एक दिन स्कूल से आकर एक बच्ची ने कहा – मुझे एक साफ़ कपड़ा चाहिए हमें डी टी (डिजाइन एंड टेक्नोलॉजी) में शॉर्ट्स सिलने हैं। वह तभी ही प्राइमरी स्कूल से सेकेंडरी में आई थी सातवीं क्लास में। उसकी बात सुनते ही, बचपन से पनपी मानसिकता और पूर्वाग्रहों से युक्त मैं ..तुरंत पूछा, अच्छा ? फिर क्लास के लड़के उस पीरियड में क्या करेंगे ? अब चौंकने की बारी उस बच्ची की थी , बोली अरे जो हम करेंगे वही वे भी करेंगे , वो भी शॉर्ट्स सिलेंगे।
अब मैं अपने अतीत से वर्तमान में आई। हाँ ठीक तो है .जब क्लास एक , टीचर एक , तो पाठ अलग अलग क्यों भला।
उसके कुछ दिन बाद वह एक शॉर्ट्स बनाकर घर लाई, जिसमें उन्हें कटिंग, नाप और सिलाई के अलावा। कच्चा टांका करना , तुरपन करना, बटन लगाना आदि सभी सिखाया गया था। और यही नहीं “फ़ूड एवं टेक्नोलॉजी” एक विषय के अंतर्गत हर सप्ताह एक खाद्य पदार्थ भी बनाना सिखाया जाता था जिसकी सामग्री घर से मंगवाई जाती और छीलने , काटने से लेकर बेक करने , उबालने ,सेंकने ,सजाने और उस डिश की न्यूट्रीशन वैल्यू तक सारे काम सिखाये जाते हैं। फिर उनपर नंबर भी दिए जाते हैं। इस तरह पूरी बेसिक शिक्षा के आधार पर २ साल में उन्हें, एक जिम्मेदार नागरिक और बेहतर इंसानी जिन्दगी से जुड़े सारे काम जैसे – सूप, ब्रेड, पिज़्ज़ा, केक आदि बनाना, बेसिक सिलाई , छोटी मोटी रिपेयर,और बच्चों, बुजुर्गों की सेहत की देखभाल की शिक्षा दे दी जाती है। जिससे वह अपने काम स्वयं करने में तो सक्षम हो ही सकें, आगे अपनी रूचि के मुताबिक कैरियर चुनने में भी उन्हें मदद मिल सके। और यह काम क्लास के सभी बच्चे एक ही तरह से करते हैं फिर चाहे वे लड़के हों या लडकियां।
यानि घर समाज तो छोडो, शिक्षा के समान अवसर और समान हक़ देने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था भी लड़कों और लड़कियों में यह भेद करती थी। और बड़ी आसानी से मान और समझ लिया गया था कि घर चलाना , बच्चे पालना , खाना बनाना या सिलाई कढ़ाई करना सिर्फ लड़कियों का काम है।
हालाँकि तब भी घरों में बेटा और बेटी की परवरिश में भेद करना बहुत कम हो गया था। खाने में लड़कों को पौष्टिकऔर लड़कियों को कुछ भी बचा- खुचा खाना देना सिर्फ दादी नानी की कहानियों में ही दिखाई पड़ता था। परन्तु समाज और व्यवस्था में वह बहुत ही आसानी से ऐसे घुसा हुआ था कि कभी किसी को सवाल तक उठाने की जरुरत नहीं महसूस होती थी।
इसी तरह आठवीं के बाद (यू पी बोर्ड में आठवीं के बाद ही तब विषयों का विभाजन होता था/है ) जब कला और विज्ञान वर्गों के विभाजन की बात आई तो बिना एक बार भी विचारे हमने कला वर्ग चुन लिया। क्योंकि सुना था कि विज्ञान लेने से अगले साल मेंढक काटना पड़ेगा, और जिस जीव को देखने भर से अपनी रुह फ़ना होती हो उसे पकड़ कर उसकी शल्य क्रिया की बात अपने सबसे भयंकर सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी। परन्तु हमारी गणित की अध्यापिका को मेरा फैसला नहीं सुहाया और उन्होंने बुलाकर कहा “बाकी फैसला तुम्हारा है परन्तु तुम्हारा गणित अच्छा है अत: तुम्हें विज्ञान वर्ग लेना चाहिए”। अब असमंजस की स्थिति हमारे लिए थी। मैं गणित लेना चाहती थी, परन्तु