एक मित्र को परिस्थितियों से लड़ते देख, उपजी कुछ पंक्तियाँ
पढ़ा था कहीं मैंने
किसी का लिखा हुआ कि
“शादी में मिलता है
गोद में एक बच्चा
एक बहुत बड़ा बच्चा”.
अक्षम हो जाते हैं जब
उसे और पालने में
उसके माता पिता,
तो सौंप देते हैं
एक पत्नी रुपी जीव को.
जिसे देख भाल कर ले आते हैं वे
किसी दूसरे के घर से .
फिर वह पत्नी पालती है,
उस बड़े हो गए बच्चे को.
झेलती है उसकी सारी नादानियां
भूल कर खुद को .
लगा देती है सारा जीवन
उसे संवारने में फिर से.
खो देती है अपना अस्तित्व
बचाने के लिए उस बड़े बच्चे का अहम्.
खुद बन जाती है छोटी
और होने देती है उसे बड़ा.
वो बड़ा बच्चा होता रहता है बड़ा
और नकार देता है उसका योगदान
क्योंकि वो तो छोटी है.फिर
उसे कैसे बड़ा कर सकती थी वो भला.
बेजोड़ अनुभव।
सही है शिखा जी! और आपकी अब तक बेहतरीन रचनाओं में से एक है.. मैं तो हमेशा कहता हूँ अपनी पत्नी से कि परमात्मा से एक ही प्रार्थना है कि अगले जन्म में तुम्हारे गर्भ से जन्म लूँ!!
तुझसे जन्मूँ तभी निजात मिले!!
हा हा, कभी कभी किसी को बच्ची भी मिल जाती है।
Lekhan ka ekdam naya andaj …. anoothi rachna ….
vaise Praveen ji ki baat bhi sahi hai Shikha ji … lekin aisa kabhi kabhi hi hota hai 🙂
पाण्डेय जी बात मे दम है … ज़रा गौर कीजिएगा … 😉
बेहद उम्दा रचना … काफी कुछ समझाती हुई !
हाँ क्यों नहीं, अब अपवाद तो हर जगह हैं :):).
बात तो पते की है , गंभीरता से देखा जाय तो सच जैसा प्रतीत होता है . सत्य वचन देवी. प्रेक्षण सटीक .
दोनों समय ब्रश करने की हिदायत , उठते ही हाथ में चाय का कप , धुली और प्रेस की हुई टावेल का मिलना ,पसंद का नाश्ता और खाना मिलना वह भी नाना प्रकार के , बेतरतीब ज़िन्दगी में सलीका डालना , न चाहते हुए भी चेहरे पर मुस्कान चिपकाए घूमना ,अपनी पसंद को लगभग पूरी तरह से भूलते हुए पति की ही पसंद को अपनी पसंद मान लेना …..निश्चित तौर पर पत्नी ही करती और निभाती है और पति कुछ नहीं बस एक बड़ा सा बच्चा ही होता है ।
सुन्दर और सटीक लेख । मुझे तो अभी भी सुनने को मिलता है " अब तो बड़े बन जाइये " ।
बेटी की विदाई का वक्त था…
उसके मां-बाप बार-बार दूल्हे को हिदायतें दे रहे थे…कलेजे का टुकड़ा दे रहे हैं…बड़े लाड से पाला है…ऐसी ही बातें करते दुल्हन की मां ने दोनों हाथों को साथ लाकर एक गुड़िया के साइज़ का इशारा करते हुए कहा…इतनी सी थी बस…बस इतनी सी…
इतना सुनने के बाद दूल्हा बुदबुदाया…हां ये तो बस इतनी सी थी…हम तो जैसे पैदा होते ही छह फुट के हो गए थे…
जय हिंद…
बात तो सटीक कही है आपने पर ये अनुभव बड़ी बच्ची पर भी लागू होता है | प्रतिशत भले ही थोडा ऊपर नीचे हो परन्तु कलयुग में आजकल बड़ी बच्चियां भी कुछ कम गुल नहीं खिलाती हैं | वैसे रचना में दम तो है पर दूसरा पहलु भी गौर करना होगा…. 🙂
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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सही है……………….
एक दम निशाने पर!!!!
हैट्स ऑफ टु यू शिखा….
अनु
:):) सच ॥बड़े बच्चे को संभालते संभालते हम तो खुद बूढ़े हो गए …पर वो अभी तक बड़ा बच्चा ही है :):)
और छोटे बच्चे को संभलवा दिया है 🙂
अच्छा! हम तो समझे थे हमीं को ऐसा लगता है!!
हाँ , ये भी होता है , चाहे कम हो 🙂
अजी कहो बिगडैल बच्चा। कहावत है कि दूसरों को सुसंस्कृत करने में स्वयं असंस्कृत हो जाते हैं। इसीलिए पत्नियां खीझती रहती हैं। लेकिन हमारी पीढी ने सुधरे हुए बच्चे सौंपे हैं।
कहीं यह जनरेशन गैप तो नहीं. अजीत गुप्ताजी ने "सुधरे हुए बच्चे" सौंपने की बात कहीं है.
