी जानकारी, पत्रकारिता के धर्म को निभाती! आप प्रत्यक्ष-दर्शी बनकर लिखती हैं, इसलिये एप्रोच जेनुइन रहता है बहुधा! आभार!!
बहुत आश्चर्यजनक जानकारी…भारत में हालात फिर भी अच्छे हैं, क्यों कि माता पिता इस ओर काफी ध्यान देने लगे हैं..
अमरीकियों की निरक्षरता के कुछ उदहारण पढने मिले थे लेकिन चिराग तले अँधेरा. आभार.
हे भगवान!!!
अक्सर मल्लाह के हुक्के मे पानी नही होता।
जानकारीपूर्ण लेख…………..
हम तो समझते थे कि अपना भारत ही ….
😮
wahan bhi aise haalaat hain..!! lekin chalo, phir bhi ham to is maamale mein unse aage hi hain..!! 😉 🙁
sonal ji ne bahut sahi baat uthaai hai..mere saath padhne walon mein bhi kai aise hain jo apne naam tak ki sahi vartanii nahin jaante…puchhne par kahte hain unke mata-pita ne to aise hi likhna-bolna sikhaya hai bachpan se..to matlab ye hua ki yahan to haalat aur zyada buri hai…
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