उसके लिए विज्ञान वर्ग लेना जरूरी था, और विज्ञान लिया तो मेंढक काटना जरूरी था। थोड़े हाथ पैर इधर उधर मारे तो पता चला कि , कला वर्ग के साथ भी कुछ स्कूलों में गणित विषय का ऑप्शन है। जब यह मालूम किया ज्ञान लेकर अध्यापिका के पास पहुंचे, तो पता लगा कि यह ऑप्शन सिर्फ लड़कों और लड़कों के स्कूल के लिए है। क्योंकि वहां होम साइंस विषय नहीं है . अत: इसके बदले वह कला वर्ग में होते हुए भी गणित का चुनाव कर सकते हैं। जिससे आगे जाकर वह चाहें तो कॉमर्स में अपना कैरियर बना सकें। गुस्सा तो बहुत आया। पर कर कुछ नहीं पाए, मेंढक से अपने डर से पार पाया नहीं गया तो कला वर्ग में ख़ुशी ख़ुशी रम गए. परन्तु बाद में जब होम साइंस लेकर आगे पढने के लिए दूसरे किसी विश्व विद्यालय में पता किया तो पता चला कि आगे इस विषय में सिर्फ विज्ञान वर्ग की छात्राओं को ही प्रवेश मिलता है, क्योंकि यह होम “साइंस ” है होम “आर्ट” नहीं …अजीब औ गरीब बवाल था। मुझे पता नही कि तब भी वह लड़कों के लिए उपलब्ध था या नहीं। पर लड़कियों के लिए ज्यादती थी. यानि कि जबरदस्ती उन्हें वह विषय पढाया जाता था , जिसे कि बाद में वह लेकर आगे पढ़ कर उसमें कैरियर नहीं बना सकतीं थीं.बस घरेलू काम काज के लिए यह विषय उनके लिए अनिवार्य था।
उस समय न तो इतनी समझ थी न इतना हौसला कि इस मुद्दे पर लड़ सकते अत: घर , दोस्तों में ही गुस्सा निकाल कर रह गए।
परन्तु सवाल वहीं के वहीं रह गए – कि आखिर जो विषय विज्ञान के अंतर्गत आता है, जिसमें घर परिवार की देख भाल , व्यवस्था, सेहत , बुजुर्गों की देखभाल , पौष्टिक खाद्य पदार्थ , सफाई , वगैरह वगैरह जैसे जीवन के लिए अनिवार्य विषय सिखाये -पढाये जाते हैं वह सिर्फ लड़कियों के लिए ही अनिवार्य क्यों है ? क्या यह जिम्मेदारी समाज की बाकी आधी जनसंख्या की नहीं ? क्या उन्हें इस विषय की बेसिक जानकारी नहीं होनी चाहिए? फिर आखिर क्यों उनके लिए अनिवार्य तो छोडिये , एक वैकल्पिक विषय के रूप में भी यह ऑप्शन नहीं होता।
घर , समाज , परिवार की तो बात ही क्या , सामान अधिकारों की शिक्षा देने वाले हमारे शिक्षा संस्थान तक इस मामले में लड़का और लड़की में मूल भेदभाव करते हैं। और शुरू से ही वह बच्चों में इस आधार पर उनके कामों का विभाजन कर देते हैं। फिर क्यों दोष दें हम समाज के उन ठेकेदारों को को जो कहते हैं कि “लड़की हो , ज्यादा उड़ो मत , घर में बैठो और घर बार संभालो, हमारे लिए खाना बनाओ और बच्चे पालो। यह तुम्हारा काम है।
फिर क्यों दोष दें हम उन लड़कों को जो शादी के लिए अब भी “गृह कार्य में निपुण लड़की” का विज्ञापन देते है। आखिर इस भेदभाव का बीज तो उनमें बचपन से ही डाल दिया जाता है।
मुझे नहीं पता , आज भी किसी स्कूल,कॉलेज या विश्व विद्यालय में यह विषय लड़कों के लिए खुला है या नहीं, या कहीं है भी तो, कोई लड़का इस विषय को लेकर पढता होगा इसमें मुझे संदेह है। परन्तु इतना अवश्य है कि यदि हमें एक सभ्य और पढ़े लिखे समाज का गठन करना है तो एक बेसिक और अनिवार्य विषय के तहत इस विषय को लड़के और लड़कियों को सामान रूप से पढाया जाना चाहिए।
बहुत वाजिब बात आपने रखी है …शिखा जी।
लड़का-लड़की में ज्ञान का भेद क्यों ?
