न जाने क्यों मेरा मन इस आवाज से बचने के लिए खिड़की बंद करने का नहीं हुआ, बहुत देर तक बाहर चलते इस क्रम को निहारती रही। जाने क्यों मन किया कि मैं भी पहुँच जाऊं वहां और काट डालूँ उन सूखी शाखाओं को जो जनजीवन में बाधा उत्पन्न करती हैं। कुछ तथाकथित पुरानी जर्जर परम्पराओं की तरह ,जो धर्म और संस्कृति के पेड़ से उपजीं। और समय के साथ फ़ैल गईं परन्तु हमने उन्हें हटाया नहीं, नए समय के अनुसार उनमें बदलाव लाने की चेष्टा नहीं की, अपनी संस्कृति को नई बहार के साथ फलने फूलने के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि लटकने दिया उन सूखी शाखाओं को इतना कि वर्तमान परिवेश और रहन सहन में वह बाधा बनती गईं, एक बोझ और कुरीतियों को जन्म देती गईं, समय के बदलते हुए अर्थ हीन होती गईं, पर हम उन्हें सहेजे गए न जाने क्यों?
मैला कर दिया हमने पवित्र कहे जाने वाले पानी को फिर भी अपना मैल उससे धोते जा रहे हैं, कैसे वह साफ़ होगा नहीं जानते पर परंपरा है तो निभा रहे हैं। करोड़ों की भीड़ में गुमा देते हैं अपनों को, धकम पेल में न जाने हो जाते हैं कितने आहत, अपनी गली, मोहल्ले की महिलाओं का करते हैं अनादर और फिर एक खास दिन , खास स्थान पर जाकर माँ और एक स्त्री रुपी देवी से गुजारिश करते हैं पाप धोने की, मानवता होती है हर पल शर्मसार , फिर भी पुण्य मिलता है हमें, परंपरा जो है। बेटा नहीं है, फिर भी माता पिता को शादी शुदा बेटी के घर रहने से पाप लगेगा, परंपरा जो है। देश बेशक मंदी के दौर से गुजरे पर महारानी के जश्न वैभवपूर्ण हों, आखिर परंपरा का सवाल है। ऐसा नहीं कि सभी परम्पराएँ गलत हैं, किसी की श्रृद्धा या भावना को आहत करने का मेरा मकसद नहीं है। परन्तु न जाने कितनी ही ऐसी परम्पराएं हैं दुनिया में, जो मानव ने अपनी खुशी के लिए बनाईं पर आज उन्हीं के बोझ तले दबा है। क्यों नहीं वह पेड़ की अवांछित टहनियों की तरह इन अनावश्यक परम्पराओं से भी छुटकारा पा सकता।
मन में ख्याल आया तो, कि जाकर मैं भी कोशिश करूँ एक बार इन्हें काटने की। पर क्या जितनी कुशलता से वह काट रहे थे इतनी कुशलता से मैं काट पाती , “जिसका काम उसी को साजे ” बेहतर है करने दिया जाये उन्हीं को, जो सक्षम हैं, जिन्हें ज्ञान है पूरा और जिन्हें नियुक्त किया गया है इसी कार्य के लिए। हमने टैक्स देकर अपना योगदान दिया है, हमसे सिर्फ इतना अपेक्षित है कि जब उन्होंने बोर्ड लगाया था पहले दिन कि, कल यहाँ वाहन न खड़ा करें तो उसे हम मानें। जिससे कर सकें वे सुचारू रूप से अपना काम। बेहतर है हर एक को करने दिया जाये उसका कार्य और हर कोई करे अपना काम, तभी बनती है व्यवस्था और साफ़ सुधरा रहता है समाज भी और वातावरण भी। क्यों हमें बताना चाहिए सीमा पर तैनात बहादुर सैनिकों को कि, उन्हें कैसे निबटना चाहिए दुश्मनों से, या कैसे सिखाना चाहिए उन्हें सबक, क्यों अड़ाई जाये किसी के काम में अपनी टांग,और दिए जाएँ बेवजह अपने उपदेश, क्योंकि है हमें आजादी अभिव्यक्ति की।
हाँ इतना जरूर है कि उनकी मदद हम कर सकते हैं। अपना हिस्से का कर्तव्य पूरा कर के। वह अपना कार्य सुचारू रूप से कर सके इसमें उनकी मदद ,अपना फ़र्ज़ पूरा करके।एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक की तरह क्यों नहीं हम वह करते जिसकी कि व्यवस्था के तहत हमसे अपेक्षा की जाती है। भरें सही टैक्स कि मिल सकें उन्हें सही सुविधाएँ, करें अपने मत के अधिकार का सही प्रयोग और चुने सही प्रतिनिधि, करें अपने विचार व्यक्त पर उन्हें थोपें नहीं.न करे ऐसा कोई काम जो बने बाधा किसी के भी कार्य में।
बस इतना भर …क्या इतना मुश्किल है करना ?.
