जबसे होश संभाला तब से ही लगता रहा कि मेरा जन्म का एक उद्देश्य घुमक्कड़ी भी है. साल में कम से कम १ महीना तो हमेशा ही घुमक्कड़ी के नाम हुआ करता था और उसमें सबसे ज्यादा सहायक हुआ करती थी भारतीय रेलवे. देखा जाए तो ३० दिन के टूर में १५ दिन तो ट्रेन के सफ़र में निकल ही जाया करते थे. और हमारे लिए यही समय शायद बाकी टूर से ज्यादा रोमांचक हुआ करता था. बचपन की उम्र में धार्मिक और ऐतिहासिक स्थानों और इमारतों के प्रति उदासीनता और प्राकृतिक दृश्यों के प्रति एकरसता के बीच भारतीय रेल में बीता समय जैसे हम बच्चों के लिए सही मायने में मजेदार छुट्टियां मनाने का हुआ करता था.
आज दुनिया की लगभग सभी आधुनिक और खूबसूरत रेलों में यात्रा करने के बाद भी मुझे एहसास होता है कि जो मजा भारतीय रेल में यात्रा करने में था वो दुनिया की किसी रेल में नहीं.
शुरू से याद करना शुरू करूँ तो वक़्त के साथ साथ इस यात्रा में भी बदलाव आता रहा है. सबसे पहले का जो याद है वह है बड़े से पानी के थर्मस में ठंडा पानी लेकर यात्रा करना और रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों पर उतर कर उसमें फिर से बर्फ भरवा लेना। कुछ लोग सुराही लेकर भी चला करते थे. अब वह विशालकाय थर्मस और सुराही दोनों ही सिकुड़ कर रेल नीर की प्लास्टिक की बोतल में समा गए हैं.
यूँ मुझे यह व्यवस्था अच्छी लगती है क्योंकि लम्बी यात्रा में एक भारी अदद से लोगों को निजात मिल गई है।
परन्तु सबसे अधिक जो बदलाव अखरता है वह है कुल्हड़ के प्लास्टिक के गिलास में बदल जाने का. किसी भी यात्रा पर निकलने पर हम बच्चों में जो सबसे ज्यादा आकर्षण हुआ करता था वह इन कुल्हड़ और ट्रेन में मिलने वाली वेजिटेबल कटलेट का ही था.जिसमें कटलेट के मिलने में तो कभी कोई परेशानी नहीं हुआ करती थी , क्योंकि उसकी आवाज आते ही हम उस ऊपर वाली सीट से मुंडी लटका के नीचे वाली सीट पर बैठी मम्मी का कन्धा हिला दिया करते, जिस पर ट्रेन में घुसते ही हम अपनी चादर और स्टेशन से खरीदी चम्पक से लेकर चाचा चौधरी और गृह शोभा से लेकर धर्मयुग तक सब लेकर चढ़ जाया करते थे. और मम्मी झूठी खीज के साथ यह कहते हुए कि “हे भगवान् जरा चैन नहीं है” कटलेट खरीद कर ऊपर ही पकड़ा दिया करतीं। पर समस्या कुल्हड़ की थी जिसमें चाय मिला करती थी और चाय हम न तो पीते थे न ही हमें पीने की इजाजत ही थी, वो क्या था कि उस समय के माता पिता के मुताबिक बच्चों के चाय पीने से उनका दिमाग ठुस्स हो जाता है और रंग काला. सो हमें भी चाय पीने का अधिकार नहीं था. बेशक कुल्ल्हड़ में ही क्यों न हो. फिर हम वही मम्मी पापा वाला चाय कुल्हड़ लेकर, धोकर उसमें पानी पीकर अपनी इच्छा पूर्ती कर लिया करते थे. यूँ उसमें तब तक न तो कुल्हड़ की सुगंध बाकी रहती थी न ही कोरे कुल्हड़ वाला मजा, पर दिल के खुश रखने को ग़ालिब ख्याल बुरा भी नहीं था.
