पहले जब वो होती थी
एक खुमारी सी छा जाती थी
पुतलियाँ आँखों की स्वत ही
चमक सी जाती थीं
आरक्त हो जाते थे कपोल
और सिहर सी जाती थी साँसें
गुलाब ,बेला चमेली यूँ ही
उग आते थे चारों तरफ.
पर अब वह होती है तो
कुछ भी नहीं होता
ना राग बजते हैं
ना फूल खिलते हैं
ना हवा महकती है
ना साँसें ही थमती हैं
हाँ
अब उस “आहट” के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं .
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अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है.
सुन्दर रचना. हाँ शायद संवेदनाएं लुप्त होती जा रही हैं.
हाँ अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता ….
मन की एक अवस्था …
अलग-सी ,,
लेकिन
जानी-पहचानी भी ….
अच्छी अभिव्यक्ति है .
ओह , यह आहट भी न क्या क्या एहसास करवा देती है ….लेकिन शायद वक्त के साथ मानव मशीन बन गया है …लेकिन तुम्हारे एहसासों में एक बात अच्छी है की संवेदनाएं बस सुप्त हुई हैं ….तो कभी भी ये आहट फिर से ऐसा मंज़र पेश कर सकती हैं …वरना होता तो यह है की संवेदनाएं शायद मर ही जाती हैं ..
अब उस आहट के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं…
वास्तविकता के गगन में कल्पनाओं की कलात्मक उड़ान को प्रदर्शित करती हुई एक उत्तम कविता।
दिल की गहराई से निकली अभिव्यक्ति , कुछ ऐसे भाव है जो महसूस किया जा सकते पूरी संवेदना के साथ , उन्हें आपने शब्द दे दिये . रही बात संवेदनाओ की सुषुप्तावस्था की तो वो एकदिन निद्रा से जागेगी और फिर चारो तरफ फिर से गुलाब और बेला . उत्कृष्ट भाव पूर्ण रचना .
सुन्दर प्रस्तुति
जीवन मे ऐसा पडाव भी आता है
जब संवेदनाये सुप्त हो जाती है
शिखा जी! जो कुछ कहा आपने वो सच है… दुआ है कि झूठ हो जाए सब.. मृत होती सम्वेदनाएँ और नाज़ुक आहटों का गुम हो जाना किसी शोर में. एक सच्चाई लफ्ज़ ब लफ्ज़ आपने बयान की है. हेड टेल करके देखता हूम कि आपके संस्मरण अच्छे होते हैं कि आपकी कविताएँ… और मेरा दावा है सिक्का किनारे पर गिरेगा.. न हेड न टेल!!
Shikha di..achhi kavita hai..par shayad bahut achhi ho sakti thi… Uske 'hone' aur 'hone' beech bahut kuch chhupa gayeen aap lagta hai… 🙂
हाँ शायद ………
उम्र का असर तो नहीं 🙂
samvednao ka lupt hona shayad manav jeevan ki sabse badi trasdi hoti hai.samvedna ka swaroop badalta rahta hai.aap ki kavita sochne ke liye majboor karti hai. sarthak prayas !
क्या अब उसके होने का कोई महत्व नहीं ????
ये तो चिंता का विषय मालूम होता है… उम्मीद है ये महज एक कल्पना है, हकीकत नहीं…
बहुत ही हृदय्स्पर्सी और दिल को छु लेने वाली कविता . संवदनाओं का मरना बहुत ही दुखदायी होता है. आज के इस व्यस्त दुनिया मे किसी की संवदनाओं को एहसास करने के लिए न ही किसी के पास समय है और न ही किसी के पास मन की चाह .
अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं .
वक्त का तकाज़ा है, यह…कुछ भी एक सा कहाँ रहता है जो संवेदनाएं या अहसास एक से रहेंगे
सुन्दर अहसासों से लबरेज़ कविता
पहले जब वो होती थी
एक खुमारी सी छा जाती थी
पुतलियाँ आँखों की
स्वत ही चमक सी जाती थीं
आरक्त हो जाते थे कपोल
और सिहर सी जाती थी साँसें गुलाब ,
बेला चमेली यूँ ही उग आते थे चारों तरफ
यहां तक की स्थिति पर एक शेर याद आता है-
आहट पे कान, दर पे नज़र, दिल में इश्तियाक़
कुछ ऐसी बेखुदी है तेरे इंतज़ार में.
sab kah gaye… par abhi us aahat kaa intzaar to rehta hai naa
.