कुछ काम लड़कियों के लिए ही ear-marked
हो …और कुछ काम लड़कों के लिए वर्जित हो …
इसका बेज़ परंपरागत सोच ही है …इसी सोच
के तहत स्त्री को बलात्कार, घरेलू हिंसा और
सेकंड सेक्स कहे जाने जैसे कई अपराधों के
सायों में जीना पड़े …
हमारी शिक्षा संस्थाओं, शिक्षा-शास्त्रियों को
नर्सरी से ही इस ज्ञान के नहीं अज्ञान के भेद को
दूर करने का आरंभ कर देना चाहिए …सरकारें
भी इसे लागू कराने में अपनी सत्ता का निर्णायक
उपयोग करे … तभी कुछ हो पाए …
शिक्षण में समानता क्यों नहीं …!? और ऐसे भेद-
भावों को क्यों जारी रखा जाए …?
जबकि मास्टर शैफ़ स्त्री-पुरुष दोनों ही बन सके …
ach kah rahi ho aap ..ye vishay mujhe to badi mazboori mein padhnaa pada … par wakai bhedbhaav to bachpan se hee daal diyaa jaat ahai apne yahaan
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शिक्षा में विषयों के चुनाव में लिंग विभेद की स्थिति समाज में देखी जाती रही है. लड़कियों को गृह कार्य में दक्ष होना समाज की आवश्यकता है . ऐसा पुरुष सत्तात्मक समाज मानता रहा है. समाज थोड बदला है. गृह विज्ञानं जैसे विषय जिसे कभी लड़कियों का विषय माना जाता था , उच्च शिक्षा के स्तर पर लड़के भी इसका अध्ययन करते हुए पाए जाते है. कानपूर स्थित कृषि विश्वविद्यालय में स्नातक और परास्नातक स्तर पर गृह विज्ञानं फेकल्टी में लडको को देखकर ऐसा प्रतीत होता है. अच्छी चर्चा छेड़ी है आपने.
बढ़िया और चिंतनीय आलेख शिखाजी….लड़की और लड़के का भेद तो सिरे से ही
ख़ारिज करना होगा ,चोतरफा कोशिशें करनी होंगी ,इतना आसान भी नहीं है तो असंभव
भी नहीं.
कितना भी कोई कहे लड़का-लड़की में भेद नहीं करते
व्यवहार में कहीं न कहीं दिख ही जाता है भेद भाव तो !!!!
बहुत अच्छी बात लिखी है शिखा पर हमारे समाज को इस तरह से सोचने मे बहुत वक्त लगेगा …..हलाकि बदलाव नज़र आने लगा है ….पर अभी दिल्ली बहुत दूर है ….!!
बहुत आभार इस जानकारी के लिए
@उच्च शिक्षा के स्तर पर लड़के भी इसका अध्ययन करते हुए पाए जाते है.
पहली बार सुना मैंने:). ज्ञान वृद्धि हुई.धन्यवाद.
"क्योंकि सुना था कि विज्ञान लेने से अगले साल मेंढक काटना पड़ेगा,"
आपने शायद ज्यादा तलाश नही किया, उस समय फिजिक्स, केमेस्ट्री और मैथ्स का कंबीनेशन था जिसे लेने से आपको मेंढकों से सामना नही होता, हमने यही लिया था.:)
रामराम.
अनूठी पोस्ट नया विषय ..
आभार आपका शिखा !