फिर धीरे धीरे वो कुल्हड़ थर्मोकोल के ग्लासों से होता हुआ प्लास्टिक के ग्लासों तक पहुँच गया जिसे पकड़ने तक में खासी तकलीफ होती थी. यह इतना हल्का होता था कि चलती ट्रेन से ज्यादा हिला करता था. अब वही ग्लास भी सुकड़ कर एक अंगूठे भर के पिद्दी से गिलास में बदल गया है. मुझे यह बिलकुल समझ में नहीं आता कि पांच रु की एक चम्मच चाय में किसी का क्या भला होता होगा परन्तु इस साइज के ग्लास में कम से कम हिलने की गुंजाइश भी नहीं होती है. अब क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा।
पिद्दी गिलास
यूँ उन दिनों ए सी के डिब्बों में भी हॉकरों के घूमने की इजाजत हुआ करती थी. जो पूरी यात्रा के दौरान अपनी खास अदा में कुछ न कुछ बेचते, घूमते रहते थे और इनके साथ ही कभी कोई सारंगी लिए तो कभी कोई माउथ ऑर्गन लिए तराने छेड़ता भी चला आया करता था, जिससे लगातार चहल पहल रहा करती थी और मन लगा रहता था, यही वजह थी कि सर्दियों के दिनों में भी हम पापा के ए सी की जगह फर्स्ट क्लास के डिब्बे में चलने के आईडिया को बहुमत से ठुकरा दिया करते थे. क्योंकि फर्स्ट क्लास के डिब्बे में दरवाजा हुआ करता था जिसे बंद करके वह एक बंद कूपे जैसा हो जाता है और फिर उसमें से कोई आता जाता दिखाई नहीं पड़ता था , वहीं ए सी डिब्बों में सिर्फ परदे होते हैं. ये हमारी समझ में आजतक नहीं आया की फर्स्ट क्लास का किराया ए सी से कम होने के वावजूद भी उसमें इतनी प्राइवेट सुविधा क्यों दी जाती थी.
हालाँकि सबसे ज्यादा आकर्षित करता था प्लैटफ़ार्म से यह देखना कि कैसे लोग ट्रेन के प्लैटफ़ार्म पर रुकने से पहले ही जनरल डिब्बे की खिड़कियों से अपनी पोटलियाँ और छोटे बच्चों को ट्रेन के अन्दर धकेलने लगते हैं, जिससे वह अन्दर पहुँच कर सीट घेर सकें. बेहद रोमांचक लगने के वावजूद भी यह, कभी हमें नसीब नहीं होता था.
यूँ अलग अलग प्रदेशों से गुजरती हुई रेलगाड़ी और राह में पढने वाले उनके स्टेशनों पर मिलने वाले प्रादेशिक ज़ायके के नाश्ते भी कम लुहावाने नहीं हुआ करते थे. पर हमें उन्हें भी निहार कर ही संतोष कर लेना पड़ता था, वजह थी कि जाने क्यों हमारे मम्मी पापा और लगभग सभी बड़ों को स्टेशन पर मिलने वाले वे फेरी वाले पकवान अनहायजनिक लगा करते थे और हमारे इस तर्क के बावजूद भी कि “बाकी इतने लोग भी तो खाते हैं”, हमें उन्हें लेकर खाने की इजाजत नहीं होती थी. इसीलिए हमेशा अपने घर की बनाई हुई पूरी और आलू की सब्जी मय अचार और हरीमिर्च साथ रखी जाती थी.यात्रा १ दिन से लम्बी हो तो ब्रेड मक्खन , खीरा टमाटर के सैंडविच और फलों से काम चलाना पड़ता था. हालाँकि इस हेल्दी ऑप्शन के लिए भी खासी जुगत हो जाती थी।
होता यह था कि उस समय रेलवे प्लैटफ़ार्म के ठेलों पर इस तथाकथित पाश्चात्य नाश्ते का कोई प्रबंध नहीं हुआ करता था. अत: ब्रेड मक्खन और खीरा टमाटर लेने भी स्टेशन से बाहर तक जाना पड़ता था. और हर बार यह नौबत आने पर मम्मी की रूह फना हो जाती थी. कारण था कि पापा स्टेशन आते ही झट से उतर कर ये सामान लेने चले जाते थे और कभी भी ट्रेन चलने से पहले अपनी सीट पर नहीं आते थे. और ट्रेन के हिलते ही मम्मी की जान सूखने लगती थी कि पापा चढ़े या नहीं। उनकी यह हालत देखकर हम दोनों बहने एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे जाकर देखते और कुछ डिब्बों के बाद पापा के नजर आते ही भाग कर आकर मम्मी को दिलासा देते कि पापा आ रहे हैं. तब मम्मी की सांस में सांस आया करती। मुझे आज भी ऐसा लगता है कि पापा को उनकी यही हालत देखने में आनंद आया करता था. हर बार वह अपने डिब्बे की जगह जानबूझ कर ३-४ डिब्बे आगे पीछे चढ़ा करते थे और फिर आराम आराम से ट्रेन के चलने के १० मिनट बाद अपनी सीट तक पहुंचा करते थे. उसके बाद मम्मी की डांट खाने में शायद उन्हें बड़ा मजा आया करता था.
