आजकल शोशल नेटवर्क साइट्स को गरियाने का नया फैशन निकल पडा है या फिर यह कहना उचित होगा कि नया टाइम पास हो चला है। किसी ने कोई पकवान बनाया तो ऍफ़ बी, कोई हनीमून पर जा रहा है तो ऍफ़ बी और यहाँ तक की किसी को किसी का चरित्र हनन करना है तो बस ऍफ़ बी. की दीवार पर लिख डालिए और उसके पीछे कुछ लोग लाठी-भाले लेकर पिल पड़ेंगे। कुछ बस भेड़ चाल के लिए, कुछ अपने वर्ग विशेष के लिए, कुछ यूँ ही टाइम पास के लिए तो कुछ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, और हो जायेगा वहां मजमा इकठ्ठा सुनवाई दर सुनवाई, आरोप दर आरोप और यहाँ तक की कुछ लोग फैसला भी सुना देंगे। पर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारी असली दुनिया में भी ऐसा ही होता है। बस पंचायत की जगह एफ्बायत या मोहल्ले की लड़ाई की जगह ऍफ़ बी ग्रुप होना ही बाकी रह गया है, पर लोगों को परेशानी इन सब चीजों से नहीं है। लोगों को समस्या है उन स्टेटस पर आये लाइक और टिप्पणी की संख्या से। हालाँकि ये शिकायत करने वाले खुद भी वही चाहते हैं….. इस बिनाह पर कि गंभीर मुद्दों पर इतनी भीड़ नहीं जुटती या जो जहाँ लोगों की भीड़ जुडती हैं वे लोग निकम्मे हैं, जाहिल हैं और ना जाने क्या क्या हैं पर यदि वही लोग इनके स्टेटस पर जुड़ जाएँ तो बुद्दिजीवी हैं। अब ये उनसे पूछा जाये कि उन्हें यह मुगालता क्यों है कि सबसे गंभीर और अच्छा मुद्दा वही उठाते हैं, पर क्योंकि उनके स्टेटस की जगह दूसरों (फालतू ) स्टेटस को ज्यादा लाइक मिलते हैं असल पेट दर्द का कारण वह है।
खैर क्या गलत है क्या सही है यह तो एक अलग मुद्दा है .परन्तु इन सोसिअल साइट्स का यह स्वभाव मुझे असल दुनिया से किसी भी तरह इतर नहीं लगता। हम ऍफ़ बी की दिवार पर लिखे की निंदा करते हैं जबकि हमारे देश में तो दीवारें और भी ना जाने किन-किन कामो में ली जाती हैं। फिर भला इन शोशल साइट्स को ही गाली देने का क्या औचित्य है ? वह भी हम ही लोगों द्वारा बनाई गई दुनिया है, एक चौपाल है, जहाँ हर तरह हर तबके और हर फितरत के लोग अपने काम धंधों से फुर्सत में मिले पलों में इकठ्ठा होकर लोगों से मिलते हैं, गपियाते हैं, अपनी रूचि के विषयों पर चर्चा करते हैं। कुछ यूँ ही बिना वजह घूमने आ जाते हैं। कुछ यूँ ही निहारने और कुछ आवारागर्दी करने भी, और फिर अपने अपने घर चले जाते हैं। हाँ बस यह चौपाल किसी चबूतरे या किसी चाय के खोमचे पर ना लग कर इन्टरनेट की खिड़की पर लगती है। जो हर आम आदमी की पहुँच में है। अब आप ही सोचिये और इमानदारी से बताइए क्या जो सब ऍफ़ बी पर होता है वह इसके पहले बाहरी दुनिया में नहीं होता था या क्या अब नहीं होता ?.
अब जरा इस किस्से पर गौर कीजिये …..
