यदि विदेशी धरती पर उतरते ही मूलभूत जानकारियों के लिए कोई आपसे कहे कि पुस्तकालय चले जाइए तो आप क्या सोचेंगे? यही न कि पुस्तकालय तो किताबें और पत्र पत्रिकाएं पढ़ने की जगह होती है, वहां भला प्रशासन व सुविधाओं से जुड़ी जानकारियां कैसे मिलेंगी। यह बात शत प्रतिशत सच है। खासकर इंग्लैंड में। यहां आपको बेशक घर ढूंढ़ना हो, बच्चों के स्कूल के बारे में पता करना हो, नौकरी चाहिए हो, मनोरंजन का कोई उपयुक्त स्थान चाहिए हो या फिर पास के क्लीनिक का पता करना हो- सभी का सबसे सुगम जबाब है- लाइब्रेरी। बस एक लाइब्रेरी कार्ड बनवाइए, जो यहां हर बच्चे-बड़े के लिए पासपोर्ट जितना ही जरूरी होता है और आपकी हर समस्या का समाधान इस एक छत के नीचे ही मिल जाएगा। यहां दूसरे मुल्क का कोई भी नागरिक अपना पासपोर्ट, एक फोटो और रेजिडेंशियल प्रूफ देकर यह कार्ड बनवा सकता है।
अकेले लंदन में ही करीब 400 लाइब्रेरी हैं, जहां आपको हर भाषा में अनगिनत पुस्तकें मिलती हैं। इन्हें आप घर भी ले जा सकते हैं। यहां एक सामुदायिक केंद्र भी है, जो युवाओं के लिए ज्ञान बटोरने का माध्यम हैं तो बुजुर्र्गो के लिए मेल-मिलाप का अड्डा भी। बच्चों के लिए अलग से एक खंड होता है, जहां उनकी रुचि और जरूरत के अनुरूप सभी सुविधाएं और पठन सामग्री होती है। यहां नन्हे मुन्नों के लिए कहानी सुनाने जैसी कार्यशालाएं भी चलाई जाती हैं। स्कूली बच्चों के गृहकार्य में मदद करने के लिए विशेष सत्र भी चलाए जाते हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता, मधुरता और अनुशासन के साथ निभाया जाता है। समय-समय पर देश-विदेश की संस्कृति से जुड़ी प्रदर्शनियां भी लगाई जाती हैं। जैसे आजकल भारत में मुगल काल की संस्कृति संबंधी प्रदर्शनी चल रही है और इससे पहले कथकली नृत्य पर प्रदर्शनी व कार्यशालाएं चल रही थीं। इतना ही नहीं, आपके बच्चे के लिए इस क्षेत्र में कौनसा स्कूल उपलब्ध है, यदि आप नौकरी करना चाहते हैं तो कौनसे कोर्स कहां कर सकते हैं, स्कूल के बाद और स्कूल से पहले बच्चे की समस्त गतिविधियां, और तो और सरकारी मामलों से जुड़ी परीक्षाएं और पाठ्यक्रमों का संचालन भी ये पुस्तकालय करते हैं। यदि आपके घर में इंटरनेट सुविधा नहीं है तो उसका इलाज भी यहां है, इन पुस्तकालयों में पर्याप्त कंप्यूटर लगे हैं। इनके अलावा मोबाइल पुस्तकालय भी हैं जो उस क्षेत्र में घूमते रहते हैं जहां कोई पुस्तकालय नहीं हैं और यह पूरी की पूरी दुनिया आपके लिए होती है। एकदम मुफ्त।
यही कारण है की जब 2011- 2012 में आर्थिक मंदी के चलते ब्रिटिश सरकार ने इनमें से 10 प्रतिशत पुस्तकालय बंद करने की घोषणा की तो लंदन के ब्रेंट इलाके में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। तब दलील दी गई कि इंटरनेट के विकास से अब पुस्तकों का महत्व इतना नहीं रह गया है। ई-पाठकों की संख्या बढ़ गई है, लिहाजा पुस्तकालय बंद किए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के घर नहीं। हर उम्र के नागरिकों का घर से बाहर एक ऐसा स्थान है जहां वे अपनी जिंदगी से जुड़ी हर गतिविधि सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से कर सकते हैं। इसे बचाने की मुहिम चली, लोगों ने सैकड़ों पुस्तकें दान दीं, लेकिन पूरे ब्रिटेन में काफी पुस्तकालय बंद कर दिए गए। बहुतों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है और कुछ को पूर्णत: स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंप दिया गया है।
