दूसरे कमरे से आवाज़े आ रही थीं .एक पुरुष स्वर -..” इतना बड़ा हो गया किसी काम का नहीं है …इतने बड़े बच्चे क्या क्या नहीं करते ..जब देखो टीवी और गेम या खाना ..जरा भी फुर्ती नहीं है ..एकदम उत्साह विहीन .ना जाने क्या करेंगे अपनी जिन्दगी में …”
फिर एक महिला का स्वर आया …” अरे अहिस्ता बोलो ..मेहमान हैं घर पर ..क्यों पीछे पड़े रहते हो .बच्चा है अभी, क्या क्या करेगा ..लगा तो रहता है बेचारा सारा दिन ..
फिर एक दबी हुई आवाज़ आई मैं बोर्डिंग चला जाऊंगा ..आपसे दूर जाना चाहता हूँ जितना दूर हो सके.... ..उसके बाद १२ साल का एक लड़का मूंह फुलाए बाहर निकला ..आँखों से पानी गिरने को बेताब पर घर में मेहमानो की खातिर होटों पे मुस्कान लिए .
उस मासूम के अन्दर की हलचल मुझे अन्दर तक हिला गई …एक दस साल का बालक स्कूल जाता है ,फिर आकर ट्यूशन जाता है ,फिर आकर होम वर्क करता है और फिर कोई एक्स्ट्रा करिकुलर क्लास…..सुबह के ७ बजे से रात के ८ बजे तक सांस लेने की फुर्सत नहीं ..उसपर पढाई का इतना बोझ की २ % भी कम हुए नंबर . कि बस खैर नहीं …उसपर पिता के ये ताने …जो खुद अपने काम और दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं कि फुर्सत नहीं कभी यह बैठकर सोचने की कि बच्चे के मन में क्या है ? कभी पास बैठकर ये चर्चा करने की बेटा किस कार्य में निपुण है और क्या करना चाहता है .
हमारे भारतीय समाज में लड़कियां तो फिर भी बच जाती हैं पिता के ऐसे तानो से ..यह कह कर कि अरे वो तो लड़की है ” हाँ ठीक भी है उसे तो ये ताने सुनने ही हैं ससुराल जाकर ..पर बेटा ..? उसकी तो जैसे ये कसर पिता ने ही पूरी करने की ठानी होती है .शायद यही रीत है .एक पिता अपने बेटे को सुपर हीरो के रूप में देखना चाहता है .वह चाहता है उसका बेटा वह भी करे जो वह खुद करता आया है,… और वह भी करे जो वो खुद कभी ना कर सका ,… और वह भी जो वो करना चाहता था पर नाकाम रहा . ..बेटे के स्कूल में नंबर भी सबसे अच्छे आने चाहिए , उसे क्रिकेट टेनिस में भी अव्वल होना चाहिए ,उसे गाना भी गाना चाहिए, घर की बिजली के फ्यूज भी ठीक करने आने चाहिए और गाड़ी का पहिया भी बदलना चाहिए और पर्सनालिटी ऐसी कि हर लड़की आहें भरे ..यानि कि पैदा होते ही उस मासूम को सुपर मेन होना चाहिए. एक ऐसा ब्लेंक चेक जिसपर वो जो चाहें भर लें.
आखिर क्यों ऐसा होता है क्यों हम अपने अरमानो को अपने बच्चों पर लादना चाहते हैं? हम जानते हैं कि एक पिता अपने बेटे का दुश्मन नहीं होता ..वो हर हाल में उसे काबिल बनाना चाहता है उसका भला चाहता है ..फिर क्यों वह यह भूल जाता है कि उस बच्चे का अपना भी कोई व्यक्तित्व हो सकता है .उसकी अपनी एक पसंद हो सकती है , जीने का अपना तरीका हो सकता है ..जो वर्तमान परिवेश से प्रभावित होता है .क्यों वह चाहता है कि उसका बेटा भी उन्हीं सब परिस्थितियों से गुजरे जिनसे वह कभी गुजरे हैं ….
अक्सर हम पिताओं को यह कहते सुनते हैं ..अरे हम इनकी उम्र के थे तो दूकान संभाल ली थी …या फिर ..इतनी उम्र में तो दिल्ली से मेरठ हम अकेले आ जाया करते थे ..और इन नबाबजादों को देखो अकेले स्कूल तक नहीं जा सकते .