एक घरेलु महिला अपने घर का काम निबटा कर अपने संगी साथियों से कुछ बतियाने घर से बाहर निकलती है, कोई नया पकवान उसने बनाया हो या घर में कोई मेहमान आने वाला हो तो वो फुर्सत में बालकोनी, छत या घर के बाहर पहुँचती है, कोई पड़ोसन मिल जाती है या कोई परिचित तो उससे वह अपनी दिनचर्या की चर्चा करती है उछल उछल कर बताती है आज दिन में उसने यह किया, वो किया, या यहाँ घूमने गई …. इतने में अचानक पास से गुजरते हर कुछ मनचले या छिछोरे फिकरा कसते हुए निकल जाते हैं – “अरे मैडम कभी रात की बात भी बताओ” … अब वो महिलाएं क्या करेंगी ज्यादा से ज्यादा इसके खिलाफ २ शब्द बडबडा लेंगी, बहुत दबंग हुई तो १-२ गाली उस सिरफिरे को दे देंगी और अपने घर जाकर बाकी की बातें करेंगी। पर क्या इसके लिए हम दोष उस सड़क को देंगे जिस पर वो खड़े बात कर रहे थे या जिस पर से गुजर कर वे फिकरा कसने वाले गए ? क्या थोड़ी भी जिम्मेदारी उन महिलाओं की नहीं जो वहां आम सड़क पर व्यक्तिगत चर्चा कर रही थीं बिना ये सोचे कि उनकी वार्ता कोई ओर भी सुन सकता है।
अब यही ऍफ़ बी पर भी होता है लोग क्या बनाया से लेकर कैसे हनीमून मनाया तक सब ऍफ़ बी की वाल पर लिखते हैं फिर किसी तरह के अनवांछित टिप्पणी पर गरियाते हैं। अब बताये जरा इसमें उस बेचारे ऍफ़ बी का क्या दोष ? आपको यह बातें करनी है और इन फिकरों से बचना है तो आप घर में बैठकर कर सकते हैं और फब पर भी व्यक्तिगत सन्देश की सुविधा है जहाँ आपकी बात वही सुनेगा जिससे कही गई है।
ऍफ़ बी पर आजकल बहुत से लोग इस बात पर गरियाते देखे जाते हैं कि जिसे देखो वो कवि लेखक बन गया है और लोग उनकी घटिया कविता पर हजारों लाइक करते हैं परन्तु यदि दिनकर, निराला की कविता डाली जाये तो उस पर कोई नहीं फटकता।
अब आप जरा इमानदारी से सोच कर बताइए कि हमारी असली दुनिया में किसी को तुकबंदी करने का या लिखने का शौक नहीं होता ? वे लिखते हैं और जाकर अपने संगी साथियों को सुनाते भी हैं और उनसे जबरदस्ती ही सही वाह-वाही भी पाते हैं। तो यदि अब वही आम इंसान यही काम ऍफ़ बी पर करता है तो क्या समस्या है ? अब यह तो कोई बात नहीं हुई कि एक तथाकथित स्थापित साहित्यकार को ही लिखने का और उसे शेयर करने का हक़ है और किसी को नहीं। क्या कोई जरुरी है कि हर इंसान को साहित्य के प्रति दिलचस्पी हो ? आप सोचिये एक चौराहे पर एक सुन्दर सी लड़की खड़ी होकर एलान करे कि “मुझसे दोस्ती करोगे” और दूसरे पर कोई कविवर अपने साहित्य का पाठ कर रहे हों .तो भीड़ कहाँ ज्यादा जुटेगी ? अब इसमें गलत सही को छोड़ दिया जाये तो बात मानव स्वभाव की है। उसके अपने व्यक्तित्व और रूचि की है। ऐसा नहीं कि गंभीर मुद्दों पर जमघट नहीं लगता। मैंने ऍफ़ बी पर कल ही एक विडियो देखा.द्वारका में पुरातत्त्व खुदाई पर, उसमें
