रूस के गोर्की टाउन से कर
इंग्लैण्ड के स्टार्ट फोर्ड अपोन अवोन तक और मास्को के पुश्किन हाउस से
लेकर लन्दन के कीट्स हाउस तक। ज़ब जब किसी लेखक या शायर का घर , गाँव सुन्दरतम तरीके से संरक्षित देखा हर बार मन में एक हूक उठी कि काश ऐसा ही कुछ हमारे देश में भी
होता। काश लुम्बनी को भी एक यादगार संग्रहालय के तौर पर संरक्षित रख, यात्रियों और प्रशंसकों के लिए विकसित किया जाता, काश
महादेवी वर्मा का घर कौड़ियों के दाम न बेचा जाता, काश आगरा की उस आलीशान हवेली
में लड़कियों का कॉलेज न खोल
दिया जाता जहाँ बाबा-ए-सुख़न पैदा हुआ.
इंग्लैण्ड के स्टार्ट फोर्ड अपोन अवोन तक और मास्को के पुश्किन हाउस से
लेकर लन्दन के कीट्स हाउस तक। ज़ब जब किसी लेखक या शायर का घर , गाँव सुन्दरतम तरीके से संरक्षित देखा हर बार मन में एक हूक उठी कि काश ऐसा ही कुछ हमारे देश में भी
होता। काश लुम्बनी को भी एक यादगार संग्रहालय के तौर पर संरक्षित रख, यात्रियों और प्रशंसकों के लिए विकसित किया जाता, काश
महादेवी वर्मा का घर कौड़ियों के दाम न बेचा जाता, काश आगरा की उस आलीशान हवेली
में लड़कियों का कॉलेज न खोल
दिया जाता जहाँ बाबा-ए-सुख़न पैदा हुआ.
पर ये काश तो काश ही हैं.
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब‘ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
हमें अपनी धरोहर सहेजने की आदत
नहीं,या फिर जिस देश में अनगिनत नागरिकों के पास छत नहीं वहां
किसके पास फुर्सत है जो इन कलमकारों के घरों को संजोयें।
नहीं,या फिर जिस देश में अनगिनत नागरिकों के पास छत नहीं वहां
किसके पास फुर्सत है जो इन कलमकारों के घरों को संजोयें।
कुछ ही समय पहले फेसबुक पर अचानक कुछ लोगों की वाल पर तस्वीरें दिखाई देने लगीं , मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली की तस्वीरें, तब पता चला कि पुरानी
दिल्ली में ग़ालिब की एक हवेली अब भी मौजूद है. जहाँ उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कुछ आखिरी वर्ष बिताये। तब से इच्छा थी कि एक बार उस सुखनवर से मिल कर आया जाए.
दिल्ली में ग़ालिब की एक हवेली अब भी मौजूद है. जहाँ उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कुछ आखिरी वर्ष बिताये। तब से इच्छा थी कि एक बार उस सुखनवर से मिल कर आया जाए.
परन्तु हमेशा बेहद छोटा और व्यस्त
रहने वाला भारत प्रवास, गर्मी का मौसम और उसपर चांदनी
चौक की बल्लीमारान गलियों का खौफ, चाह कर भी हिम्मत न
होती थी कि अकेले ही कभी वहां घूम आया जाए.
रहने वाला भारत प्रवास, गर्मी का मौसम और उसपर चांदनी
चौक की बल्लीमारान गलियों का खौफ, चाह कर भी हिम्मत न
होती थी कि अकेले ही कभी वहां घूम आया जाए.