अब कोई इन्हें समझाए कि जरुरी तो नहीं कि आपने जो किया वो आज भी ठीक ही हो ..आज के हालातों में पढाई का बोझ इतना ज्यादा है कि बच्चे के पास कहीं और समय लगाने का वक़्त ही नहीं ….
या फिर आज के परिवेश में एक बालक का अकेले सफ़र करना सुरक्षित है.?
हम ये अच्छी तरह समझते हैं ..फिर भी एक अबोध को इस तरह हर वक़्त ताने देना कहाँ तक उचित है ..माना कि हम उनके रचियता है ,पालनहार हैं और उनकी भलाई के लिए कुछ कहना भी हमारा हक़ है .परन्तु इससे एक बाल मन पर क्या असर पड़ता है क्या कभी हम सोचते हैं ?वो मन ही मन आपको अपना दुश्मन मान लेता है ..अनजाने ही उसमें बगावत की भावना जन्म लेने लगती है ,.वह खुद को बचाने के लिए आपसे पीछा छुड़ाने की सोचने लगता है और अपने मुख्य मकसद से दूर होता जाता है .उसके मन से पिता के लिए आदर भाव जाता रहता है और वह हर बात की अवहेलना शुरू कर देता है …दुसरे बच्चों से तुलना करने पर उसके मन को ठेस पहुँचती है और वह कोई भी सकारात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं हो पाता .
क्या कभी हम ये सोचते हैं कि उसे सुपर हीरो बनाने के चक्कर में हम उसकी क़ाबलियत के अनुसार कुछ करने तक का आत्मविश्वास भी छीन लेते हैं . सब कुछ सिखाने के चक्कर में हम उसका व्यक्तित्व अनजाने ही इतना कान्फुसिंग बना देते हैं कि वो बच्चा समझ ही नहीं पाटा कि आखिर उसके लिए अच्छा क्या है ..और उसे क्या करना चाहिए. और सब कुछ करने के चक्कर में वो कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता. वही थोडा सा विश्वास ,थोड़ी सी आत्मीयता और थोड़ी सी सुरक्षा भावना के शब्द उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं ..हर बच्चे के लिए उसका पिता एक रोल मॉडल होता है, उसका हीरो होता है ..पिता द्वारा दिया गया थोडा सा भी प्रोत्साहन बच्चे के मनोबल को बड़ाने में अहम् भूमिका अदा करता है .
एक पिता अपना तन – मन लगा देता है बच्चों की परवरिश में.अपनी पूरी क्षमता से काम करता है कि बच्चों को बेहतरीन जिन्दगी दे सके. फिर क्यों नहीं वो कुछ पल निकाल कर उसके मन को समझने की कोशिश कर सकता ?.क्यों अपनी असीमित इच्छाओं के लिए एक मासूम बच्चे से उसका बचपन अनजाने ही छीन लेना चाहता है ?क्या हमें नहीं जरुरत कि कुछ पल निकाल कर इसपर सोचें .क्या एक पिता का ये फ़र्ज़ नहीं कि अपनी इच्छाओं को परे रख एक बार .अपने नो निहालों के मन में झांके . उन्हें एक सुलझा हुआ इंसान और बेहतर नागरिक बनाने के लिए.
(चित्र गूगल से साभार )
बहुत सटीक मुद्दा उठाया है आज….. माता -पिता अपने अधूरे सपने बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं और भूल जाते हैं कि उन पर कितना अत्याचार कर रहे हैं…बच्चों के मनोविज्ञान को बखूबी लिखा है…सच तो यह है कि जब हम अपनी तुलना किसी और से बर्दाश्त नहीं कर सकते तो किशोर बच्चे तो और भी भावुक होते हैं….इस लेख पर हर माँ और पिता को सोचना चाहिए….
प्रेरणादायक लेख
बढ़ते प्रतियोगी माहौल में अनजाने ही माता-पिता बच्चों पर दबाव बनाये रखते हैं …
बच्चों की इच्छा का सम्मान और दोस्ताना व्यवहार किया जाना चाहिए ..