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (18-06-2013) के चर्चा मंच -1279 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
आपने शायद पोस्ट को ठीक से नहीं पढ़ा 🙂 यह आप्शन था.पर सिर्फ लड़कों के स्कूलों में, लड़कियों के स्कूल में नहीं था.वहाँ विज्ञान वर्ग के अंतर्गत दसवीं तक फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायो और मेथ्स चारों विषय पढ़ने पड़ते थे.
अभी दो घंटे पहले बिटिया के स्कुल से आ रही हूँ , बुलाया गया था की बच्चो को आप लोग शिक्षा के अलावा दुसरे क्लास में क्यों नहीं भेजते है , स्कुल के डायरक्टर बता रही थी की जुडो कराटे भी लड़कियों को सिखाना चाहिए , फुटबाल भी , किसने कहा की ये लड़को का खेल है , भारतीय और पाश्चात्य नृत्य भी सिखाइये , आदि आदि आदि जब उनका बोलना ख़त्म हुआ तो मैंने कहा की आप ने सही कहा लड़को और लड़कियों का खेल जैसा कुछ नहीं होता है , और इनसे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है किन्तु जब यही स्कुल बच्चियों को ये शिक्षा देते है की परिवार का मुखिया पिता होता है और माँ दिल होती है इसका क्या मतलब है ( दो दिन पहले ही बेटी के वर्कसिट में ये लिख कर आया था ) जब आप बच्चियों को ये शिक्षा देती है की पिता परिवार में मुख्य है माँ नहीं , माँ पिता से कमतर होती है , या माँ दिल है जैसे बातो से ये बताते है की प्यार सवेदना , भावना जैसे शब्द केवल माँ से जुड़े है तो , आप के ये आत्मविश्वास बढ़ने वाले खेलो का क्या मतलब रहा जाता है , तो वो भारतीय परम्पराए , आम सोच आदि आदि की बात करने लगी या ये कहिये की बात की लीपापोती करने लगी , थोड़े रूप में उसे स्वीकार किया किन्तु जब हम क्लास टीचर के पास गए और हम सभी यही चर्चा करने लगे तो टीचर ने कहा ये ठीक ही तो है इसमे क्या अगलत है हेड ऑफ़ डी फैमली पिता ही तो होता है , मेरे फादर की जगह , पैरेंट्स लिखने की बात को उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया । ये हाल मुंबई के तथाकथित बड़े अंग्रेजी स्कुलो का है , छोटे शहरों की तो बात क्या करे , टीचर भी तो उसी सोच के साथ पढ़ता होगा जिस समाज में वो रह रहा है । आज भी शिक्षा के क्षेत्र में ये भेदभाव पूरी तरह से ख़त्म नहीं है ।
डीटी वाली बात से लगता है वहां समान अवसर और समानता की शिक्षा दी जाती है जो जीवन में आगे बहुत काम आते हैं, चाहे लडका हो या लडकियां.
आजकल मास्टर सेफ़ प्रतियोगिताओं को देखते हुये लगता है कि पुरानी धारणा के विपरीत भी कुछ हो रहा है, बहुत बढिया आलेख.
रामराम.