फिर इस बार जब दिल्ली पुस्तक मेले
के बाहर हम खड़े यह सोच रहे थे कि अब कहाँ चला जाये,अभिषेक ने
लाल किला सुझाया। तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि लाल किला भी तो पुरानी दिल्ली में
ही है. यानि चांदनी चौक भी ज्यादा दूर नहीं होगा। अत: ग़ालिब चाचा से मुलाकात का
मौका बन सकता है. तुरंत यह मंशा अभिषेक के सामने रखी. अब भतीजे की इतनी हिम्मत
नहीं थी कि चचा से
मिलने को मना कर सके, या फिर मुझे ही मना कर सके :)हालाँकि
वह वहां पहले भी जा चुका था. अत: हमने ऑटो पकड़ा और चल दिए ग़ालिब चाचा की हवेली।
के बाहर हम खड़े यह सोच रहे थे कि अब कहाँ चला जाये,अभिषेक ने
लाल किला सुझाया। तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि लाल किला भी तो पुरानी दिल्ली में
ही है. यानि चांदनी चौक भी ज्यादा दूर नहीं होगा। अत: ग़ालिब चाचा से मुलाकात का
मौका बन सकता है. तुरंत यह मंशा अभिषेक के सामने रखी. अब भतीजे की इतनी हिम्मत
नहीं थी कि चचा से
मिलने को मना कर सके, या फिर मुझे ही मना कर सके :)हालाँकि
वह वहां पहले भी जा चुका था. अत: हमने ऑटो पकड़ा और चल दिए ग़ालिब चाचा की हवेली।
यूँ बात सदियों पहले की हो तो
जाहिर है किसी नई सुविधा जनक स्थान पर तो होगी नहीं। दुनिया में जहाँ भी ऐसे घर या
संग्रहालय हैं पुराने इलाकों में ही हैं. और वहां आने जाने के लिए भी आधुनिक सुविधाएं नहीं होतीं। सो यह जानकार कि ऑटो कुछ दूर तक जाएगा और
उसके बाद रिक्शा लेना पडेगा ,मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी
बल्कि थोडा उत्साह ही था कि इसी बहाने कुछ पुराना/वास्तविक सा माहौल देखने को मिलेगा। परन्तु कल्पना में
और हकीक़त में बहुत फ़र्क हुआ
करता है. पहले तो ऑटो के रास्ते पर ही इतना ट्रैफिक था कि हमारे गाइड महोदय को भी लगने लगा कि मेट्रो की जगह ऑटो
से आना गलत फैसला था. उसके बाद जो रिक्शा का रास्ता था
उसमें तो पांच मिनट के रास्ते के लिए हमें आधा घंटा लगा.
जाहिर है किसी नई सुविधा जनक स्थान पर तो होगी नहीं। दुनिया में जहाँ भी ऐसे घर या
संग्रहालय हैं पुराने इलाकों में ही हैं. और वहां आने जाने के लिए भी आधुनिक सुविधाएं नहीं होतीं। सो यह जानकार कि ऑटो कुछ दूर तक जाएगा और
उसके बाद रिक्शा लेना पडेगा ,मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी
बल्कि थोडा उत्साह ही था कि इसी बहाने कुछ पुराना/वास्तविक सा माहौल देखने को मिलेगा। परन्तु कल्पना में
और हकीक़त में बहुत फ़र्क हुआ
करता है. पहले तो ऑटो के रास्ते पर ही इतना ट्रैफिक था कि हमारे गाइड महोदय को भी लगने लगा कि मेट्रो की जगह ऑटो
से आना गलत फैसला था. उसके बाद जो रिक्शा का रास्ता था
उसमें तो पांच मिनट के रास्ते के लिए हमें आधा घंटा लगा.
लोकतंत्र वहां अपने चरम पर नजर आ
रहा था. जिसका जैसा मन वैसे चल रहा था. जहाँ मन वहां गाड़ी खड़ी करके बैठा था. और
जिसका जितनी जोर से मन उतनी जोर से बीच सड़क पर फ़ोन पर चिल्ला- चिल्ला कर बातें कर रहा था. खैर अब आ ही गए थे तो बजाय इन सब से परेशान
होने के हमने इनका आनंद लेना ज्यादा उचित समझा। और उस इलाके की मशहूर जलेबियों और कचौरियों की चर्चा करते हम धैर्य के साथ रिक्शे में बैठे रहे.
रहा था. जिसका जैसा मन वैसे चल रहा था. जहाँ मन वहां गाड़ी खड़ी करके बैठा था. और
जिसका जितनी जोर से मन उतनी जोर से बीच सड़क पर फ़ोन पर चिल्ला- चिल्ला कर बातें कर रहा था. खैर अब आ ही गए थे तो बजाय इन सब से परेशान
होने के हमने इनका आनंद लेना ज्यादा उचित समझा। और उस इलाके की मशहूर जलेबियों और कचौरियों की चर्चा करते हम धैर्य के साथ रिक्शे में बैठे रहे.