Nice Post ..!
सोचने को मजबूर करता प्रासंगिक लेख |
Bahut sahi kaha..nahi,ladkiyaan nahi bachatin…yah sab karke ghar ke kaamon me nipuntaa apekshit hoti hai!
Nice post.Dawab bacche ke liye theek nahee……..
ha guide kare ye hee paryapt hai.
aabhar
बच्चों की परवरिश इस उम्र में जब वह होते हैं निहायत सोच समझ कर उनकी मानसिकता को ध्यान में रख कर ही की जानी चाहिए.सही विषय को सही ढंग से उठाया आपने.
शहरोज़
सिर्फ़ पिता ही नहीं माँ भी कई बार ऐसा करती है …..बच्चों को दोनों की जरूरत समान रूप से होती है ….और सिर्फ़ बेटे ही नहीं किसी न किसी रूप में बेटी के साथ भी ऐसा होता है …………..
ये सच है की हम अपनी संतान(खासकर पुत्र–, आप कहती हो तो मान लेता हूँ) से वो सब आशाए रखते है जो हमने अपने जीवन में हासिल नहीं किया. या जो हमारे लिए दिवास्वप्न बना रहा.. हमारी विशाल ख्वाहिसों और वर्जनाओ के बीच , बचपन पिस रहा है .हम अपने बच्चो को newton भी बनना चाहते है aur पेले भी. कई बार हमारी ख्वाहिसों का बोझ बचपन ढ़ो नहीं पाता है और फिर हमारे समाज को मिलता है एक ऐसा नागरिक जो किसी भी विशिष्ट कार्यक्षेत्र के लिए उपयोगी नहीं हो सकता.. आज के ज्वलंत मुद्दे पर आप द्वारा उठाया गया ये प्रश्न अगर एकभी माता -पिता को सही राह दिखाता है तो ये सार्थक होगा.
बहुत ही सटीक मुद्दा उठाया है आपने
सही कहा है आपने कि बच्चे के भी सपने हैं
भला उनके सपनों में खलल डालने वाले हम कौन होते हैं.
आपकी पोस्ट को पढ़कर आमिर की फिल्म तारे जमीं की याद भी आई.
वह दृश्य भी याद आया जब बच्चे को मां-बाप अपने पास न रखकर दूसरी जगह पर पढ़ने के लिए भेजते हैं.
चूंकि आप एक पत्रकार रही है इसलिए सटीक मुद्दों को उठाना आपको बखूबी आता है.
मेरी बधाई स्वीकार करें.
बच्चे की बुद्धि के विकास के साथ उसकी सोच पिता के प्रति परिवर्तित होती रहती है। पिता कोई उसका दुश्मन नहीं होता। हां लेकिन वह अपने अनुभवों से पुत्र का मार्गदर्शन करना जरुर चाहता है।
आप कृपया इसे भी पढें
सही कहा……………इसी सोच को तो बदलना है और अब हर किसी को ये समझना होगा कि बच्चा क्या चाहता है, उसके मन मे क्या है?