सवाल यह खड़ा होता है कि जिस देश में कितनी ही मंदी के बावजूद नागरिकों के टैक्स से आज भी एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) जैसी सुविधाएं चलती रह सकती हैं तो नागरिकों की संपूर्ण जरूरतों और बौद्धिक विकास में सहायक अड्डों की पूरी जिम्मेदारी उठाने वाले पुस्तकालयों पर ही यह कहर क्यों। विभिन्न सर्वेक्षण कहते हैं कि लंदन में बच्चों की पुस्तक पढने में रुचि लगातार कम हो रही है और लगभग तीन में से एक बच्चे के पास अपनी एक पुस्तक भी नहीं होती।
शेक्सपियर की इस धरती में ऐसे आंकड़े दुखद और निराशापूर्ण हैं। इसलिए जरूरत है कि उन बच्चों को उनकी पुस्तकें फिर से लौटाई जाएं, युवाओं को टीवी के आगे से उठाकर फिर पुस्तकालयों की तरफ मोड़ा जाए और बुजुर्र्गो को उनकी सभाओं के लिए सुरक्षित और अपनत्व भरा स्थान फिर से लौटाया जाए, क्योंकि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के लिए नहीं हैं। ये नागरिकों के संपूर्ण विकास और सुविधाओं का केंद्र हैं।
* हर दूसरे शनिवार “दैनिक जागरण”(राष्ट्रीय संस्करण)में मेरे स्तंभ “लन्दन डायरी” के तहत 26/1/2013 को प्रकाशित.
अकेले लंदन में ही करीब 400 लाइब्रेरी हैं, जहां आपको हर भाषा में अनगिनत पुस्तकें मिलती हैं। इन्हें आप घर भी ले जा सकते हैं। यहां एक सामुदायिक केंद्र भी है, जो युवाओं के लिए ज्ञान बटोरने का माध्यम हैं तो बुजुर्र्गो के लिए मेल-मिलाप का अड्डा भी। बच्चों के लिए अलग से एक खंड होता है, जहां उनकी रुचि और जरूरत के अनुरूप सभी सुविधाएं और पठन सामग्री होती है। यहां नन्हे मुन्नों के लिए कहानी सुनाने जैसी कार्यशालाएं भी चलाई जाती हैं। स्कूली बच्चों के गृहकार्य में मदद करने के लिए विशेष सत्र भी चलाए जाते हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता, मधुरता और अनुशासन के साथ निभाया जाता है। समय-समय पर देश-विदेश की संस्कृति से जुड़ी प्रदर्शनियां भी लगाई जाती हैं। जैसे आजकल भारत में मुगल काल की संस्कृति संबंधी प्रदर्शनी चल रही है और इससे पहले कथकली नृत्य पर प्रदर्शनी व कार्यशालाएं चल रही थीं। इतना ही नहीं, आपके बच्चे के लिए इस क्षेत्र में कौनसा स्कूल उपलब्ध है, यदि आप नौकरी करना चाहते हैं तो कौनसे कोर्स कहां कर सकते हैं, स्कूल के बाद और स्कूल से पहले बच्चे की समस्त गतिविधियां, और तो और सरकारी मामलों से जुड़ी परीक्षाएं और पाठ्यक्रमों का संचालन भी ये पुस्तकालय करते हैं। यदि आपके घर में इंटरनेट सुविधा नहीं है तो उसका इलाज भी यहां है, इन पुस्तकालयों में पर्याप्त कंप्यूटर लगे हैं। इनके अलावा मोबाइल पुस्तकालय भी हैं जो उस क्षेत्र में घूमते रहते हैं जहां कोई पुस्तकालय नहीं हैं और यह पूरी की पूरी दुनिया आपके लिए होती है। एकदम मुफ्त।