बल्लीमारान के उस इलाके में, पहली और आखिरी बार मैं यही कोई ८-१० वर्ष की
अवस्था में गईं होऊँगी।ज्यादा कुछ याद तो नहीं था. पर इतना फिर भी याद है कि उस
समय भी वे गलियाँ आज जैसी ही थीं. शायद लोगों की उम्र के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला
था वहां। तब भी वहां ग़ालिब की हवेली को कोई नहीं जानता था. आज भी उसी गली में होते
हुए भी किसी रिक्शे वाले को उसका पता न था. यदि साथ में अभिषेक न होता तो यकीनन ग़ालिब की उस कासिम खान गली तक पहुँच कर
भी उनकी हवेली तक मैं नहीं पहुँच सकती थी.
अवस्था में गईं होऊँगी।ज्यादा कुछ याद तो नहीं था. पर इतना फिर भी याद है कि उस
समय भी वे गलियाँ आज जैसी ही थीं. शायद लोगों की उम्र के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला
था वहां। तब भी वहां ग़ालिब की हवेली को कोई नहीं जानता था. आज भी उसी गली में होते
हुए भी किसी रिक्शे वाले को उसका पता न था. यदि साथ में अभिषेक न होता तो यकीनन ग़ालिब की उस कासिम खान गली तक पहुँच कर
भी उनकी हवेली तक मैं नहीं पहुँच सकती थी.
खैर हम उस हवेली के मुख्य द्वार तक
पहुँच गए जो खुला हुआ था. जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं , लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है.
पहुँच गए जो खुला हुआ था. जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं , लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है.
सन २००० में भारतीय सरकार की
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर चौकीदार कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर चौकीदार कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.
हमारे अन्दर घुसते ही वे पीछे
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.
उन्होंने ही बताया कि सरकार के इस
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी , विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं.
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी , विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं.
हालाँकि उनकी इस बात पर उस समय
मेरा यकीन करना कठिन था, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड , दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि, यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.
मेरा यकीन करना कठिन था, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड , दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि, यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.
खैर हवेली में प्रवेश करते ही
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं.
वाकई उस बड़ी सी हवेली के उस छोटे
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है। वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है। वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,
वह शब-ओ- रोज़ -ओ-माह -ओ -साल कहाँ।
यहाँ तक कि उस बरामदे की छत को भी
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए , अब उनकी नक़ल रख दी गई है। कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंज, और
दीवारों पर शायर की कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए , अब उनकी नक़ल रख दी गई है। कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंज, और
दीवारों पर शायर की कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों
के ख़ुतूत,
के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ
निकला ।
निकला ।
हालाँकि वहां उपस्थित उन सज्जन ने
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे –
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे –
“यदि ग़ालिब अंग्रेजी भाषा में लिखते, तो विश्व एवं इतिहास के महानतम कवि होते “
मेरे मन में आया – यदि ग़ालिब भारत की जगह इंग्लैण्ड
में पैदा होते, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।
में पैदा होते, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।
सरकार से तो उम्मीद क्या करनी एक
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई, तो हवेली प्रकाश में आई, कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई, तो हवेली प्रकाश में आई, कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.
हम उस हवेली से निकल आये उस गली
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
खाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर
होते तक
होते तक
अपनी धरोहरों के प्रति उदासीनता किसी भी देश के लिए दुर्भाग्य की बात है…!
इस धरोहर पर पहुँच जाने की बधाई, इस पोस्ट के माध्यम से हम भी हो आये वहाँ, आशा है कभी वास्तव में भी जा पाएंगे महान शायर के स्मृतिस्थल पर!
बेशम ग़ालिब स्वयं में एक गौरवमयी इतिहास है. उनके सम्पूर्ण दर्शन उनकी शायरी में हो जाते हैं. हवेली तो बस नाममात्र को रह गई है. पढ़कर ही संतोष करना पड़ता है.
ग़ालिब तो एक युग है ,सरकार काम के आदमियों के नाम पर सडक और शहर का नाम रखती है निकम्मे( इश्क में ) नहीं . जयशंकर प्रसाद नगर और दिनकर नगर भी नहीं है देश में .