अभी दो घंटे पहले बिटिया के स्कुल से आ रही हूँ , बुलाया गया था की बच्चो को आप लोग शिक्षा के अलावा दुसरे क्लास में क्यों नहीं भेजते है , स्कुल के डायरक्टर बता रही थी की जुडो कराटे भी लड़कियों को सिखाना चाहिए , फुटबाल भी , किसने कहा की ये लड़को का खेल है , भारतीय और पाश्चात्य नृत्य भी सिखाइये , आदि आदि आदि जब उनका बोलना ख़त्म हुआ तो मैंने कहा की आप ने सही कहा लड़को और लड़कियों का खेल जैसा कुछ नहीं होता है , और इनसे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है किन्तु जब यही स्कुल बच्चियों को ये शिक्षा देते है की परिवार का मुखिया पिता होता है और माँ दिल होती है इसका क्या मतलब है ( दो दिन पहले ही बेटी के वर्कसिट में ये लिख कर आया था ) जब आप बच्चियों को ये शिक्षा देती है की पिता परिवार में मुख्य है माँ नहीं , माँ पिता से कमतर होती है , या माँ दिल है जैसे बातो से ये बताते है की प्यार सवेदना , भावना जैसे शब्द केवल माँ से जुड़े है तो , आप के ये आत्मविश्वास बढ़ने वाले खेलो का क्या मतलब रहा जाता है , तो वो भारतीय परम्पराए , आम सोच आदि आदि की बात करने लगी या ये कहिये की बात की लीपापोती करने लगी , थोड़े रूप में उसे स्वीकार किया किन्तु जब हम क्लास टीचर के पास गए और हम सभी यही चर्चा करने लगे तो टीचर ने कहा ये ठीक ही तो है इसमे क्या अगलत है हेड ऑफ़ डी फैमली पिता ही तो होता है , उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया , मेरे फादर की जगह , पैरेंट्स लिखने की बात को उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया । ये हाल मुंबई के तथाकथित बड़े अंग्रेजी स्कुलो का है , छोटे शहरों की तो बात क्या करे , टीचर भी तो उसी सोच के साथ पढ़ता होगा जिस समाज में वो रह रहा है । आज भी शिक्षा के क्षेत्र में ये भेदभाव पूरी तरह से ख़त्म नहीं है ।
हम्म …मतलब, बेशक विषय बदल गए हों.पर मानसिकता अभी भी वही ही है.
हमने पोस्ट पूरी पढी और इमानदारी से पढी, पर अक्ल का इस्तेमाल नही किया, हम यह सोच ही नही पाये कि ऐसा भी फ़र्क होगा, हमारे स्कूल ने तो लड्के लडकियों में ना तब फ़र्क किया और ना आज करते हैं.:)
यह बात 1968 की है, हमारे स्कूल में लडके लडकिया साथ ही पढते थे और विज्ञान के दो आप्शन थे, दोनों में फ़िजिक्स और केमेस्ट्री कामन था और जिसको डाक्टर बनना हो वो बायोलाजी ले ले, इंजीनियर बनना हो तो मैथ्स ले ले.
वाकई आपके स्कूल वालों ने बहुत ही ज्यादती कर रखी थी, यानि मैथ्स भी पढो और बायो भी?बहुत ही गलत बात थी यह.
रामराम.
आपका स्कूल भी क्या उत्तर प्रदेश में ही था ? हमारे स्कूल में भी ऐसा था पर ग्यारहवी से.
एक बात कहना भूल गया कि हमारे स्कूल में यह आप्शन नौवीं क्लास से थी.
रामराम.
जी नही, हमारा स्कूल राजस्थान में पडता था.
अब यहां बात आ ही गई है तो बता देते हैं कि जब हम प्राईमरी में थे तब तक हरियाणा पंजाब एक ही हुआ करता था. पंजाब में गुरूमुखी पढना अनिवार्य था, जो हमारे बस में नही था.
हमारा गांव पंजाब/राजस्थान बार्डर पर ही है, जो अब हरियाणा/राजस्थान बार्डर है. इसलिये हम लोग पंजाबी पढने से बचने के लिये नजदीक के राजस्थान के स्कूल में जाया करते थे.
उस समय में स्कूलों की भी काफ़ी कमी थी, लडकियों के लिये अलग स्कूल नही थे. उस समय में भी प्राईमरी से लेकर मेट्रिक तक हमारे स्कूल में लडके लडकियां साथ ही पढते थे.
रामराम.
सरकार ने नियम न बदले हों पर अब मानसिकता तो काफी बदल गयी है….
लड़कियों का गृह कार्य में दक्ष वाली अनिवार्यता ख़तम हो चुकी है..कम से कम अब जो बच्चे शादी कर रहे हैं उन लड़कों में तो नहीं है (ऐसा हमने अपने आस पास पाया…)
और होम साइन्स का तो नहीं पता मगर होटल मनेजमेंट के तहत तो लड़के खाना पकाना और चद्दरे बिना सिलवटों के बिछाना सीख ही रहे है 🙂
अनु
अनु! आप लोग, होटल मेनेजमेंट और यूनिवर्सिटी जैसी उच्च शिक्षा की बात कर रहे हैं.जिसे कैरियर के रूप में लिया जाता है.
मैं यहाँ आठंवी तक, बेसिक शिक्षा के अंतर्गत आने वाले इस विषय की अनिवार्यता की बात कर रही थी.