यही कारण है की जब 2011- 2012 में आर्थिक मंदी के चलते ब्रिटिश सरकार ने इनमें से 10 प्रतिशत पुस्तकालय बंद करने की घोषणा की तो लंदन के ब्रेंट इलाके में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। तब दलील दी गई कि इंटरनेट के विकास से अब पुस्तकों का महत्व इतना नहीं रह गया है। ई-पाठकों की संख्या बढ़ गई है, लिहाजा पुस्तकालय बंद किए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के घर नहीं। हर उम्र के नागरिकों का घर से बाहर एक ऐसा स्थान है जहां वे अपनी जिंदगी से जुड़ी हर गतिविधि सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से कर सकते हैं। इसे बचाने की मुहिम चली, लोगों ने सैकड़ों पुस्तकें दान दीं, लेकिन पूरे ब्रिटेन में काफी पुस्तकालय बंद कर दिए गए। बहुतों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है और कुछ को पूर्णत: स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंप दिया गया है।
सवाल यह खड़ा होता है कि जिस देश में कितनी ही मंदी के बावजूद नागरिकों के टैक्स से आज भी एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) जैसी सुविधाएं चलती रह सकती हैं तो नागरिकों की संपूर्ण जरूरतों और बौद्धिक विकास में सहायक अड्डों की पूरी जिम्मेदारी उठाने वाले पुस्तकालयों पर ही यह कहर क्यों। विभिन्न सर्वेक्षण कहते हैं कि लंदन में बच्चों की पुस्तक पढने में रुचि लगातार कम हो रही है और लगभग तीन में से एक बच्चे के पास अपनी एक पुस्तक भी नहीं होती।
शेक्सपियर की इस धरती में ऐसे आंकड़े दुखद और निराशापूर्ण हैं। इसलिए जरूरत है कि उन बच्चों को उनकी पुस्तकें फिर से लौटाई जाएं, युवाओं को टीवी के आगे से उठाकर फिर पुस्तकालयों की तरफ मोड़ा जाए और बुजुर्र्गो को उनकी सभाओं के लिए सुरक्षित और अपनत्व भरा स्थान फिर से लौटाया जाए, क्योंकि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के लिए नहीं हैं। ये नागरिकों के संपूर्ण विकास और सुविधाओं का केंद्र हैं।
* हर दूसरे शनिवार “दैनिक जागरण”(राष्ट्रीय संस्करण)में मेरे स्तंभ “लन्दन डायरी” के तहत 26/1/2013 को प्रकाशित.
बढ़िया लेख है यह
आपके द्वारा जी गयी जानकारी प्रेरणास्रोत का काम कर सकती है…हर शहर में यदि ऐसी ही लाइब्रेरी स्थापित की जाय तो जिंदगी और भी आसान व बेहतर हो सकती है.
पुस्तकालयों के घटते रुझान से लंदन ही नहीं दुनिया पीड़ित है।
ham aisi kitni cheezon se vanchit hai
सही कहा …. टीवी के आगे से उठाना होगा,उठना होगा …. पुस्तकों से तो कोई सरोकार ही नहीं रहा – फ्री ज्ञान खुद लेकर अधकचरे ऐंठे शरीर के साथ युवा चल रहे,(अधिकांश)- क्योंकि अभिभावक भी वैसे ही खड़े हैं
नमस्ते शिखा
Well said!
एक छोटा सा विचार.
हम भी शामिल हैं इन पुस्तकालयों के शागिर्दों में.
शहर की वीरनियों में भटके हुए नवयुवकों की,भूले हुए बुज़ुर्गों की, चार दिवारों से बंधे बच्चों की -इन सबकी है यही पुकार. ना छीनो हमसे वही सुविधाएं जिनसे मिलता हमें जीवन का आधार.
सस्नेह
देविना
जानकारी देता बढ़िया आलेख,,,,
recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
पुस्तकालयों की स्थिति की जानकारी प्रदान करता लेख …बढ़िया लेख
…बधाई
पुस्तकालय ऐसे ही होने चाहिए।
सुन्दर लेख!
सुन्दर प्रस्तुति |
शुभकामनायें आदरेया ||
ऐसा कुछ पहले भी किसी से सुना था और आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी हुई थी. ठंढी आह के साथ ये भी सोचा था की काश यहाँ भी ऐसा कुछ होता..