सार्थक कविता के साथ सार्थक टिप्पणियां। कविता के व्यंग्य के साथ टिप्पणियों में भी व्यंग्य। पर जीवन बच्चे- बच्ची का खेल नहीं। गलत फैसलों एवं रिश्तों में खटास एवं अफसोस का नतिजा है कि कोई बडा बच्चा और कोई बडी बच्ची कह रहा है। असल जिंदगी में एक-दूसरे को आधार देने में सहयोग करने में होती है।
हमेशा मजाक में कहा मेरे ४ नहीं ५ बच्चे हैं …इन्हें भी तो संभालना होता है …सबसे बिगडैल बच्चे को…लेकिन इसका एक दुखद पहलू भी आज पहचाना …..बहुत्र सुन्दर ..शिखा
सच में ! माताएं अपने पुत्रों के लिए कहेंगी बड़े लाड से ,तुम लोग इनका ध्यान नहीं रखती, .भूल जाती है कि उम्र में तो हम इनसे छोटे हैं 🙂
क्योंकि बड़ा बच्चा विशेष समझता है खुद को
किसने क्या दिया,कैसे दिया …. यह नहीं सोचता
वह सोचता है –
मैं हूँ ही इतना विशेष कि लोग देकर खुद को क्षणिक विशेष बनाते हैं !!!
नालायक होते हैं जो इस योगदान को भुला देते हैं … आपने सच लिखा है …
काश पुरुष ये बातें समझ पाते …
भूल कर खुद को .
लगा देती है सारा जीवन
उसे संवारने में फिर से.
खो देती है अपना अस्तित्व
बचाने के लिए उस बड़े बच्चे का अहम्.
खुद बन जाती है छोटी
और होने देती है उसे बड़ा.
वो बड़ा बच्चा होता रहता है बड़ा
और नकार देता है उसका योगदान
क्योंकि वो तो छोटी है.फिर
उसे कैसे बड़ा कर सकती थी वो भला.
तलवार दोधारी लेकिन एक तरफा वार
बहुत ही बेहतरीन भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.
"महिलाओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी
"
🙂
बहुत ही सुन्दर और सच्ची कविता है शिखा जी । अनुभूत भी । हाँ जो तुषार जी ने लिखा है वह भी तस्वीर का दूसरा व सच्चा पहलू है । अनुभूत भी । जीवन इसी का नाम है ।सलिल जी ने ठीक ही कहा है इसे आपकी बेहतर रचना ।
हलके-फुलके अंदाज़ में वस्तुस्थिति को दर्शाया है. विवाह संस्था असल में बड़ी जटिल है. स्त्री-पुरुष दोनों के ही समाज-निर्धारित दायित्व होते हैं, हाँ यह ज़रूर है कि स्त्री के दायित्व-निर्वाह को लेकर समाज-का दृष्टिकोण ज्यादा आग्रही होता है. 'बड़े बच्चे' के पालन-पोषण में बहुधा स्त्री को ही, न चाहते हुए भी, अपनी ऊर्जा खपानी पड़ती है, सर्वस्व वार देना होता है, और अफ़सोस यही कि अहम्मन्यताग्रस्त पुरुष स्त्री के त्याग के प्रति शायद ही कभी संवेदनशील हो पाता हो. पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की इसी विडंबना की ओर ध्यान खींचती हैं ये पंक्तियाँ : "…पत्नी पालती है / उस बड़े हो गए बच्चे को / झेलती है उसकी सारी नादानियाँ / भूल कर खुद को / लगा देती है सारा जीवन / उसे सँवारने में फिर से / खो देती है अपना अस्तित्व / बचाने के लिए उस बड़े बच्चे का अहम् / खुद बन जाती है छोटी / और होने देती है उसे बड़ा / वो बड़ा बच्चा होता रहता है बड़ा / और नकार देता है उसका योगदान / क्योंकि वो तो छोटी है, फिर /उसे कैसे बड़ा कर सकती थी वो भला." सुन्दर, विचारपूर्ण प्रस्तुति है.
अर्थ गाम्भीर्य लिए एक भावपूर्ण कविता
आपने जो कहा है वही अक्षरश हकीकत है. पुरूष अंत तक वाकई एक अनघढ बच्चा ही रहता है जिसे नारी गढती रहती है. बहुत ही अर्थपूर्ण रचना.
रामराम.
हां, ये बात अलग है कि ताऊ जैसा बच्चा हो तो उसको लठ्ठ से ही गढना पडता है.:)
रामराम.
:):)
गंभीर बात, सरल अंदाज़
Superb… 🙂 par bahut gehra!
बेहतरीन लेख बधाई
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Vinnie
भूल कर खुद को .
लगा देती है सारा जीवन
उसे संवारने में फिर से.
खो देती है अपना अस्तित्व —–
गहन अनुभूति
अदभुत
आग्रह है मेरे ब्लॉग मैं भी सम्मलित हों
आभार
बहुत ही सम्वेदना भरी अभिव्यक्ति. खूबसूरत.
-Abhijit (Reflections)
Shikhaji,
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Vinnie
It’s onerous to seek out educated people on this topic, however you sound like you recognize what you’re talking about! Thanks
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