@–बेला चमेली यूँ ही उग आते थे चारों तरफ..
—
'उग आते' की जगह 'खिल जाते ' होता तो शायद बेहतर लगता। उग आना अक्सर काँटों या खर पतवार के लिए इस्तेमाल होते देखा है । फूलों के लिए 'खिलना' ही ज्यादा उपयुक्त लगता है।
भावुक करती हुई सुन्दर रचना के लिए बधाई।
.
आरक्त हो जाती थीं कपोल,
और सिहर जाती थीं सांसे।
ख़ूबसूरत पंक्तियां। मुबारकबाद।
हाँ
अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं .
Na jane aisa kyon hota hai…par hota aisa hee hai! Shayad mil jaye to mittee hai?Bahut samvedansheel lekhani hai aapki!
संवेदनायें बार बार जगती हैं।
4.5/10
सुन्दर प्रयास
दिन रात हम यंत्रों के साथ रहकर स्वयं भी यन्त्र की मानिंद हो गए लगते हैं.
कुछ अलग ही अंदाज और भाव…अच्छा लगा.
आदरणीया,
९ / १०
सुन्दर प्रयास के लिए अच्छे अंक !
क्या आप जानते हैं कि उस्ताद जी मोहल्ला होशियारपुर ग्राम लखनऊ में रहते है ?
सही कहा , संवेदनाएं लुप्त होती जा रही है 🙁
बहुत सुंदर कविता ….. हर पंक्ति कमाल है…. औए संवेदनाएं तो सच अब गुम ही हो गयी है….
अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं
…..या फिर शायद कान कम सुनने लगे हैं, आहट सुनायी ही नही देती।
मजाक एक तरफ, लेकिन अच्छी रचना है।
awesome… simply…
दी,कल ही पढ़ लिया था ये कविता…जब आप लिखीं थी उसी वक्त..लेकिन उस समय बिलकुल समझ में नहीं आया क्या लिखूं….
अभी भी नहीं आ रहा है..बहुत से कविताओं पे क्या लिखूं मैं समझ नहीं पाता…
कल सोचा की बस "बहुत उम्दा" कह के चला जाऊं..लेकिन बस वो दो शब्द कह के चले जाने का दिल नहीं किया 🙂
Bahut hi sundar abhivyakti..
haan shayad samvednai supt ho gayi hain.
thanks mere blog par aane ke liye,aise hi aate rahe.
संवेदनाएं लुप्त नहीं मौन हो जाती हैं मगर फिर फिर उभरती हैं और ढूँढने लगती हैं वही आहटें ,
ऐसा भी होता है कभी कभी…………यही तो वक्त के खेल होते हैं……………सुन्दर अभिव्यक्ति।
ये आहट बड़ी जानी पहचानी सी लगती है। उधर कैसे पहुंच गई!
एक ये भी वक़्त आता है ज़िन्दगी में … बहुत गहराई लिए है रचना ….बेहतरीन प्रस्तुति …
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! हार्दिक शुभकामनाएं!
लघुकथा – शांति का दूत
सुन्दर कविता है शिखा जी. सम्वेदनाएं सचमुच ही सुप्त हो गईं हैं अब.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति शिखा जी …
बेहतरीन रचना………… सुंदर प्रस्तुती …………
well Panned your Pain
सब समय का फेर है। क्या करें? इसलिए ही कहते हैं कि रिश्तों को हमेशा सींचते रहना चाहिए, नहीं तो वे भी पौधों की तरह सूखकर बेजान हो जाते हैं।
सुप्त संवेदनाएं … पर क्या कभी सुप्त हो सकती हैं वे … क्या दिल के जज़्बात मर सकते हैं कभी ….
Samay ke anusaar beshak sanvednayen lupt ho gayee hon…….:(
lekin aapki samvedna……..uske kya kahne……wo to bahut pahle ke beetaye palo ko yaad rakhti hai, aur usko sabdo me utarti chali jaati hai…:)
U r simply awsome…:)
bahut sundar hindi shabdon se likhi ek sundar kavita namaste
धीरे धीरे संवेदनायें लुप्त हो रही हैं— आहट भी जानी पहचानी सी हो जाती है– शायद मन की ये अवस्था सब पर आती है उम्र के साथ लेकिन तुम्हारी तो उम्र भी अभी कम है। वैसे आज के आदमी के मनोभावों को अच्छे से शब्द दिये हैं। बधाई।
अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं .
…सच को सुन्दर शब्दों में ढाला…बधाई.
बहुत ही अच्छी रचना ..दिल को छूती हुई ..
गीत ग़ज़ल पर पढ़े कैसा हो गया मेरा गांव
बहुत सुन्दर……गहरी अभिव्यक्ति……….
परिवर्तन यथार्थ के धरातल पर। कभी कभी जीवन का सच ऐसा भी होता है।
zeal का संकेत सही लगता है। शब्दों का तालमेल सुसंगत होता है तभी अच्छा लगता है।
गुण दोषों के साथ सार्थक कविता।
आभार।
Zeal और हरीश जी !आपका कहना ठीक है. तकनिकी तौर पर उग आना खर पतवार के लिए ही उपयोग होता है और फूल खिलते हैं.परन्तु यहाँ फूलों का उगना मैंने एक खास मकसद से इस्तेमाल किया है.खिलना बताता है की पहले से बेला चमेली थे और खिल गए …यहाँ अचानक से उग आये से मतलब है
की आहट सुनते ही एक दम ऐसी प्रतिक्रिया हुई यानि किसी एहसास विशेष से फूल भी अनायास ही खरपतवार की तरह कहीं भी उग आते थे.
वैसे भी कवि मन कब किसी सीमा में बंधा है 🙂 बहुत शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया का.
शिखा जी
बहुत सही पहचाना आपने , आज के दौर में संवेदनाएं सुप्त हो गयी हैं .आदमी का नजरिया बदला है रिश्तों की एहमियत बदली है ..अब काफी हद तक ओपचारिकता का निर्वाह किया जाता है ..शुक्रिया
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
कुछ तो हुआ है …कुछ हो गया है…
तुम बदल गए हो….या वो बदल गया है…????
डा. साहिबा की बात पर गौर फरमाएं जनाब वर्ना सुप्तावस्था लुप्तावस्था हो जायेगी. :):):)
बहुत सुंदर कविता-
आपना ही मन -कैसे बदल जाता है ?
और क्यूँ …?
एक छाप छोड़ गयी आपकी कविता ..!
अनेक शुभकामनाएं
सुंदर अभिव्यक्ति.
बहुत सुंदर कविता दिल को छू लेने वाली रचना, बधाई
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ……..
शिखा जी,
आपकी कविता ने मन की सुप्त संवेदनाओं को जगा दिया !
कविता के भाव बहुत ही गहरे हैं ! उगने और खिलने का अंतर आपकी कविता को नए आयाम देता है !
बहुत ही सुन्दर रचना !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
हाँ अब उस "आहट" के होने से
कुछ असर नहीं होता मुझपर
शायद संवेदनाये सुप्त हो चुकी हैं …..!
samay ke sath chalti hui rachna.bhawnaon ka sunder chitran.
हां शायद… बहुत सुन्दर कविता है
आपकी कविताओ में भावबिम्ब खूब बोलते है और संस्मरण में द्रवित कर देने वाली तुल्य अभिव्यक्ति….मुझे लगता है पंक्तियों का सृजन भाव या तो वेदना होती है या प्रेरणा…. जो जितना ज्यादा भावुक होता है वो उतना ही ज्यादा कुछ व्यक्तय कर पाता है….रोना भी एक सृजन है और यह आत्ममुग्धता की मौनता को तोड़ता है चाहे वह व्यथा हो, उन्माद हो, गुस्सा हो, प्रेम हो, कुंठा हो …अपना व्यक्त होने का रास्ता बना ही लेता है …और शायद ऐसा ही है आपका सृजन जो गहरे दिल तक असर कर भेद देता है …शुभकामनायें….
I do not even know how I ended up here, but I thought this post was great. I do not know who you are but definitely you’re going to a famous blogger if you are not already 😉 Cheers!
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आपकी लिखी रचना “सांध्य दैनिक मुखरित मौन में” आज गुरुवार 22 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है…. “सांध्य दैनिक मुखरित मौन में” पर आप भी आइएगा….धन्यवाद!
बहुत शुक्रिया
बढ़िया भाव!