अभी वह कमजोर है, आश्रित है पर यही बच्चा थोडा बडा होने पर पिता की सही और गलत सभी बातों को अनसुना करने लगता है। यानि उसका अवचेतन बचपन में उसके साथ की गई ज्यादतियों और क्रोध का बदला लेता है।
प्रणाम
देश हो या विदेश, एक बेहद आम से मुद्दे की रोचक पड़ताल… |बस्ते का बढ़ता बोझ, हिंसा उगलते कार्टून चैनल और ऊपर से वर्कोह्लिक एवं परफेक्शनिस्ट टाईप के पापाओं के साथ हमारे बच्चे बड़ी मुश्किल वाले दौर में हैं | ….एक तरफ हम जैसे डैडी भी हैं जिनको धमकी दी जाती है कि पापा मेरी पुलिस ड्रेस नहीं आई तो सोच लेना| पिताओं का भी पूरा दोष यूं नजर नहीं आता कि वे चाहते तो भला ही हैं मगर आपने सही लिखा है कि अपने काम और दिनचर्या में वे इतने व्यस्त हैं कि फुर्सत नहीं कभी यह बैठकर सोचने की कि बच्चे के मन में क्या है ? कभी पास बैठकर ये चर्चा करने की कि बेटा किस कार्य में निपुण है और क्या करना चाहता है|
nice
डिओसा
सारगर्भित और दिशाबोधक लेख,
सही कहा आपने सफलता के लिए हर कसौटी पर बच्चों को चढाया जा रहा है मासूम बचपन को,
अमूमन हर माता पिता अपने बच्चे को ना सिर्फ सफल बल्कि सबसे आगे देखना चाहते हैं, और ये भी जानते हैं कि बच्चा, आखिर है तो बच्चा ही, नादान, जितना बोझ उस पार होगा उतना ही वाह दिशाभ्रमित और नकारात्मक सोच को रखेगा, ऐसे मैं सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि माता पिता क्या करें कि सांप भी मर जाये और लाठी कि नौबत ही ना आये,
ऐसे मैं सभी पेरेंट्स से निवेदन है कि बच्चे को बच्चा बनकर बड़ा होने दें, सीधे बड़ा ना बना दें, ये सभी चाहते हैं कि उनका बच्चा भविष्य मैं सुखमय और सौहाद्रपूर्ण जीवन व्यतीत करे लेकिन उसके आने वाले कल के लिए आज कि बलि ना चढ़ने दें, बच्चे मैं जो नासिर्गिक गुण हैं उनको आगे आने दें, ना कि अपनी सदय इच्छायें उन पर लाद दें, ये नहीं कि आप अनुसाशन प्रिय ना बने, बने लेकिन हिटलर ना बने, उम्मीद तो करैं लेकिन जरुरी नहीं कि उम्मीद हर हाल मैं पूरी होनी चाहिए, बच्चे के अन्दर भी एक इन्सान है उसको उसके मन से जमीन पर आने दें, विश्वास रखिये अगली पीढ़ी के सचिन तेंदुलकर, सायना नेहवाल, इन्ही बच्चों मैं हैं, बस सतर्क रहें, आपका बच्चा आपके लिए बेहतर ही करके देगा,
हम मासूम बचपन से किसी भी तरह के बड़प्पन कि उम्मीद ना करके अगर खुद को उदार बनायेंगे तो यकीन मानिये आपका बच्चा भी राम-लक्ष्मण, और कृष्णा -बलराम ही होगा लेकिन हमें भी उसके लिए कौशल्या-दशरथ, और यशोदा-नन्द, देवकी-वासुदेव, तो नहीं मगर कुछ तो उन जैसा बनाना ही होगा,
"क्यों वह चाहता है कि उसका बेटा भी उन्हीं सब परिस्थितियों से गुजरे जिनसे वह कभी गुजरे हैं …"
बहुत ही जायज है यह सवाल…
कहीं पढ़ा था कि किसी भी पैटर्न को भंग करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है…ज्यादातर लोग ,जो परिपाटी चलती आ रही है,उसे ही निभाये चले जाते हैं, उस चक्र को तोड़कर अलग सा कुछ करने की कोशिश नहीं करते…जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए,तब की और अब की परिस्थितयों में बहुत अंतर होता है.
कई बार ये भावना भी काम करती है कि हमें तो ये सुविधाएं नहीं मिली….जब ,बच्चों को इतनी सुविधाएं मिल रही हैं तो परिणाम भी मन के अनुसार चाहिए. पर पिताओं को भी दिमाग की खिड़कियाँ खोल कर नई सोच को अंदर आने देना चाहिए .
और हर हाल में quality time बिताना बहुत जरूरी है.तभी वे बच्चों के करीब आ सकेंगे और उनकी परेशानियों से अवगत हो सकेंगे..
बहुत ही सामयिक लेख…घर घर की कहानी को उजागर करता हुआ.
घर घर की कहानी .. आज कैरियर बनाने के लिए पूरा दबाब बच्चों पर है .. पढाई में भी अव्वल रहना है और हर क्रियाकलापों में भी .. बहुत मुसीबत में हैं ये मासूम !!
प्रासंगिक और सामयिक मुद्दा
बहुत व्यवस्थित आलेख
सही समय पर सटीक पोस्ट!
—
अभिभावकों को शिक्षा देती हुई!