लाइक की संख्या ने एक रिकॉर्ड बना लिया है। और ये अकेला ऐसा नहीं और भी अनगिनत गंभीर मुद्दे हैं जहाँ असंख्य लाइक होते हैं, पर हमें वही दीखता है जो हम देखना चाहते हैं.. आपको अगर वह सब नहीं पसंद तो मत गुजरिये उस सड़क से, और जो नहीं पसंद उसे सिर्फ एक क्लिक से ब्लाक कर दीजिये जैसे अपने घर के दरवाजे बंद कर देते हैं। यानि अपने घर के दरवाजे उनके लिए बंद। अब आपको वो आपके घर में तो क्या आस पास भी दिखाई नहीं देंगे। जबकि ऐसी सुविधा हमें अपनी बाहरी दुनिया में नहीं मिलती। यहाँ आप किसी अनावश्यक और अनचाहे को अपने घर आने से तो रोक सकते हैं पर अपने घर के सामने वाली सड़क पर चलने से नहीं रोक सकते, पर हर विषय का अपना एक अलग वर्ग होता है और शायद स्थान भी हो सकता है एक चौराहे पर शीला की जवानी सुनने वाले लोग इकठ्ठा होते हों तो दूसरे पर राजनीती पर चर्चा करने वाले .अब आपको जो पसंद हो आप उस चौराहे पर जाइये।
ये शोशल साइट्स भी एक इलाके / मोहल्ले जैसा है जहाँ हर तरह के लोग हैं और हर तरह की गतिविधियाँ। अब आपको पसंद है तो वहां घर बनाइये अपना. नहीं पसंद तो नहीं आइये। इसमें बेचारे उस मोहल्ले का क्या दोष ? यूँ कानून हर जगह है, क़ानूनी मदद के लिए आपके पास आप्शन बाहर भी हैं और इन साइट्स पर भी। अभी हाल में ही लन्दन के समाचार पत्र में खबर थी कि ऍफ़ बी पर एक लड़की को ब्लेकमेल करने वाले को उस लड़की की शिकायत पर पुलिस ने ढूंढ कर जेल में डाल दिया। तो यहाँ भी हमें अपने बाहर की दुनिया की तरह अपने ही संयम से काम लेना होता है। अपनी सुरक्षा और अपने मान की जिम्मेदारी हर जगह हमारी अपनी ही होती है। हमें क्या हक़ है कि यदि किसी को हलके फुल्के गाने सुनने का मन हो तो हम जबर्दास्त्ती उसे बुलाकर इतिहास सुनाएँ ? और फिर यदि वो ना सुने तो उसे अपने दोस्तों घेरे से निकाल दें या फिर उसे और उसके पूरे खानदान को गरियायें।
बरहाल गलत जहाँ भी हो उसका विरोध होना चाहिए फिर चाहे वो दुनिया में कहीं भी हो, पर मेरे ख़याल से कोई जगह गलत नहीं होती। आप और हम गलत होते हैं। हम समाज में रहते हैं और यहाँ सही, गलत सब होता है और यह हमेशा से होता रहा है, और उसे हम अपनी अपनी बुद्धि विवेक से ही सुलझाते भी हैं और जरुरत पढने पर कानून भी है। जहाँ तक मेरा मानना है बदला कुछ भी नहीं ना समाज, ना हम, ना मानव स्वभाव। बस बदला है तो माध्यम कल तो बातें चौपाल में फिर फ़ोन पर होती थीं आज इन शोशल साइट्स पर होती हैं।
नवभारत से साभार (४ मार्च २०१२ को प्रकाशित)
फेसबुक ने न जाने क्यों दुनिया को पागल बना रखा है । अफ़सोस तो तब होता है जब धुरंधर लोग भी इस की शरण में नज़र आते हैं । छींक मार उठने से लेकर जम्हाई लेकर सोने तक का एक एक पल का आँखों देखा हाल !
कमाल तो यह कि इसे पढने वाले भी बहुत मिल जाते हैं । ऐसा लगता है जैसे सब काम धाम छोड़कर फेसबुक पर ही बैठे रहते हैं । बढती स्वास्थ्य समस्याओं के लिए फेसबुक भी जिम्मेदार हो सकता है ।
वाह बहुत अच्छा लिखा है आपने बिना किसी लाग लपेट के सीधी बात यही तो सच्चाई है हर बात का सही गलत मतलब लोग अपनी सोच और विचारों के आधार पर तय करते हैं। फिर भी जो बात सामने वाले को सही लगती है वही बात कभी-कभी हमें ईर्षा के कारण गलत नज़र आने लगती है। सारा खेल बस मानव स्वभाव का ही हैं।
सहमत हूँ आपसे …
हमें खुद पर भरोसा होना चाहिए , शुभकामनायें आपको !
पर मेरे ख़याल से कोई जगह गलत नहीं होती.आप और हम गलत होते हैं.हम समाज में रहते हैं और यहाँ सही, गलत सब होता है और यह हमेशा से होता रहा है. और उसे हम अपनी अपनी बुद्धि विवेक से ही सुलझाते भी हैं.और जरुरत पढने पर कानून भी है.