होता यह था कि उस समय रेलवे प्लैटफ़ार्म के ठेलों पर इस तथाकथित पाश्चात्य नाश्ते का कोई प्रबंध नहीं हुआ करता था. अत: ब्रेड मक्खन और खीरा टमाटर लेने भी स्टेशन से बाहर तक जाना पड़ता था. और हर बार यह नौबत आने पर मम्मी की रूह फना हो जाती थी. कारण था कि पापा स्टेशन आते ही झट से उतर कर ये सामान लेने चले जाते थे और कभी भी ट्रेन चलने से पहले अपनी सीट पर नहीं आते थे. और ट्रेन के हिलते ही मम्मी की जान सूखने लगती थी कि पापा चढ़े या नहीं। उनकी यह हालत देखकर हम दोनों बहने एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे जाकर देखते और कुछ डिब्बों के बाद पापा के नजर आते ही भाग कर आकर मम्मी को दिलासा देते कि पापा आ रहे हैं. तब मम्मी की सांस में सांस आया करती। मुझे आज भी ऐसा लगता है कि पापा को उनकी यही हालत देखने में आनंद आया करता था. हर बार वह अपने डिब्बे की जगह जानबूझ कर ३-४ डिब्बे आगे पीछे चढ़ा करते थे और फिर आराम आराम से ट्रेन के चलने के १० मिनट बाद अपनी सीट तक पहुंचा करते थे. उसके बाद मम्मी की डांट खाने में शायद उन्हें बड़ा मजा आया करता था.
फिर धीरे धीरे ये स्टेशन भी तथाकथित रूप से मॉडर्न होने लगे और इन्हीं स्टेशनों पर सो कॉल्ड हाइजिनिक खाना मिलने लगा. यहाँ तक कि ट्रेन में ही ठीक ठाक खाना मिल जाता और यह सारी मस्ती भरी मशक्कत ख़तम हो गई.
सुरक्षा कारणों से ए सी डिब्बों में हॉकरों का आना भी बंद हो गया, वक़्त बदला, मनोरंजन के साधन बदले. अब ट्रेन में चलने वाले संगीतज्ञों की जगह सबके अपने अपने व्यक्तिगत “वाक मैनों” और उससे लगे कनखजूरों ने ले ली और दो सीटों के बीच सूटकेस की मेज बनाकर उसपर कपड़ा बिछाकर ताश खेलने का स्थान अपनी अपनी गोदी में रखे लैपटॉपों ने ले लिया। ख़त्म हो गईं सहयात्री से की गई गुफ़्तगू, बंद हो गईं सबकी अपनी अपनी राजनैतिक चर्चाएँ और पूरे डिब्बे में घूमते बच्चे सिमट गए अपनी सीट पर हाथ में बित्ते भर का प्ले स्टेशन लिए.
सच है वक़्त बदल गया है. हम ने तरक्की कर ली है. जाहिर है यात्राएं भी बदल गईं हैं. शायद ज्यादा सुविधाजनक हो गई हैं. पर मनोरंजक नहीं रहीं।
बहुत मनमोहक यात्रा वृत्तांत मन पुराणी स्मृतियों में पहुच गया .सच अब सहयात्री से गुफ्तगुं का आनंद समाप्त ही हो गया है
कुल्हड़ की सोंधी चाय की याद दिला दी आपने । अब भी कभी कभार जब ट्रेन किसी कारण से छोटे स्टेशन पर रुक जाती है तब वहां कुल्हड़ में चाय मिल जाती है ।
और वो चम्पक ,लोटपोट ,नंदन ,पराग ,बाल पाकेट बुक्स ,राजन इकबाल सिरीज़ को चलती ट्रेन में पढने का अपना अलग सुख था ।
यादों का बड़ा पुलिंदा खोल दिया…..
कुल्हड़ वाली चाय से याद आया कि हमारे तो नहीं मगर हमारे बेटे के बचपन में कहीं नानी के साथ उन्होंने वो चाय पी और लौट कर हमें बताया मम्मा नानी से बहुत tasty चाय पिलाई थी "गमले" में 🙂 हम सब आज भी उसे गमले वाली चाय ही कहते हैं….
और वैसे ही पापा के train में चढ़ने की फ़िक्र हर माँ को होती है…सो हमारे यहाँ पापा की एक फिक्स्ड शर्ट थी travelling के लिए…. कुछ pink से कलर की…..rare color था (उन दिनों ) तो बस हम बच्चे झाकते बाहर और मम्मा को कहते हाँ pink शर्ट अन्दर चढ़ गयी 🙂
oh i too miss those days…..
बढ़िया आलेख शिखा !!
अनु
आपकी यह पोस्ट आज के (२१ अक्टूबर, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन – आज़ाद हिन्द फ़ौज को नमन पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
MANBHAWAN NAHIN MANMOHAK YATRA WARNAN
kya baat likhi hai aapne ja ti hai jab ham ma pita ke sath jate the na to train me baethte hi bhukh lag jaya karti thi ,chahe ghr se kitna hi kha kar nikle hoon aur papa ki dusre dibbe me chadhne wali baat to mano sabhi ke sath hoti hai mere pita bhi aesa hi kate the uf bahut maja aata tha
rachana
नमस्कार आपकी यह रचना आज मंगलवार (22-10-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
बहुत ही रोचक एवँ मनोरंजक ! आनंद आ गया पढ़ कर !