शिखा जी,उस महान शायर के बारे में कुछ कहने की तो मेरी हैसियत नही लेकिन आपके इरादों को नमन करती हूँ । प्रवास के अल्प समयको भी इतने सार्थक तरीके से बिताया और उससे भई सार्थक आपका यह आलेख । इसकी गूँज जरूर दूर तक जाएगी ।
शिखा ,तुमने ठीक ही कहा -हमारे देश में यादगारों को समेटने का न चलन है और न उन्हें संरक्षित करने का शौक । परिवारों में भी आधुनिकता की आड़ में दुर्लभ वस्तुओं का बहिष्कार किया जाता है । विदेशों में तो गली -गली खंडित इमारतों पर भी टिकट लग जाता है । मुझको भी यह देखकर बहुर अफसोस होता है । किसी ने ठीक ही कहा है -हम प्राचीन वस्तुओं को सँजोकर रखते है -इसलिए नहीं कि खरीद नहीं सकते अपितु इसलिए कि हमें उनसे लगाब है ,उनमें हमारी पहचान है ।
यह तो मुझे मालूम था कि मिर्जा गालिब चाँदनी चौक के पास रहते थे पर बल्लीमारान में रहते थे यह नहीं मालूम था जबकि बल्लीमारान मेरी ससुराल रही है । खैर !तुम्हारा लेख बहुत पसंद आया जो अतीत के वैभव से भरा हुआ हैऔर उसके बारे में जानना बहुत जरूरी है ।
बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं आपने |यह देश का दुर्भाग्य हैं ,की यहाँ महान लेखकों कवियों शायरों की याद में न के बराबर स्थल ,भवन या गली हैं |
आपने लिखा….
हमने पढ़ा….और लोग भी पढ़ें;
इसलिए बुधवार 25/09/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ….पर लिंक की जाएगी. आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ….लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
पढ़ लिया……
बेहद रोचक……..
अपने विचार देने फिर आते हैं अभी जल्दी है 🙂
अनु
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन एक था टाइगर – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
bahut sunder post, ghalib ne upar se ise padha hoga to bahut khush huye honge aur aapko bharpur dua di hogi.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल सोमवार (23-09-2013) को "वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए.." (चर्चा मंचःअंक-1377) पर भी होगा!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ…!
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आखिर लाडले भतीजे ने चचाजान से उनकी लाड़ली भतीजी को मिलवा ही दिया … 😉
भारत प्रवास में एक अनमोल दिन धरोहर के रूप में ले गयी हो …. इस संस्मरण के माध्यम से महान शायर गालिब के बारे में बहुत कुछ जानने का अवसर मिला …. सुंदर प्रस्तुतीकरण … और साथ में खूबसूरत चित्र …
चलिए जल्दी ही मार्ग सूचक बोर्ड लगवाने की कोशिश करूंगी मैं
Bahut shandaar sanklan/varnan k liye dhanyvaad…
भारत में इतना कुछ है जिसे संरक्षण मिलना चाहिए लेकिन सरकार और जनता दोनों ही बेपरवाह है। शायद ज्यादा है इसलिए कद्र नहीं है। अब दुनिया एक गाँव में बदल रही है तो संरक्षण की मानसिकता भी आ रही है।
shikha ji , aapne bahut samvedna jagaa di…
dil dukhtaa hai naa vartmaan dekhkar …par is trip mein maza aaya hoga
सुंदर संस्मरण …. अपनी इस धरोहर के प्रति उदासीनता तो है ही हमारे यहाँ….
THANKs TO U…..
बहुत शुक्रिया आपका .
मौत के बाद किसी की उसके लिए सोचने को क्या बचता है
बाद नाम मिले ईनाम मिले बदनाम मिले गुमनाम मिले
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज ए बयां और
कल एक बार और अभी दो बार पढने के बाद, कमेन्ट बॉक्स को दस मिनट तक घूरने के बाद भी यह नहीं समझ पा रहे यहाँ लिखे क्या?