तैयार पेड़ नई बहार के स्वागत में .
कूड़े के भीतर बैठे सूअर को दुर्गन्ध नहीं लगती
परम्परायें हैं नव कोपल की तरह जो देती हैं नव पल्लव ..नव पुष्प ..और फल। पत्र पुराने होते ही पीले पड़ जाते हैं…परम्परा पुरानी होते-होते रूढ हो जाती है और तब जन्म लेता है एक पाखण्ड। नीचे की ओर अधोगामी हो आयीं आड़ी-तिरछी शाखाओं-प्रशाखाओं को छाँटा न जाय तो अरण्यवत आचरण करने लगते हैं पेड़-पौधे। अरण्य का अपना धर्म होता है …उसकी अपनी परम्परा होती है जो हमारे लिये युक्तियुक्त नहीं होती। इसलिये विचारों का परिमार्जन आवश्यक है ….परम्पराओं की छटाई आवश्यक है। भारत में कोई भी वृक्ष कहीं भी उग आता है उसकी छ्टाई नहीं कर सकते…पर्यावरण और वन विभाग से अनुमति लेनी पड़ेगी जो कभी भी उत्कोच दिये बिना प्राप्त नहीं होती इसलिये यहाँ स्सब कुछ अस्तव्यस्त है….रूढ़ियों की आड़ी-तिरछी शाखायें-प्रशाखायें पाखण्ड बनकर पूरे समाज को अरण्य बना रही हैं। चलिये हम प्रारम्भ करते हैं ….अपनी रूढ़ियों को काटने-छाटने का काम शुरू करते हैं। आज की प्रस्तुति में आपकी शैली कुछ काव्यात्मक रही है। किंचित मौसम का प्रभाव है या फिर अदरख वाली गर्म चाय और पकौड़ों की ग़र्माहट का जिसने मन के तार झंकृत कर दिये और लेख काव्यात्मक हो गया।
जाने कितने आडम्बरों में जी रहे हैं हम।
सही कहा, यदि अपना काम सही से कर रहे हैं, कर भी समय पर भर रहे हैं , तो एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य निभा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि यहाँ कितने ऐसा कर रहे हैं। आखिर डुबकी लगाकर पाप तो धुल ही जाते हैं।
लोग सबके लिये और परिवेश के बारे में सोचेंगे तो इस स्तर तक पहुँच जायेंगे।
वृक्ष-वृक्ष में फर्क है। सरकारी और नीजी में फर्क है। गूँगे और आँख तरेरने वाले में फर्क है। समझदार और नासमझ में फर्क है।
सोनल जी! आपने तो कतई धो डाला। छीः …कितना गन्दा होता है यह प्राणी। क्यों याद दिला दी? …मगर अतिशयोक्ति भी नहीं कहूँगा इसे …सच ही, हम सब गन्दगी में रहने के अभ्यस्त हो गये हैं।
सही कहा सोच सोच का फर्क है …..पर देश कोई भी हो नव जीवन का स्वागत हमेशा से होता रहा है 🙂
भारतीयों के बारे में काहे की परम्परा, काहे की संस्कृति. यहां बस एक ही चीज है, स्वार्थ.
परंपरा अगर समाज के विकास में भागीदार हो और पाखंड से परे हो तो , उसका निर्वहन सर आँखों पर. अमूमन देखा गया है की हम अपने परंपराओं को उनके पुराने रूप[ में देखना चाहते है लेकिन उनको आज की जरूरतों की हिसाब से ढालने में हिचकते है , जो कई बार हमारे विकास में बाधक ही होती है . आपके विचारोत्तेजक लेख में सटीक दृष्टिकोण मुख्य कारक है . बहुत सुन्दर .