आपकी पोस्ट से सबक लिया कि अपने बच्चों पर ये सब नहीं थोपूँगा… 🙂
आपकी पोस्ट से सबक लिया कि अपने बच्चों पर ये सब नहीं थोपूँगा… 🙂
आपकी पोस्ट से सबक लिया कि अपने बच्चों पर ये सब नहीं थोपूँगा… 🙂
एकदम भारतीय मानसिकता क्या ऐसा विदेश में भी होता है ?
बहुत उचित मुद्दा -मुझे लगता है ऐसे दबावों से बच्चो का सहज विकास रुक जाता है !
@डॉ महेश सिन्हा ! जी एकदम ठीक कहा आपने भारतीय मानसिकता वो वही रहती है चाहें वे कहीं भी रहें तो विदेशों में भी वही है ..परन्तु बिदेशियों में यह मानसिकता नहीं देखी मैंने वहां बच्चे की रूचि और क़ाबलियत के हिसाब से उसे गाइड किया जाता है.
ekdum sahi likha aapne, aajkal maata-pita bachho ko harfanmaula banana chahte hain,bacche ki karyashamta se jyaada karya karvaana chahte hain.jab me tution liya karti thi to aise maata-pita se aksar paala padta tha.baccho ko maata-pita ke aadesho ke bhoj ke neeche dabte hue dekha hain.aapne likha ladkiyan taano se bach jaati hain to galat hain mere pitaaji hum behno ke peeche haath dho kar pade rehte the engineering ki padhai karte waqt meri didi itni mehnat karti thi lekin mere pitaji ko wo kum hi lagta tha,is sandharbh main mera bhai bada khushkismat hain use aisa kuch sunne nahi mila.
बच्चों से तो हम बडी बडी अपेक्षाएं रखतें है, लेकिन वह आपसे क्या मांग रहे है…इस पर ध्यान देना हम भूल जाते है!… बच्चों के बाल मन पर यह बात बहुत ही गहरा असर डालती है…एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तर्फ आपने ध्यान खिंचा है शिखाजी, धन्यवाद!
प्रेरक पोस्ट.
इसे तो अखबार में प्रकाशित होना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें.
एक तो ऐसे ही मासूमों का बचपन बदले हुए माहौल ने छीन सा लिया है तिसपर ये सब थोपते जाना अनुदारता ही है !
ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने, बच्चों से आशायें और अपेक्षायें इतनी बढ़ा ली हैं हमने कि बचपन खो सा गया है।
प्रेरक पोस्ट लगी।
आभार।
ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने, बच्चों से आशायें और अपेक्षायें इतनी बढ़ा ली हैं हमने कि बचपन खो सा गया है।
प्रेरक पोस्ट लगी।
आभार।
बहुत सार्थक आलेख.
बाल मन बहुत कोमल होता है-हैंडल विथ केयर वाला.
उनसे एक संतुलन में व्यवहार करना पड़ता है.
पसंद आया आपका चिन्तन.
बहुत सुंदर बात कही, अकसर मै भी इस बारे बहुत सोचता हुं, जब भी भारत जाता हुं तो आप वाली ही बात पाता हु,बच्चो को अपना रास्ता खुद ढुढने देना चाहिये…. हां कभी कभी बेठ कर उन से सलाह मश्विरा कर ले लेकिन कोई बात थोपे नही.
धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
मैं समझता हूँ कि यह एक यादगार पोस्ट के रूप में मन में बसी रहेगी ।
लड़का न हो गया.. पिता के अतृप्त आकाँक्षाओं के घुटन को हरने वाला राजकुमार !
पर.. माँ ? वह भी तो गाहे बगाहे गिनवाती रहती है, मेरा बेटा मेरे लिये यह करेगा, वह करेगा.. पहाड़ खोद देगा !
लड़का यदि घर में सबसे बड़ा हुआ, तो छूटते ही उसे छोटे भाई-बहनों का सँरक्षक मनोनीत कर दिया जाता है, वह अलग !
आपने मध्यमवर्गीय मानसिकता के केवल पक्ष को ही रखा है !