एनीवे,
हर कुछ बहुत सुन्दर है…पढ़ते पढ़ते लगा उस दिन का विडियो रील आँखों के सामने चल रहा है 🙂 हम अगर वहां कुछ देर और बैठते और ग़ालिब के शेर उनकी कहानियों, खतों की चर्चा करते तो उसका लुत्फ़ कुछ और ही होता…है तो ये एक 'सिली' सी ख्वाहिश लेकिन है तो है……ये की वहां बैठ कर ग़ालिब के गजलों को पढूं, पूरा दिन…कभी ले जाता हूँ साथ अपने दीवान-ए-ग़ालिब और पूरा दिन बिताता हूँ वहां किसी एक कोने में बैठ कर 🙂
आईये अगली बार आप, फिर से चलेंगे बल्लीमारां…और चचा की हवेली में कुछ और समय बिताएंगे…बल्लीमारां ही क्यों अगली बार पुरानी दिल्ली ही एक्सप्लोर करेंगे 🙂
वैसे देखिये न, इस पोस्ट ने एक बड़ा काम कर दिया है(जो खबर आपने दी है आज)..बहुत अच्छी बात है…आपका वहां जाना सफल हो गया, चचा आपको कितनी दुआएं देते होंगे ऊपर से 🙂
और दीदी सही कहा है आपने..ग़ालिब के नाम अगर एक पूरा शहर संरक्षित नहीं भी कर सकते तो कम से कम उनके नाम एक गली तो होनी ही चाहिए….लेकिन यहाँ तो हवेली का भी बस एक छोटा सा ही हिस्सा है उनके नाम का…और कुछ नहीं..
हम(मैं और मेरा दोस्त) जब पहली बार गए थे तो उसी गली कासिम जां में काफी आगे बढ़ गए थे….फिर लगा की हम गलत जा रहे हैं, रास्ता भूल गए हैं…वापस आये तो देखे की हम हवेली के सामने से ही निकले थे लेकिन पता भी नहीं चला हमें…
और हाँ दीदी, इस पोस्ट पर बस इसकी कमी थोड़ी खली…थोड़ी बस 🙂
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा-से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हाखुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है – गुलज़ार
वाह.. वाह.. शुक्रिया कमी पूरी करने का :).
एक यादगार संस्मरण -इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना !
एक खूबसूरत…सार्थक याद पढ़ कर बहुत अच्छा लगा…| यूँ लगा, आप दोनों के साथ हम भी उन गलियों में घूम आए…|
अभि, गुलज़ार साहब की इन पंक्तियों ने तो इसकी खूबसूरती में इजाफा ही किया है…|
वैसे सच में, काश…विदेशों की नक़ल कर खुश होने वाले इन चीज़ों में भी थोड़ी नक़ल कर ले तो क्या ही अच्छा हो…|
इस आलेख को आपने जैसे शुरू किया, जो-जो शेर जोड़े और जैसे अंत किया वह बताता है कि आपने सबकुछ हृदय की गहराई से महसूस किया। इस हृदयस्पर्शी आलेख के लिए आभार आपका। हम तो कभी जा न सके लेकिन इससे पहले डाक्टर साहब ने भी घुमाया था अपने ब्लॉग के माध्यम से।
अभी ने खूब साथ निभाया..वहाँ भी और यहाँ भी गुलजार की बेहतरीन नज़्म जोड़कर।
सुंदर संस्मरण …सार्थक प्रयास …
बहुत अच्छा लिखा है …..!!
badi achchi samasya uthayee hai aapne……abhi tak apki baat gulzar sahab tak pahunchi hai ya nahin…..batayeeyega…….
गुलज़ार साहब तक पहुंची या नहीं यह तो पता नहीं मृदुला जी , पर हाँ कुछ लोगों के सन्देश मिले हैं कि वह यह बात दिल्ली तक पहुंचा रहे हैं .
यह देखते हैं और लिखने से घबराते हैं,
ये दुनिया है, क्या हाल कर डालेगी?
क्या कहूं………… सिवाय इसके कि बहुत काम की रपट है शिखा.
इतनी कम अवधि में भी आपने लंबा गहरा इतिहास देख लिया … खुशकिस्मत हैं आप …
आपकी लेखन की उत्कृष्ट कला के जरिये हमने भी इसका स्वाद ले लिए … कमाल का लिखा है … गहरा एहसास उतर आता है मन में …
कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयाँ और ।
आप का संस्मरण अंदाज भी कमाल का।
शिखाजी, आपका भी है "अंदाजे बयाँ और" |
उदासीनता की जो बात आपने उठाई है; शायद सम्बंधित जन उस पर गौर करेंगे |
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