किताबें पढने की प्रवृति का वैश्विक स्तर पर ह्रास हुआ है. रही बात अन्य सुविधाओं की , तो हिंदुस्तान में तो ऐसा जाने होगा भी की नहीं , . आपने सजग दृष्टि डाली है इस मूलभूत समस्या पर. बहुत सुन्दर आलेख .
काश इतनी जागृति हमारे यहाँ भी होती, डिजिटल लाइब्रेरी का युग आने वाला है।
और भारत में यह गायब होती जा रही हैं…
हर देश की अपनी खाशियत होती है एक यह खूबसूरती आपके द्वारा दिए गए धरती की , सभी देश अपनी खूबी और कमी में ही अच्छे लगते हैं . प्रवीण जी के कमेन्ट से भी पूर्णतः सहमत . भारत और यहाँ बसने वालों की खूबी की हम कैसे जिया जाय सुख और दुःख में सिखला देते हैं जिंदगी को नदी की धारा के विपरीत तैरकर।
सहमत भाई प्रवाण जी से
बस एक बात कचोटती है
आम भारतीयों के दिल में ये बात घर कर चुकी है
कि राष्ठ्रीय सम्पत्ति आपकी अपनी है…..और आपको पुस्तकें घर ले जाने की पाबंदी भी नहीं है…पर पुस्तकें सही- सलामत वापस पहुंच जाए इसमें संदेह है
patna me aaj bhi logo me padhne ka shauk hai.
यशोदा यहाँ बात फिर व्यवस्था और उसे सख्ती से लागू करने की आती है.यहाँ और जहाँ भी पश्चिमी देशों में मैं रही हूँ, पुस्तकालय की किताबों को देरी या उनकी वास्तविक स्थिति में न लौटाने पर जुर्माना होता है, और उसे न चुकाने पर आपकी क्रेडिट हिस्ट्री खराब हो जाती है और यहाँ तक कि आप देश छोड़कर भी नहीं जा सकते.
अपने देश में और भी बुरा हाल है …
शुभकामनायें !
वाकई यह तो सच है की आजकल बच्चे विडियो गेम्स में ही ज्यादा रूचि लेते हैं…किताबें उनकी मित्र अब नहीं रह गयीं …ज़रुरत है की हम इस इंटरेस्ट को दोबारा cultivate करें …बहुत सही लेख ….
दिलचस्प जानकारी। लेकिन यह सच है कि इंटरनेट ने पुस्तकों और पुस्तकालयों की ज़रुरत कम कर दी है। फिर भी इनका महत्त्व तो सदा रहेगा।
बिलकुल ठीक कहा आपने सहमत हूँ आपकी बात से वाकई बहुत ज़रूरी होता जा रहा है अब टीवी के सीमित दायरे से आगे बढ़कर दुनिया देखना।
यहाँ भी यह संस्कृति अब अंतिम साँसे गिन रही है!
जब लंदन की उन लायब्रेरियों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा जो किताबों के अलावा तमाम जिम्मेदारियां उठा रही हैं, तब अपने यहां के पुस्तकालयों का क्या कहना! यहां तो केवल किताबें भी सुरक्षित नहीं रख पाते…और हां पढने की आदत तो शायद हर जगह से खत्म हो रही है. टीवी, इंटरनेट निश्चित रूप से किताबों के लिये खतरा बन गये हैं.
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (30-01-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
लंदन में लाइब्रेरी का मतलब बहुत विस्तृत है …. वहाँ से हर तरह की जानकारी मिल सकती है … यदि वहाँ पुस्तकालय बंद हुये तो लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है …. भारत मेन तो बस पुस्तकालय का मतलब पुस्तकों से ही है …. और आज कल पुस्तकें पढ़ने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है । काश यहाँ के पुस्तकालय मेन भी कुछ अन्य सुविधाएं मिलतीं … बहुत सुंदर और जानकारी युक्त लेख
अच्छी जानकारी….. जागरूकता ज़रूरी है
पुस्तकों का साथ हमारे मस्तिष्क के लिये जितना उपयोगी है उतना और कोई माध्यम नहीं.यहाँ अमेरिका में बचपन से ही किताब पढ़ने की आदत विकसित की जाती है.और स्कूलों में चुनी हुई किताबें बाकायदा.निश्चित कोर्स से अलग, पढ़ना ज़रूरी होता है .छात्र को उनका पूरा उल्लेख करना होता है. पुस्तकालय भी ,इतनी तो सुविधायें तो नहीं पर
बहुत व्यवस्थित हैं .