लगता तो नहीं कि इतना मुश्किल है यह काम,मगर कोई करे तब न… सब सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं। अपना उल्लू सीधा होना चाहिए किसी भी तरह बस, दूसरा जाये भाड़ में हमारा काम हो गया बस हमे और क्या चाहिए जैसी सोच जब तक बदल नहीं जाती, तब तक कुछ नहीं होसकता क्यूंकि ताली दोनों हाथों से बजती है एक से नहीं…
अगर हम मे हर एक अपनी ज़िम्मेदारी समय समय पर निबहता रहे … तो कभी कोई दिक्कत न हो !
चल मरदाने,सीना ताने – ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
वाकई शिखा बहुत सटीक बात कही….
हम परंपरा के नाम पर आज भी अनपढ़ों की तरह व्यवहार कर रहे हैं और दूसरी ओर हमारी कई सुन्दर परम्पराओं को दकियानूसी ठहरा कर हम आधुनिक भी हो गए हैं….
अनु
सच कहा …. परम्पराएँ वक़्त के साथ बदली तो हैं पर अभी भी बहुत सी बाते हैं जो हम बोझ की तरह ढो रहे हैं । यदि सब अपनी ज़िम्मेदारी समझ उसे निबाहने लगें तो सारी समस्या ही खत्म हो जाएगी …. विचार बहुत सुंदर है…. सोनल का कमेन्ट तीक्ष्ण कटाक्ष है ।
इतनी निस्बत और ख़ूबसूरती से कोई सोचे लंदन में बैठ कर …!
वे सारी बातें, जो हमारे जीवन को, हमारे परिवेश को,हमारे समाज-जीवन
को भरपूर जीने लायक बनाए …! पर शिखा जी, फ़िलहाल तो आपकी यह
उपयुक्त परिकल्पनाएं हमारे लिए एक यूटोपिया (utopia) सी ही है …
पर हाँ ! उस जीवन सुधार की ओर हम कुछ बढे ज़रूर हैं (developing)।
शिखा जी, आपकी लेखन शैली में, वैचारिक अभिव्यक्ति में एक नवीनतम उजियाला
सा है, एक चमकती सी आधुनिकता… वैसी आधुकनिकता जिसे जीने को मन
लालायित हो। खिड़की से बाहर देखकर वहां का जो जीवंत दर्शन आपने 'स्पंदन'
में उकेरा है वह कलात्मक भी है, रसात्मक भी और स-उत्साह पठनीय भी …
'स्मृतियों में रूस' की अभिव्यक्ति में जो सहज तरोताज़ापन था वह यहाँ एक
सुघड़ लेखकीय परिपक्वता का ताज़ा-ताज़ा एहसास कराए, जो एक एस्टाबिलिष्ट
लेखन में ही मिले …
इस सुन्दर आलेख के लिए आपको निरंतर धन्यवाद …
समय बदला ,स्थितियाँ बदलीं उसी के अनुरूप प्रश्न उठते रहे पर प्रतिगामी शक्तियाँ निहित स्वार्थ के लिये गुमराह करने की कोशिश करती हैं.सुअर तो सुअर ही रहेगा उसे नियंत्रित कर गंदगी हटाने का काम करना तो फिर भी करना है न!
समय के साथ परम्पराओं को बदलना होगा,,,
बहुत सुंदर उम्दा आलेख ,,,
recent post: मातृभूमि,
विचारणीय बात है … समां के साथ जो समाज बदलाव लाता रहा अपने अंदर वो प्रगतिशील रहा … हम … जो मानते हैं परिवर्तन संसार का नियम है … उसी सिद्धांत को भुला बैठे … तत्व ज्ञानी कहलाने वाले तत्व को पकड़ बैठे ज्ञान को भूल गए …
अपने साथ ही अपने परिवेश के प्रति सजगता और जिम्मेदारी का भाव ज़रूरी है
बहुत गहरी और विचारणीय बात है मगर सब समझें तब ना
bahut sundar laga yah lekh ..kuch baaten sochna bahut jaruri hai
जाने कितनी परम्पराओं का बोझ ढो रहे हैं हम, लेकिन कभी नहीं सोचते कि उनमें भी समय के साथ कांट छांट की ज़रुरत है…बहुत सार्थक आलेख…
मिशिगन राज्य की ट्रेवर सिटी (Traverse city )पहुंचा दिया आपने .गत जुलाई के तीसरे सप्ताह में हमने भी वहां यह अद्भुत नजारा देखा फर्क यह था वह पेड़ अपनी उम्र जी चुका था .पूरे पेड़ का बुरादा बना दिया गया ,गेरुआ रंग में रंगा और पेड़ों की जड़ों की गिर्द घेरे में बिखेर दिया गया .एक पेड़ ही हैं जो अपनी खुद खाद भी बन जाते हैं और हम ?
