जी हाँ,मेरे पास नहीं है पर्याप्त अनुभव शायद जो जरुरी है कुछ लिखने के लिए नहीं खाई कभी प्याज रोटी पर रख कर कभीनहीं भरा पानी पनघट पर जाकर बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, कुआं और बरगद का चबूतरा सब फ़िल्मी बातें हैं मेरे लिए “चूल्हा” नाम ही सुना है सिर्फ मैंने और पेड़ पर चढ़ तोड़ना आम एक एडवेंचर,एक खेल जो कभी नहीं…
मैंने अलगनी पर टांग दीं हैं अपनी कुछ उदासियाँ वो उदासियाँ जो गाहे बगाहे लिपट जाती हैं मुझसे बिना किसी बात के ही और फिर जकड लेती हैं इस कदर कि छुड़ाए नहीं छूटतीं ये यादों की, ख़्वाबों की मिटटी की खुश्बू की उदासियाँ वो बथुआ के परांठों पर गुड़ रख सूंघने की उदासियाँ और खेत की गीली मिटटी पर बने स्टापू की…
मेट्रो के डिब्बे में मिलती हैतरह तरह की जिन्दगी ।किनारे की सीट पर बैठी आन्नाऔर उसके घुटनों से सटा खड़ा वान्या आन्ना के पास वाली सीट केखाली होने का इंतज़ार करताबेताब रखने को अपने कंधो परउसका सिरऔर बनाने को घेरा बाहों का।सबसे बीच वाली सीट परवसीली वसीलोविच,जान छुडाने को भागतेकमीज के दो बटनों के बीच घड़े सी तोंद पे दुबकते सन से बाल रात…
मुझसे एक बार जिंदगी ने कहा था पास बैठाकर। चुपके से थाम हाथ मेरा समझाया था दुलारकर। सुन ले अपने मन की, उठा झोला और निकल पड़। डाल पैरों में चप्पल और न कोई फिकर कर। छोटी हैं पगडंडियां, पथरीले हैं रास्ते, पर पुरसुकून है सफ़र. मान ले खुदा के वास्ते। और मंजिल ? पूछा मैंने तुनक कर. उसका…
कहते हैं, गरजने वाले बादल बरसते नहीं पर यहाँ तो गर्जन भी है और बौछार भी जैसे रो रहे हों बुक्का फाड़ कर. चीर कर आसमान का सीना धरती पर टपक पड़ने को तैयार. बताने को अपनी पीड़ा. कि भर गया है उनका घर उस गहरे काले धुएं से जो निकलता है धरती वालों की फैक्ट्रियों से. दम घुटता है…
ऐसा भी होता है आजकल … चलिए सुन ही लीजिये.. 🙂 आवाज ….??, हमारी ही है. अब हमारे ब्लॉग पर अपनी आवाज देने का और कौन रिस्क लेगा 🙂 . दोस्तो!!! लन्दन का मौसम आजकल बहुत प्यारा है ऐसे में टूरिस्टों का बोलबाला है इसी दौरान हमारी एक मित्र भी भारत से पधारी उनके स्वागत में हमने की सारी तैयारी …
मन उलझा ऊन के गोले सा कोई सिरा मिले तो सुलझाऊं.दे जो राहत रूह की ठंडक को, शब्दों का इक स्वेटर बुन जाऊं. बुनती हूँ चार सलाइयां जो फिर धागा उलझ जाता है सुलझाने में उस धागे को ख़याल का फंदा उतर जाता है. चढ़ाया फिर ख्याल सलाई पर कुछ ढीला ढाला फिर बुना उसे जब तक उसे ढाला रचना में तब तक मन…
मुझे नफरत है नम आँखों से मुस्कुराने वालों से मुझे नफरत है दिल के छाले छिपा जाने वालों से। मुझे नफरत है ऍफ़ बी पर गोलगप्पे से सजी प्लेट की तस्वीर लगाने वालों से नफरत है मुझे रोजाना चाट उड़ाने वालों से। मुझे नफरत उनसे भी है जो पानसिंह तोमर देखने के बाद नुक्कड़ की दुकान पर दही – गुलाब जामुन…
कैसे कहूँ मैं भारतीय हूँ क्यों करूँ मैं गुमान आखिर किस बात का क्या जबाब दूं उन सवालों का जो “इंडियन” शब्द निकलते ही लग जाते हैं पीछे … वहीँ न , जहाँ रात तो छोड़ो दिन में भी महिलायें नहीं निकल सकती घर से ? बसें , ट्रेन तक नहीं हैं सुरक्षित क्यों दूधमुंही बच्चियों को भी नहीं बख्शते…
एक मित्र को परिस्थितियों से लड़ते देख, उपजी कुछ पंक्तियाँ पढ़ा था कहीं मैंने किसी का लिखा हुआ कि “शादी में मिलता है गोद में एक बच्चा एक बहुत बड़ा बच्चा”. अक्षम हो जाते हैं जब उसे और पालने में उसके माता पिता, तो सौंप देते हैं एक पत्नी रुपी जीव को. जिसे देख भाल कर ले आते हैं वे किसी…