Dr.अमर कुमार जी! मैं सहमत हूँ आपसे. माँ का भी पूरा योगदान है इसमें 🙂 पर वह चर्चा मैने अगली पोस्ट के लिए रख ली है.वर्ना लोग शिकायत करते हैं कि बड़ी हो गई पोस्ट 🙂
ऐसा मैंने होते बहुत देखा है अपने आस पास…एक मेरे दोस्त की ही कहानी है,
लेकिन मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ..मेरे घर वाले हमेशा मेरा साथ दिए…कुछ बातों को छोर दिया जाए तो उन्होंने कभी अपनी बात मुझपर या मेरी बहन पर थोपी नहीं 🙂
और न कभी कम नंबर आने पर गुस्सा हुए… 🙂
बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं
आपकी बात सोलह आना सत्य है। बस देखना यह है कि क्या हम भी कहीं ऐसा ही तो नहीं कर रहे? हमने कभी भी अपनी ईच्छा बच्चों पर नहीं थोपी। लेकिन मुझे एक बात अनुभव हो रही है कि बच्चे यह समझने लगे हैं कि हमारे माता-पिता ईच्छा रहित हैं। कभी मजाक में भी कुछ कह देने पर कहते हैं कि अरे आपको क्या चाहिए? आपतो हमेशा ही संतुष्ट हैं। इसलिए कभी ऐसे माता-पिता की व्यथा भी लिखें। व्यथा इसलिए लिख रही हूँ कि कभी कमियां निकालने में भी सुख होता है, अपेक्षाएं नहीं होने से जैसे सब कुछ थम सा जाता है।
सच है, अपनी अधूरी इच्छाएं बच्चे के माध्यम से पूरी करने का सपना और उन्हें बच्चों पर आरोपित करना बहुत गलत है, क्यों भूल जाते हैं ऐसे पिता अपना बचपन?
नमस्कार…
आपका आलेख अद्वितीय लगा..एक पूर्ण सत्य…जिसमे लिखा एक भी वाकया असत्य नहीं लगा…
आपका कहना बिल्कुल सही है… की…
"एक पिता अपने बेटे को सुपर हीरो के रूप में देखना चाहता है .वह चाहता है उसका बेटा वह भी करे जो वह खुद करता आया है,… और वह भी करे जो वो खुद कभी ना कर सका ,… और वह भी जो वो करना चाहता था पर नाकाम रहा ." हर पिता अपने बच्चों से एकदम यही चाहता है…
मेरे भाई एक दिन अपने बेटे को समझा रहे थे…की तुम्हें डॉक्टर "ही" बनना है…वे उस बच्चे से ये नहीं पूछ रहे थे की आप क्या बनना चाहते हो या आप क्या करना चाहते हो?, बल्कि वे अपनी पसंद उस पर थोप रहे थे की उसे डॉक्टर ही बनना है…और असल कारन मुझे पता है की वे खुद कई बार एम् बी बी एस की प्रवेश परीक्षा मैं बैठ चुके थे और नाकाम हुए थे…पर अब वे अपने बच्चे से चाहते थे की वो उनके सपने साकार करे…
आपने एक सामायिक एवं ज्वलंत विषय पर सबका ध्यान केन्द्रित किया है…आप प्रशंसा की पात्र हैं…
मेरी बधाई स्वीकारें…
दीपक…
सार्थक पोस्ट .. बिल्कुल सही मुद्दा उठाया है … माँ बाप जो खुद नही कर पाते वो बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं …
बेहद सामयिक और सटीक बात आपने कही इस पोस्ट के माध्यम से. अभिभावकों कों झकझोरती इस पोस्ट के लिये आपका आभार.
रामराम.
