काव्य

सर उठा रहा भुजंग है  क्रोध, रोष, दंभ है  बेबस है लाल भूमि के  शत्रु हो रहा दबंग है  फलफूल रहा आतंक है  और सो रहा मनुष्य है  अपनी ही माँ की छाती पर  वो उड़ेल रहा रक्त है  जिन चक्षु में था नेह भरा वो पीड़ा से आज बंद हैं  माँ कहे मुझे नहीं देखना  मेरी कोख पर लगा…

नजरें. कुछ और कह रही लब की अलग कहानी है देते आगे से मिश्री और पीछे हाथ में आरी है कोई बड़ा हुआ है कैसे और कोई कैसे चढ़ा हुआ है खींचो पैर गिराओ भू पर ये किस की शामत आई है. . रख कर पैर किसी के सर बस अपनी मंजिल पानी है. है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.…

उगता सूर्य कल यूँ बोला, चल मैं थोडा ताप दे दूं  ले आ अपने चुनिन्दा सपने कुछ धूप मैं उन्हें दिखा दूँ   उल्लासित हो जो ढूंढा  कोने में कहीं पड़े थे,  कुछ सीले से वो सपने निशा की ओस से भरे थे. गत वो हो चुकी थी उनकी  लगा श्रम बहुत उठाने में  जब तक टाँगे बाहर आकर  सूरज जा…

नया साल फिर से दस्तक दे रहा है …और हम फिर, कुछ न कुछ प्रण कर रहे हैं अपने भविष्य के लिए ….कुछ नाप तोल रहे हैं ..क्या पाया ? क्या खोया ? ये नया साल जहाँ हम सबके लिए उम्मीदों की नई किरण लेकर आता है ,वहीँ हम सबको आत्मविश्लेषण का एक मौका भी देता है….ये बताता है की…

यहाँ आजकल बर्फ पढ़ रही है तो उसे देखकर कुछ ख्याल आये ज़हन में view from my house window . छोटे छोटे रुई के से टुकड़े गिरते हैं धुंधले आकाश से और बिछ जाते हैं धरा पर सफ़ेद कोमल चादर की तरह तेरा प्यार भी तो ऐसा ही है, बरसता है बर्फ के फाहों सा और फिर …… बस जाता है…

सागर भरा है तुम्हारी आँखों में जो उफन आता है रह रह कर और बह जाता है भिगो कर कोरों को रह जाती है एक सूखी सी लकीर आँखों और लबों के बीच जो कर जाती है सब अनकहा बयाँ तुम रोक लिया करो उन उफनती , नमकीन लहरों को, न दिया करो बहने उन्हें कपोलों पे क्योंकि देख कर…

आसमान के ऊपर भी एक और आसमान है, उछ्लूं लपक के छू लूँ  बस ये ही अरमान है। बना के इंद्रधनुष को अपनी उमंगों का झूला , बैठूँ और जा पहुँचूँ चाँद के घर में सीधा। कुछ तारे तोडूँ और भर लूँ अपनी मुठ्ठी में, लेके सूरज का रंग भर लूँ सपनो की डिब्बी में। उम्मीदों का ले उड़नखटोला जा उतरूं…

अनवरत सी चलती जिन्दगी में अचानक कुछ लहरें उफन आती हैं कुछ लपटें झुलसा जाती हैं चुभ जाते हैं कुछ शूल बन जाते हैं घाव पनीले और छा जाता है निशब्द गहन सा सन्नाटा फ़िर इन्हीं खामोशियों के बीच। रुनझुन की तरह, आता है कोई यहीं कहीं आस पास से करीब के ही झुरमुट से जुगनू की तरह चमक जाता…

कितना आसान होता था ना जिन्दगी को जीना जब जन्म लेती थी कन्या लक्ष्मी बन कर होता था बस कुछ सजना संवारना सखियों संग खिलखिलाना, कुछ पकवान बनाना और डोली चढ़ ससुराल चले जाना बस सीधी सच्ची सी थी जिन्दगी अब बदल क्या गया परिवेश बोझिल होता जा रहा है जीवन जो था दाइत्व वो तो रहा ही बहुत कुछ…

सुनो! पहले जब तुम रूठ जाया करते थे न, यूँ ही किसी बेकार सी बात पर मैं भी बेहाल हो जाया करती थी चैन ही नहीं आता था मनाती फिरती थी तुम्हें नए नए तरीके खोज के कभी वेवजह करवट बदल कर कभी भूख नहीं है, ये कह कर अंत में राम बाण था मेरे पास। अचानक हाथ कट जाने…