कल रात सपने में वो मिला था
कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी
कभी कहता यह कर, कभी कहता वो
कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता
फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो
फिर तुनकता और करने लगता जिरह
आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी
क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग
और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज
मारती रहती हूँ उसे पल पल
यूँ ही, ऐसे ही, किसी के लिए भी।
मैं तकती रही उसे, यूँ ही
निरीह, किंकर्तव्यविमूढ़ सी
क्या कहती, कैसे समझाती उसे
कि कितना मुश्किल होता है
यूँ उसे दरकिनार कर देना
सुनकर भी अनसुना कर देना
और फिर भी छिपाए रखना उसे
रखना ज़िंदा अपने ही अन्दर
रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ
जो तुझे मारती हूँ तो
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.
असमंजस..

रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ
जो तुझे मारती हूँ तो
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.
"मन रे तू काहे न धीर धरे …"
इस कविता सृजन के समय आपकी सोच में जो भी सम्बन्ध रहा हो, पर यह किंकर्तव्यविमूढ़ता मुझे तो बच्चों पर संकेन्द्रित कर गई। प्राय: अपनी बेटी के साथ मेरे अनुभव आपकी कविता की पंक्तियों जैसे ही होते हैं। यथार्थ के सन्निकट, अत्यन्त स्पन्दित करती कविता।
रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ
जो तुझे मारती हूँ तो
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.गहरी उतरती बात ….
bahut hi sundar lekhni hai ji aapki , saar garbhit bhi !! kripya " 5th pillar corrouption killer " naamak blog ko bhi dekhne ka kasht karen . the link is :- http://www.pitamberduttsharma.blogspot.com
बेहतरीन कविता
सादर
वाकई …उस शिशु ..उस मन के साथ कितना गलत करते हैं हम….वह हमारी प्रायोरिटी लिस्ट में सबसे आखिर में आता है ……:)
हाँ, हम अक्सर मन को मारते हैं, लेकिन वो भी तो कितनी-कितनी असंभव सी फरमाइशें करता रहता है 🙂
अरे मत मारो ना उसे…उसकी सुनो….देखना कित्ती ख़ुशी मिलेगी 🙂
अनु
मन के मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने…..
अपने अन्दर के इन्सान को मारना असम्भव होता है.
आसान नहीं होता एसा करपाना इसलिए शायद जो तुझे मारती हूँ तो
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:….सुंदर भावभिव्यक्ति….
मन का खेल निराला भैया,
कितना हमें नचाया भैया।
मन के उदगार , मन के द्वार . जीवन में अनगिनत बार , हर बार वो जाता हर, लेकिन फिर एक नई इच्छा के साथ तैयार.
man ki suno to man hi jabab dega………..
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 02/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
बाल श्रम, आप और हम – ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
kai din baad…kuchh alag padhaa…khoob likha hai ji.. 🙂 (y)
मन तो ऐसा ही है जितना समझाओ उतना नासमझ बन जाता है
मन को जितना मारो उतना ही वह उत्तेजित हो जाता है.बहुत सुन्दर प्रस्तुति
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
New post तुम ही हो दामिनी।
मन की उछल कूद , तुनकना , जिरह सब जारी रहे …. कभी तो उसकी सुनी ही जाएगी …. अंतिम पंक्तियाँ बहुत मार्मिक हैं …. मर्मस्पर्शी शायद इस लिए कि यही एहसास मुझे भी होता है …. बहुत सुंदर
मन को मारने का द्वंद्व मन से ही……
बहुत बढ़िया रचना |
कभी मन मारना पड़ता है, कभी मसोसना।
ये मन होता ही इतना नौटी है कि संभालना पड़ता है।
कितना भी मार लें उसे ऐसा जबर है – वह चुप बैठनेवाला नहीं !
woww….
duniya ka sabse kathin kam hai apne man ko vash mein karna,sundar rachna
च च न मारिये किसी को न मरने दीजिये मन को -अहिंसा परमों धर्मः !
थक तो जाएंगे हम कभी क्षीण हो कर, फिर भी मन
तो रहेगा ही सदा जवां…अपनी नित नई-नई ख्वाहिशें लिए …
शिखा जी, गफ्लतें, सतर्क्ताएं, ऋजुताएं,संवेदनाएं, सहानुभूति
सब कुछ ही यहाँ जायज़ सी लगे,जिसे बखूबी आपने दर्ज किया…
और हमें once again यक़ीन दिलाया की कुछ बातें और मसलों
को इतनी बेबाक़ी, बारीक़ी और अपनी एक अनूठी व मौलिक
स्टाईल में आप ही लिख पाओ …!
हम सभी को निरंतर चकित करती मन की ख्वाहिशातों का
सटीक चित्रण !
सच है, मन को मारना मतलब खुद को मारना. भावपूर्ण रचना.
मुश्किल है …
hhhhhh
सच में बहुत मुश्किल होता है मन को मार लेना , बुद्धि को कैसे समझाएं !
बहुत अपनी सी अभिव्यक्ति !
जो मन में है उसे पूरा करो चाहे छुप छुप के ही .. मन को क्यों मारें जब वो अपनी चीज है …
बेहतरीन प्रस्तुति।।। लेकिन मन की हर बात सुनना भी सही नहीं कई बार मन की चंचलता बहुत भटका देती है।।।
मन में उठे द्वंद को सपनों के शब्दों से सजा दिया …बहुत खूब
मन तो बस मन ही है ,न ….
बहुत खूब भाव पूर्ण प्रस्तुति
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
एक शाम तो उधार दो
मेरे भी ब्लॉग का अनुसरण करे
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