आप सबसे यही सहयोग चाहिए की आप सब इसके मेम्बर बनें,इसे follow करें और प्रत्येक प्रस्ताव के हक में या फिर उसके विरोध में अपने तर्क प्रस्तुत करें और अपना vote दें
जो भी लोग इसके member बनेंगे केवल वे ही इस पर अपना प्रस्ताव पोस्ट के रूप में publish कर सकते हैं जबकि वोटिंग members और followers दोनों के द्वारा की जा सकती है . आप सबको एक बात और बताना चाहूँगा की किसी भी common blog में members अधिक से अधिक सिर्फ 100 व्यक्ति ही बन सकते हैं ,हाँ followers कितने भी बन सकते हैं
तो ये था वो सहयोग जो की मुझे आपसे चाहिए ,
मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा हूँ की इसके बदले आप अपने-२ ब्लोग्स लिखना छोड़ दें और सिर्फ इस पर ही अपनी पोस्ट डालें , अपने-2 ब्लोग्स लिखना आप बिलकुल जारी रखें , मैं तो सिर्फ आपसे आपका थोडा सा समय और बौद्धिक शक्ति मांग रहा हूँ हमारे देश के लिए एक बेहतर सिस्टम और न्याय व्यवस्था का खाका तैयार करने के लिए
1. डॉ. अनवर जमाल जी
2. सुरेश चिपलूनकर जी
3. सतीश सक्सेना जी
4. डॉ .अयाज़ अहमद जी
5. प्रवीण शाह जी
6. शाहनवाज़ भाई
7. जीशान जैदी जी
8. पी.सी.गोदियाल जी
9. जय कुमार झा जी
10.मोहम्मद उमर कैरान्वी जी
11.असलम कासमी जी
12.राजीव तनेजा जी
13.देव सूफी राम कुमार बंसल जी
14.साजिद भाई
15.महफूज़ अली जी
16.नवीन प्रकाश जी
17.रवि रतलामी जी
18.फिरदौस खान जी
19.दिव्या जी
20.राजेंद्र जी
21.गौरव अग्रवाल जी
22.अमित शर्मा जी
23.तारकेश्वर गिरी जी
( और भी कोई नाम अगर हो ओर मैं भूल गया हों तो मुझे please शमां करें ओर याद दिलाएं )
मैं इस ब्लॉग जगत में नया हूँ और अभी सिर्फ इन bloggers को ही ठीक तरह से जानता हूँ ,हालांकि इनमें से भी बहुत से ऐसे होंगे जो की मुझे अच्छे से नहीं जानते लेकिन फिर भी मैं इन सबके पास अपना ये common blog का प्रस्ताव भेजूंगा
common blog शुरू करने के लिए और आपको उसका member बनाने के लिए मुझे आप सबकी e -mail id चाहिए जिसे की ब्लॉग की settings में डालने के बाद आपकी e -mail ids पर इस common blog के member बनने सम्बन्धी एक verification message आएगा जिसे की yes करते ही आप इसके member बन जायेंगे
प्रत्येक व्यक्ति member बनने के बाद इसका follower भी अवश्य बने ताकि किसी member के अपना प्रस्ताव इस पर डालते ही वो सभी members तक blog update के through पहुँच जाए ,अपनी हाँ अथवा ना बताने के लिए मुझे please जल्दी से जल्दी मेरी e -mail id पर मेल करें
mahakbhawani@gmail.com
ek aur sateek rachna.. sahi mai bahut gussa aata hai jab mummy ya daddy meri kisi aur bachchhe se tulna karte hain par shukra hai ki zayada nahi karte…
प्रतियोगिता के इस दौर में हमारी सोचने समझने की शक्ति पर भौतिक ता मूल रूप से हावी होती जा रही है और उसे ही तरक्की का मुकाम समझने लगे है फलस्वरूप भावनाओ की जगह कम बची है हमारे पिता ने जो ६० साल में हासिल किया था हमने ४० साल में और बच्चा वही सब २० साल में हासिल कर ले |इसमें ये भूल जाते है की सबकी क्षमता अलग अलग होती है |सूचना संचार की प्रगति से अपने बच्चो का मूल्याकन करना छोड़ दे आज के पिता |
बहुत अच्छा आलेख और सामयिक समस्या |
मैं तो यह लेख पढ़कर देख रहा हूं वह दृश्य जिसमे अपने बालक को मैं भी भरपूर सीख दे रहा हूं डांटते हुए। एकदम अंदर तक चुभी है, आपकी बात। फिर भी थोड़ा बहुत आंख का नियन्त्रण होना चाहिये। बहुत ही प्रभावशाली प्रसंग उठाया है आपने। शुक्रिया।
"@सूर्यकान्त गुप्ता जी ! बहुत कम लोग इमानदारी से स्वीकार करते हैं पर आपने किया ..बहुत धन्यवाद आपकी दृष्टि का ..मेरा लिखना सफल हुआ.