सहमत हूँ आपसे सही है बेसिक तो दोनों को ही सिखाया जाना चाहिए। फिर आगे यह उनके ऊपर हैं कि वह होटल मानेजमेंट इत्यादि कर के उसे अपना करियर बनाना चाहते हैं या नहीं…
आने वाले समय में अधिक भेद न रह पायेगा।
अब तक की मान्यता यही रही थी कि लड़की को शुरू से ढालना शुरू कर दो तन से भी और मन से भी.सिर्फ़ भारत में नहीं चीन में भी बचपन से खाँचे मे फिट
कर पाँव बढ़ने न देना (कहीं भाग न पाएं), सुना है किसी यूरोपियन देश में कमर पतली रखने को रिंग से जकड़ देने का रिवाज था.इस्लामवाले लोग जननांगों में काटा-पीटी करते हैं चाहे उनका जीना मुश्किल हो जाये.और हमारे यहाँ चुन्नी और साड़ी में उलझकर कई दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और होती रहती हैं पर कई स्कूल-कालेज भी इन्हीं को ड्रेस कोड में लागू किये हैं और पढ़ाई के मामले में परिदृष्य अभी तक बहुत विषमता भरा है .
कोशिश अधिकांश में यही रहती है कि शुरू से पंख काट दो कहीं उड़ने न लगे!
🙁
आज की ब्लॉग बुलेटिन जेब कट गई…. ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
अच्छा विषय चुना है …. घर के साथ साथ शिक्षा संस्थानों में भी लड़के और लड़कियों का भेद देखने को मिलता रहा है … विषय के चुनाव पर भी … वैसे बेसिक्स सच ही सबको एक समान सिखानी चाहिए … आज कल थोड़ा बदलाव तो आया है … पर फिर भी अभी सोच को बदलने की बहुत आवश्यकता है …
शिक्षा के क्षेत्र में अब काफी परिवर्तन आ चूका है विशेष कर सी बी एस इ के पाठ्यक्रम में. इसमें बच्चों की अपनी रूचि के अनुसार विषय का चयन करने की आज़ादी है .उनको केवल निर्धारित स्तर का अंक या ग्रेड अर्जित करना पड़ता है.
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अच्छा लिखा है अपने . इस विषय पर लिखना चाहता था जानकारी जुटाने के लिये समय के आभाव ने लिखने नहीं दिया . .. और लिखे जाने की आवश्यकता है.
आजकल ऐसा कोई फर्क रह नहीं गया है , पहले ऐसा क्यों था , यह भी हैरानी है क्योंकि उन दिनों टेलर और कूक तो सिर्फ पुरुष ही हुआ करते थे .
मैथ्स लेने के लिए मुझे भी बॉयज स्कूल में एडमिशन लेना पड़ा जहाँ पूरी स्कूल में लड़कियां सिर्फ दो ही थी , एक साईंस में तो एक कॉमर्स में !
मंथन के लिए अच्छा विषय चुना आपने !
शब्दशः सहमति है आपसे..केवल विषय विशेष में पारंगतता देने के स्थान पर बच्चों (लड़के लड़कियों) का समग्र रूप में व्यक्तित्व विकाश हेतु सार्थक पहल नहीं होगा, स्थितियां दुखदायी ही रहेंगी लड़के और लडकी (अंततः पारिवारिक और सामजिक रूप में) दोनों ही के लिए.
आलेख पढ़ते समय मुझे एक वाकया याद हो आया..अभी कुछ दिनों पूर्व अपनी एक मित्र के साथ उसकी बेटी को रिसीव करने एयरपोर्ट गयी थी जो कि एक मेडिकल स्टूडेन्ट है और छुट्टियों में कई महीनों बाद अपने घर आ रही थी .. रास्ते में उसने अतिउत्साहित हो अपनी माँ से कहा कि उसने अपनी रूम मेट से हलवा बनाना सीखा है और प्रत्युत्तर में "तुम्हें पढने भेजा था कि रसोईया बनने " सुनकर मैं दंग रह गयी .. मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने बच्ची से कहा, बेटा जब पेट और भूख सदा ही मरते दम तक साथ रहने वाला तो उसने भरने का उपाय लड़का हो या लडकी सबको जरूर ही सीख लेना चाहिए..