हमारी व्यवस्था पूरे वृक्ष का जड़ उन्मूलन मांग रही है .हर जगह सरकार है सर्व व्यापी है सरकार जिसका मतलब भारत में अव्यवस्था होता है .पुलिस भी सरकार है शिक्षा सेहत भी .
रांगेय राघव के लिखे विचारपूर्ण लेख याद आ गए इस पोस्ट को पढ़के जिनमें दर्शन ,विश्लेषण
गुंथा रहता था .
वो 'चुप्पा मुंह' बोला आज
बिंदास बोल
वो 'चुप्पा मुंह' बोला आज .कहा: इन हालातों में पाक के साथ रिश्ते रखना
मुमकिन नहीं .पाक मुआफी मांगे अपने किये की .
इसी के साथ कई शौकिया चैनलिए मुंह खुले .कुछ ने कहा पाक में प्रजा तंत्र
खतरे में हैं फिलवक्त .हमें कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे वहां
प्रजा तंत्र को ख़तरा पहुंचे .
पूछा जा सकता है इन गाल बजइयों से तब क्या पाक से पिटते रहें ?
सरकार में जितने आदमी उतने मुंह कल विदेश मंत्री कह रहे थे .एक फ्लेग
मीटिंग्स से कुछ नहीं होगा सिलसिला शुरू हुआ है धीरे धीरे ही इसके नतीजे
सामने आयेंगें .
प्रधान मंत्री आज कुछ हट के बोल रहें हैं हालाकि उनकी वाणी में तेज़ कभी
नहीं होता .समभाव बनाए रहतें हैं वीर रस की बात भी करुण रस में कहतें
हैं .
हमारा मानना है पाकिस्तान नाम की कोई संस्था ही नहीं है .पाक
हिन्दुस्तान का समधियाना है क्या ?धर्म के आधार पे हुआ था भारत का
विभाजन .विभाजन के बाद से कोई हिन्दू पाकिस्तान नहीं जाना चाहता
.अलबत्ता मुसलमान भारत के पाक से रिश्ते बेटी रोटी के बनाए हुए हैं
.यही लोग पाक जातें हैं .
हिन्दुस्तान का सेकुलर चेहरा है मुसलमान .क्या सिर्फ इन्हीं के लिए इस
मुल्क से सम्बन्ध बनाए रखा जाए ?
मुसलमान पाक के यहाँ जासूसी करने आतें हैं .
पूछा जा सकता है ऐसे गर्भच्युत राज्य में हमारे राजदूत क्या कर रहें हैं और
किसलिए बने हुए हैं ?
किसलिए पाक के नागरिकों को वीजा ज़ारी किया जाए ?
क्या राजदूत हाफ़िज़ सईद से संवाद बनाए रखने के लिए हैं या आई एस
आई से ,उग्रवादियों से या फिर लश्करे तैयबा से ?आखिर पाक नाम की शै
है किस चिड़िया का नाम ?और क्यों हम उससे सम्बन्ध बनाए रहें .
एनफ इज एनफ 1948 के बाद से ही पाक कबीलाई मुद्रा में हिन्दुस्तान को
गुर्राए जा रहा है यह पिद्दा का शौर्बा .अब देश और नहीं सहेगा इस जारज
संतान को .
प्रस्तुतकर्ता Virendra Kumar Sharma पर 8:19 am 6 टिप्पणियां:
http://veerubhai1947.blogspot.in/
अधिकतर मामलों में तो हम बस बोझ ही ढो रहे है. काश कुछ बदल जाये तो दुनिया सुहानी हो जाये. शुभकामनाएं.
रामराम.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 17-01-2013 को यहाँ भी है
…. आज की नयी पुरानी हलचल में ….
.. आज की नयी पुरानी हलचल में …फिर नया दिनमान आया ……संगीता स्वरूप
. .
बहुत अच्छी रचना!
हम खुद पहले अच्छे नागरिक बनें तभी सुधार हो सकेगा! हरेक को अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करना चाहिए… देश खुद-ब-खुद तरक़्क़ी करेगा…
~सादर!!!
परम्पराओं को प्यार से धो पोंछ कर साफ करने की ज़रूरत है …तोड़ देना ही कोई एकमात्र हल नहीं है।
पेड़ों , पत्तियों का यह पर्यावरणीय सुनियोजन बहुत भाया .