एक पिता अपना तन – मन लगा देता है बच्चों की परवरिश में.अपनी पूरी क्षमता से काम करता है कि बच्चों को बेहतरीन जिन्दगी दे सके. फिर क्यों नहीं वो कुछ पल निकाल कर उसके मन को समझने की कोशिश कर सकता ?.क्यों अपनी असीमित इच्छाओं के लिए एक मासूम बच्चे से उसका बचपन अनजाने ही छीन लेना चाहता है ?क्या हमें नहीं जरुरत कि कुछ पल निकाल कर इसपर सोचें .क्या एक पिता का ये फ़र्ज़ नहीं कि अपनी इच्छाओं को परे रख एक बार .अपने नो निहालों के मन में झांके . उन्हें एक सुलझा हुआ इंसान और बेहतर नागरिक बनाने के लिए.
___________________________________
didi..aap to ek kushal maovaegyanik mnochikitsak nikli…hahahaha…lekin aapne jo likha or jis trh likha..kmaal he…aapki scrift ek da tight thi..hila kr rakh diya aapne ……….u r great didi..bahut hi jan upyogi artical likha he dil se bdhaiyan..
shikha ji,
bahut bahut dhanyvaad itna badhiya aalekh likhne ke liye.
aisa lagta hai ki aapne har maa -pita vishesh kar ek komal man ki bhavnaao kobilkul samane rakh diya ho .yah udhed- bun har parivaar ke sadasyon ke beech chalti rahti hai.
mere man me bhi yahi vichar aa rahe hai jaise aapne mere man ki baat likh di ho.
poonam
vartaman samay me lagabhag sabhi bacche aisi isthitiyon ka samana kar rahe hai. mata-pita ki bhi apani apekshayen hai aur vyaktitva ki seemayen bhi hai.
sachmuch bahut he upyogi aur preranadayak aalekh hai. vishwash hai yah logo ko is disha me sochane par avashya vivash karega aur ek disha pradan karega..
main abhi phir aaunga…. yeh comment ek doosre ke lappy se kar raha hoon jaldi mein… mera net kharaab hai…. bahut miss kar raha hoon… abhi ….post ko…. aur aapko….
shikha di ….
maine hi janta hun ki is tarah ke career ko chunne ke liye maine ghar me kitni ladai ki hai ..kitni dant suni hai … aaj bhi mauka milte hi daddy kahte hain ki civils ki prep karo…chhota bhai to karne bhi ja raha hai … 🙁
bahut achhi post hai ..sabak dene wali hai …
बहुत सुन्दर कृति
यदि आप हर पैरे के बाद डबल स्पेस दे दिया करें तो इससे मुझ जैसे पाठकों को पढ़ने में सुविधा होगी। शेष यह विषय तो उचित ही है। हमने काफी सहा है। लेकिन अब,जीवन के इस मोड़ पर, अपने अभिभावकों के हर जुल्म को मुआफ कर दिया है।
सच में बहुत सही बातें लिखी हैं आपने… हर युग में माँ-बाप को अपने बच्चों से कुछ उम्मीदें रही हैं , पर आजकल ये कुछ ज्यादा ही हो गया है और सच में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों पर करियर का दबाव ज्यादा होता है… मेरे पिताजी कहा करते थे कि हमारे देश में माता-पिता अपने बच्चों को अपना गुलाम समझते हैं, मुझे लगता है हर जगह यही हाल है.
sach kaha tumne….vicharneey post
काश !! आप मेरे घर भी आ सकती, एक बार मेरे पापा को ज़रा समझा दीजिये प्लीज!!
खैर, अब जो होना था हो गया… अब मुझमें पापा बनने की तनिक भी इच्छा शेष नही रही 😛 आपके हर एक वाक्य ने अन्दर तक हिला दिया… बीच बीच में तो पीठ के पुराने दर्द उभर आ रहे थे… 😛 और ये स्पेशल
“घर की बिजली के फ्यूज भी ठीक करने आने चाहिए और गाड़ी का पहिया भी बदलना चाहिए और पर्सनालिटी ऐसी कि हर लड़की आहें भरे :P”
ये सब आता है जी!!
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अपनी धुन में अभिभावक अक्सर इन बातों को नजरअंदाज कर जाते हैं.
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