हम अपने अग्रज पीढी को क्या दोष दें , जबतक हम भोजन पकाना, घर सहेजना तथा दूसरों की देखभाल करने को दोयम दर्जा या निकृष्ट कर्म मानते रहेंगे, क्या विकाश करेंगे …
आपकी बात से सहमत हूं … इस तरह के भेदभाव खत्म होने चाहियें … बचपन से फर्क करने की मानसिकता जितनी कम हो सके समाज के लिए उतना ही अच्छा है …
अब ये बदलाव आने लगा है .. पर अबी भी लंबा सफर तय करना है …
बिलकुल सही कह रही हैं आप. यह विषय हमारी रोज मर्रा की जिंदगी से जुड़े हैं. इनकी बेसिक शिक्षा सभी को देनी /मिलनी चाहिए.
क्या अब लड़कों के सरकारी स्कूलों में गृह कला या गृह विज्ञान एक आवश्यक विषय है ? क्योंकि जहाँ तक मेरी जानकारी है लड़कियों के स्कूल में आज भी(यू पी के सरकारी स्कूलों में) आंठवी तक यह विषय अनिवार्य विषय के रूप में पढाया जाता है.
और जहाँ तक उन दिनों टेलर और कुक होने की बात है, वाणी ! वह एक परम्परा और खानदानी पेशे के तौर पर होता था. कि पिता का वही पेशा था, दादा,परदादा का वही था,इसे वह घर में ही सीखते थे, न कि स्कूल में.
बचपन की यादें और शिक्षा का स्तर तब और अब बहुत कुछ बदल गया लेकिन स्त्री पुरुष का भेद जस का तस ?
मैं तो विषयों के विज्ञान या आर्ट के वर्गीकरण के ही विरुद्ध हूँ -हमने ऐसे वर्गीकरण कर कबाड़ा कर रखा है !
अच्छा संस्मरण और चर्चा- विषय लिया आपने!
आपने लिखा….हमने पढ़ा
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए आज 19/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिए एक नज़र ….
धन्यवाद!
समानता की सोच को बढ़ावा स्कूल हो या घर, हर जगह मिले ..अच्छे विषय पर बात की आपने
हम पढ़े कोई भी साइंस , पर मजा खुद खाना बना के खाने में ही आता है | और हमें कोई "गृह कार्य में निपुण लड़की" नहीं चाहिए 🙂 🙂 "गृह कार्य" का मतलब होता है "होम वर्क" और इससे बचपन से डर लगता आया है और अगर साथ रहने वाली दिन-रात यही करे तो लाइफ का कबाड़ा बोल जायेगा 🙂 🙂 🙂
अगर स्कूल में नहीं भी सिखाया जा सकता तो आज कल की माँ पर ये ज़िम्मेदारी ज्यादा बनती है कि वो लड़को को ये बेसिक सीख जरुर दे
सार्थक आलेख
सुंदर प्रस्तुति।।।
आओ दुनिया बदल दें
मैं आपकी सोच से सहमत हूँ
लैंगिग भेदभाव- हाय हाय!
सही कहा शिखा…इस सोच की नींव जब बचपन से ही डाल दी जाएगी की सिलाई कढ़ाई आदमियों के काम नहीं हैं …तो ज़ाहिर है यही मानसिकता पनपेगी भी …लेकिन इंसान का एक और बेसिक नेचर होता है …defy करने का …उसीकी वजह से पुरुष हर जगह स्त्रियों की बनिस्बत बेहतर टेलर्स, बेहतर कुक्स साबित होते हैं…है न …
अच्छे विषय पर बात की आपने , आभार
अनूठी पोस्ट नया विषय ..
आभार
अनछुए महत्त्ावपूर्ण जीवन पहलू को छुआ है आपने इस लेख के माध्यम से। आशा है इस विषय के तहत आपकी झेली हुई कशमकश और दिक्कतें आपके इस विषय पर सुझाए गए समाधानों के हल होने पर कुछ कम होंगी। ऐसा हो मैं कामना करता हूँ।
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