ek mobile pustakalaya ka rukh hamare colony ke taraf bhi kar ke rawana kar do…:)
.
behtareen post 🙂
पुस्तकालय सभी जगह वीरान होते जा रहे हैं।
टीवी आने के बाद से प्रिंट मीडिया को एक खतरा पैदा हुआ था, जो वक़्त के साथ जाता रहा, आज भी अखबार बदस्तूर पढ़े जा रहे हैं , इन-फैक्ट पहले से ज्यादा पढ़े जा रहे हैं | ठीक उसी तरह से खतरा नेट के द्वारा किताबों के लिए पैदा होता हुआ बताया जा रहा है | मेरा खुद का अनुभव ये कहता है की नेट के आने के बाद से मैंने ज्यादा किताबें पढी हैं |
रही पुस्तकालयों की बात, तो मैंने तो फीनिक्स लाइब्रेरी से लाकर काफी किताबें पढ़ी थी | जिसमे कई तो भारतीय लेखकों की थी | वहां कंप्यूटर और नेट की सुविधा निशुल्क हर किसी के लिए मौजूद है | आपके ऊपर है आप क्या पढना-जानना चाहते हो |
गया मैं लखीमपुर की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी भी हूँ | कुछ अच्छी किताबें पढी थी वहां, जैसे शेक्सपियर के कई सारे नाटकों का आधुनिक अंग्रेजी में रूपांतरण | पर उस समय लाइब्रेरी रोज़गार समाचार पढने का ठिकाना था | अब तो वो मुझे खुली भी नहीं दिखी कभी 🙂 🙂 🙂
bahut achcha likhin……
बहुत सी जानकारी मिली।
कई कारणों से किताबे कम पढ़ी जाने लगी हैं पर कितावों का अपना महत्त्व है जिसे नकारा नहीं जा सकता |आपका लेख बहुत सार्थक और सटीक है |लिखने का तरीका उससे अच्छा |
आशा
सही कह रही हो पुस्तकों का जीवन में बहुत महत्त्व है ये सबको समझना होगा।
गुलज़ार साहब की एक नज़्म है "जुबां से ज़ायका जाता नहीं, सफहे पलटने का".. किताबोब से दूर होने और नेट से जुडने की व्यथा की कथा कहता है.. दरअसल टीवी नहीं, नेट के बंधन से मुक्त होने की आवश्यकता है.. और बिलकुल सही दिशा की ओर आपने इंगित किया है.. काश घुटन से बाहर खिडकियों से भरे पूरे हवा महल का रास्ता दिखे लोगों को!! किताबों के बिना घर, खिडकियों बिना मकान ही तो है!!
मुझे लगता है कि सूचना के संदर्भ में श्रीलंका का कोई सानी नहीं. यहां लगभग सभी सूचनाएं एक ही फ़ोन नं. पर मिल सकती हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस व्यक्ति ने यह संभव कर दिखाया वह भारतीय बंगलौर से है http://www.icta.lk/en/icta/86-re-engineering-government/610-1919-one-window-for-government-services-information.html
पुस्तकालय आज सभी जगह वीरान हैं या हैं ही नहीं…
ek nayi jankari se roobroo hua hun …abhar ! aur yahan ki haalat to aap jante hi ho kahna hi kya.
पुस्तकालयों का वीरान होना दुखद है।
लन्दन की बातके साथ ये भी कहना चाहता हूं की किताबो के महत्त्व को कभी अपना देश भी समझता था … तभी विश्व गुरु था … पर आज अपने देश का तो ओर ही बुरा हाल है …
महत्वपूर्ण जानकारी लिए आलेख …. पढ़ने का शौंक हिन्दुस्तान ही नहीं, बाहर के देशों में भी कम होता जा रहा है
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