बहुत ही सुन्दर यात्रा वृत्तांत. सही कह रहे हैं, अब इन यात्राओं में वो मजा नहीं रहा
सुराही , पंखियाँ , और घर के बनी ढेरों खाने की चीजें , ताश की गड्डी , जरूरते हुआ करती थी यात्रा की !
रोचक स्मृतियाँ !
अरे नहीं किसने कहा ऐसा माहौल ख़तम हो गया ट्रेन में | भौकाल तरीके से जारी है | जर्नल कम्पार्टमेंट में आज भी बड़े बेहतरीन करेक्टर मिलते हैं | हमारी तरफ तो छोटी लाइन है , जंगलों में कुछ कुछ स्टेशन हैं | कुल्हड़ में चाय तो लालू ला ही दिए थे, कुछ जगह मिलती भी है |
बाकी ट्रेन और डिब्बों में मिलने वाले ऐसे करैक्टर्स की कहानी एक बार हम भी ठेले थे (http://agadambagadamswaha.blogspot.in/2012/08/nakhlau.html)
न जाने कितनी मीठी यादें जगा दी हैं रेल यात्राओं की ….. पहले तो सह यात्रियों के खाने का सामान भी बाँट लिया करते थे …. अब तो किसी से लेते हुये और किसी को देते हुये डर ही लगता है कुल्हड़ की चाय के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं ….रही सुराही की बात तो स्टेशन से रेल में चढ़ते हुये खरीदी और गंतव्य पर पहुँच कर फोड़ दी और उसे फोड़ने में भाई बहन के बीच जो हाथापाई होती थी :):) लगता है सबके पापा की एक ही सी आदत रही है …. हर स्टेशन पर उतर जाना माँ के साथ साथ बच्चों की भी सांस सांसत में आ जाती थी ।
bada hi sunder yaatra ka vivran likha aapne…..sach men ab yatra ka aanand kitna kam ho gaya hai……vo rochakta kahaan……
यात्रा की ! रोचक स्मृतियाँ !
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जो मजा भारतीय रेल में यात्रा करने में हैं, वो दुनिया की किसी रेल में नहीं हम सभी की भारतीय रेल से कुछ न कुछ यादें जुडी हैं.
बहुत सुन्दर रचना l
ऐसे संस्मरण पढ़ के ये ध्यान चला जाता है की कितना कुछ बदल गया है … ओर वो भी तेज़ी के साथ … रोचक स्मृतियों को लिख के पुरानी दुनिया में खींच लिया है आपने …
बिलकुल सही । आपका संस्मरण पढ़ सरे दृश्य आँखों के सामने जीवंत हो गए ।इंसान सुविधाजनक आराम पसंद हो गया और खुद में सिमटता जा रहा ।अब यात्रा मनोरंजक नही बोझ लगती है ।
हाँ , छोटी लाइन और जर्नल कम्पार्टमेंट में जाने का मौका ही नहीं लगा कभी.
अधिक व्यवस्था कभी कभी रोचकता का लोप कर देती है।
वैसे भारतीय रेल तो पहले जैसी ही है, बस हम ही बदल गए हैं। एसी में एकदम बोरिंग सफर है लेकिन स्लीपर पर आज भी कई कहानियां मिलती है, वही अंदाज है। लेकिन अब हम स्लीपर में सफर नहीं कर पाते। एसी कोच में तो यह हाल है कि यदि अपने साथ खाने का कुछ ना हो तो कोई हॉकर आता ही नहीं, बस भूखों ही मरना पड़ता है।
वाह क्या बात है! समझो बहार आई
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है . हालांकि विकास अपनी जगह सही है लेकिन पुरानी यादों मे भी मज़ा है .
yadon ki galoyin se gujarte hue ek achchhi yatra karvayee aapne ..
अच्छा विवरण है,हमें भी दिन याद आ गये पुराने ट्रेन यात्राओं के,
बड़ा क्रेज रहता था उन दिनों … ट्रेन के सफ़र का,कुल्हड़ का,कटलेट का ….. सच …
मजा आ गया !!
रेल यात्राओं का आपने एकदम सजीव विवरण दिया है . .मै तो ऐसे ही भटकता हुआ जीव हूँ और रेल यात्राये मेरी जीवन का अभिन अंग . पढ़कर मज़ा आता है . बहुत सुन्दर.
जीवन्तता आपकी लेखनी का अभिन्न अंग है पढ़कर रोमांच होता है . अपनी अनगिनत और अनवरत रेल यात्राओं के परिप्रेक्ष्य में पढ़ कर बहुत मज़ा आया ..
maja aya
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