कल रात किवाड़ के पीछे लगी खूंटी पर टंगी तेरी उस कमीज पर नजर पड़ी जिसे तूने ना जाने कब यह कह कर टांग दिया था कि अब यह पुरानी हो गई है. और तब से कई सारी आ गईं थीं नई कमीजें सुन्दर,कीमती, समयानुकूल परन्तु अब भी जब हवा के झोंके उस पुरानी कमीज से टकराकर मेरी नासिका में…
सभी साहित्यकारों से माफी नामे सहित . कृपया निम्न रचना को निर्मल हास्य के तौर पर लें. आजकल मंदी का दौर है उस पर गृहस्थी का बोझ है इस काबिल तो रहे नहीं कि अच्छी नौकरी पा पायें तो हमने सोचा चलो साहित्यकार ही बन जाएँ रोज कुछ शब्द यहाँ के वहां लगायेंगे और नए रंगरूटों को फलसफा ए लेखन सिखायेंगे कुछ नए…
आजकल हर जगह अन्ना की हवा चल रही है .बहुत कुछ उड़ता उड़ता यहाँ वहां छिटक रहा है.ऐसे में मेरे ख़याल भी जाने कहाँ कहाँ उड़ गए .और कहाँ कहाँ छिटक गए…. क्षणिकाएं …….. अपनी जिंदगी की सड़क के किनारों पर देखो मेरी जिंदगी के सफ़े बिखरे हुए पड़े हैं है परेशान महताब औ आफताब ये शब्बे सहर भी मेरे तेरे…
कभी कभी तो लगता है कि हम लन्दन में नहीं भटिंडा में रहते हैं (भटिंडा वासी माफ करें ) वो क्या है कि हम घर बदल रहे हैं और हमारी इंटर नेट प्रोवाइडर कंपनी का कहना है कि उसे शिफ्ट होने में १५ दिन लगेंगे .तो जी १८ मार्च तक हमारे पास नेट की सुविधा नहीं होगी.और हमारा काला बेरी…
रोज जब ये आग का गोला उस नीले परदे के पीछे जाता है और उसके पीछे से शशि सफ़ेद चादर लिए आता है तब अँधेरे का फायदा उठा उस चादर से थोड़े धागे खींच अरमानो की सूई से मैं कुछ सपने सी लेती हूँ फिर तह करके रख देती हूँ उन्हें अपनी पलकों के भीतर कि सुबह जब सूर्य की गोद…
तू बता दे ए जिन्दगी किस रूप में चाहूँ तुझे मैं? क्या उस ओस की तरह जो गिरती तो है रातों को फ़िर भी दमकती है. या उस दूब की तरह जिसपर गिर कर शबनम चमकती है. या फिर चाहूँ तुझे एक बूँद की मानिंद . निस्वार्थ सी जो घटा से अभी निकली है. मुझे बता दे ए जिन्दगी किस रूप में चाहूँ तुझे मैं.…
बसंत पंचमी ( भारतीय प्रेम दिवस ) बीत गया है ,पर बसंत चल रहा है और वेलेंटाइन डे आने वाला है ..यानी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन ..अजी जनाब खिले ही नहीं है बल्कि दामों में भी आस्मां छू रहे हैं ,हर तरफ बस रंग है , महक है ,और प्यार ही प्यार बेशुमार . …वैसे मुझे तो आजतक…
. आज इन पलकों में नमी जाने क्यों है रवानगी भी इतनी थकी सी जाने क्यों है जाने क्या लाया है समीर ये बहा के सिकुड़ी सिकुड़ी सी ये हंसी जाने क्यों है. खोले बैठे हैं दरीचे हम नज़रों के आती है रोशनी भी उन गवाक्षों से दिख रहा है राह में आता हुआ उजाला बहकी बहकी सी ये नजर जाने क्यों…
जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी ,या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम. जिन्दगी को बहुत सी उपमाएं दी जाती हैं मसलन – जिन्दगी एक जुआ है , जिन्दगी एक सफ़र है , जिन्दगी भूलभुलैया है आदि आदि .पर पिछले दिनों एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप में नजर आई…
वैसे तो हमारे देश में घोटालों की कोई एक परिभाषा नहीं ,कोई सीमा नहीं है. हमेशा नए नए और अनोखे से नाम कानो में पड़ जाते हैं. परन्तु पिछले दिनों कुछ इसतरह के मामले सुनने में आये कि लोकतंत्र से ही विरक्ति सी होने लगी है .लोकतंत्र के सबसे मजबूत खम्भे पर बैठे लोग हों या हाथ में कलम की…