सामाजिक परम्पराओं को निभाते ये सवाल हम सबके सर चढ़ बैठते हैं , अनजाने ही जाने कब हम इनमे शामिल भी हो जाते हैं .
इन दिनों विवाह की रस्मों में विधवाओं के साथ किया जाने वाला उपेक्षित व्यवहार बहुत खल रहा है , कुछ कहने के मतलब कि हर जगह अपनी होशियारी दिखाना , क्या करें !!
परम्परा के कल्याणकारी पक्ष सुखद वर्तमान और उज्जवल भविष्य के मजबूत स्तम्भ होते हैं। चुनाव व्यक्ति विशेष की सोच से जुडा है। कर्तव्यनिष्ठा के संदर्भ में भी यही नज़रिया अपना सकते हैं।
उपदेश का अंत मुझे नहीं दिखता .इसके कई पहलु हैं, कभी निरंतर सुधार , तो कभी बौधिक आधिपत्य का लोभ ..
अभी इस विचारधारा से अधिसंख्य लोग जुड़ नहीं पाए हैं। ऐसा हो जाए तो क्या बात है।
मैं तो हीरों के शहर में बैठा हूँ.. जानता हूँ कि हीरों की चमक और कीमत उनके तराशे जाने के बाद ही बढती है.. परमप्रायें तराशी जाएँ तो उनका सम्मान बढाता है, वरना वे जर्जर होकर रूढियों में बदल जाती हैं.. जिनकी किस्मत में ढोना और ढाना ही लिखा होता है!!
एक घटना से उपजा इतना सुन्दर सन्देश!!
जर्जर पेड़ो और जड़वत सी कुछ अपनी परम्पराएं धराशायी हो जाएँ तभी बेहतर-अच्छा चिंतन
आगे बढ़्ना है तो जंगलो की काट-छाट जरुरी होजाता है..बहुत बढ़िया..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति. हार्दिक बधाई.
सुपरलाइक !!!!
इस तरह की टहनियां काटने की हिम्मत करने में भी हमारे यहाँ बहत वक़्त लगेगा | कब कटेंगी, भगवान् ही मालिक है !!!
व्यवस्था की सड़ांध या सड़ांध की व्यवस्था …. ?
विदेश में टेक्स भरने की परम्परा है लेकिन भारत में टेक्स चोरी की है। आज लाखों छात्र यहां से डिग्री लेकर विदेश जा बसते हैं, बिना टेक्स चुकाए। करोड़ो बच्चे यहां रहकर भी परिवार का टेक्स नहीं चुकाते। अपने कर्तव्यों के प्रति कोई सजग नहीं है बस उपदेश देने को सजग हैं।
आदरणीया अजित जी , ये बात सही है की हमारे कुशाग्र छात्र , जिनकी पढाई पर देश का पैसा खर्च होता है वो डालर की चमक में यहाँ से दूर चले जाते है . लेकिन इसका दूसरा पक्ष ये भी है की हिन्दुस्तानी पालक भी अपने बच्चे को अमेरिका और यूरोप में देखना चाहते है . बिरले ही ऐसे होते है जिनको मौका मिला और वो अपने देश को चुनते है . तीसरी बात , भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजे गए विदेशी मुद्रा का महत्वपूर्ण स्थान है . एक बात और एक सर्वे से स्पष्ट हुआ है की भारतीय प्रवासी दुनिया के किसी और देश के प्रवासी से ज्यादा पैसा अपने देश में भेजते है..
इमानदारी की अपेक्षा सब दूसरों से करते हैं परन्तु खुद को नहीं देखते कि वह कितने ईमानदार हैं. विचारोत्तेजक आलेख.
vyavastha me sahyog dekar hi isko behtar banaya ja sakta hai… !!
कमाल का बिम्ब संयोजन किया है शिखा.सूखी टहनियों से सूखे-मृतप्राय रिवाज़ों के चलन की तुलना अद्भुत है. कुछ भावुक सी करती… बहुत शानदार पोस्ट.
Hmm it looks like your website ate my first comment (it was extremely long) so I guess I’ll just sum it up what I wrote and say, I’m thoroughly enjoying your blog. I as well am an aspiring blog blogger but I’m still new to everything. Do you have any helpful hints for first-time blog writers? I’d really appreciate it.
Thanks again for the blog article.Really thank you! Cool.