सटीक उदाहरण दे कर अपनी बात कही है … स्वभाव नहीं बदलता …सचेत करती अच्छी पोस्ट …
so nice
एकदम सीधी सच्ची बात. हमें अपने आप को नियंत्रित करना होगा.
फेसबुक से बाहर जाने के बाद, यह पढ़कर पूर्ण मनोरंजन हो जाता है..
जाके पैर ना फटे बेवाई, वो क्या जाने पीर पराई टाइप , हम तो मुख पुस्तिका को कबहू नहीं पढ़े तो हमरा कुछ भी कहना बेमानी होगा. तो जी मै दही लपेट के भंडारी नहीं बनता . हम तो लोगों के बिचार सुनेंगे . बिंदास .
galat ka virodh zaruri hai …
पुनश्च अभिव्यक्ति की किसी भी माध्यम का प्रयोग और दुष्प्रयोग हमारे विवेक पर ही निर्भर है .सामाजिक नेटवर्किंग को गैर सामाजिक होने से बचाने के लिए अनुशासन तो जरुरी है .सुँदर विवेचना .
बहुत सही लिखा है …जीवन अपना और मन बुद्धि से चुनाव भी अपना ही …!!
london me baithi ek mahila agar bharat ke galiyon kee baat kare, to achchhha lagta hai.. par aur bhi achchha lagta hai, jab sab kuchh sach ho…:)
ye nashili duniya,… ye facebook ki duniya.. 🙂
par raha bhi to nahi jata, sabko apna samajh lene ki gustakhi karte hain:)
एक सार्थक आलेख … बधाइयाँ आपको !
बढ़िया और प्रासंगिक आलेख शिखा जी.. यह सोशल नेटवर्किंग का भूत अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। जैसे ही लोगों का मन ऊबेगा, कुछ नया तलाशना शुरू कर देंगे और दस साल बाद शायद बच्चे कहें – एफबी.. वो क्या होता है..
राजीव तनेजा तो हिट शायर हो लिए जी…वाज!! घूम आईये सुपर लॉन्ग विक एंड है…विचारणीय आलेख है वैसे.
अब इतनी बातें आपने कह दीं और उनमें से किसी पर भी असहमत होने जैसा कुछ है ही नहीं.. इन्स्टैंट फ़ूड के ज़माने में इन्स्टैंट अभिव्यक्ति और उनपर इन्स्टैंट प्रतिक्रियाएं.. सबकुछ तो है वहाँ..!! एक मज़ा है, मस्ती है और बहुत कुछ सोचने विचारने को भी है.. सबसे बड़ी बात जो यहाँ देखने को मिली वो ये है कि एफबी ने लोगों के प्रेजेंस ऑफ माइंड को बहुत निखारा है.. और शायद इसी से खुलकर पता चलता है कि कौन किस लेवल पर है…
ब्लॉग पर अच्छी प्रस्तुति, सुन्दर आलेख, सराहनीय, रोचक आदि लिखने वालों के लिए वो जगह सिर्फ लाइक करके भागने से ज़्यादा कुछ नहीं!!
वैसे सचमुच सुन्दर आप्रस्तुती!!
विचारणीय लेख, सब स्वतंत्र जो चाहें चुनने के लिए ,
अखबार में छपने के लिए बधाई।
एक और टिप्पणि दी थी, कहां गायब है?
हम भी फ़ेसबुक की अपनी दीवार पर पकवान ही धरते हैं शिखा रानी 🙂 असल में ये फ़ेसबुक का मोहल्ला हमें गम्भीर चर्चा का मंच लगता ही नहीं सो बस पकवान तक ही सीमित हैं 🙂 बढिया विवेचना है 🙂
बात तो आप सही कह रही हैं। फिलहाल एक फ़ेस बुकिया सेर चेंप देते हैं
डिश टी.वी. का है पलना और एफ़.बी. का झूला,
ये बच्चे क्या याद करेंगे बचपन कैसा होता है।
क्यों तुम दर्पण बेच रहे हो हम अंधों की बस्ती में,
हमको अब क्या लेना-देना दर्पण कैसा होता है।
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार – आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर – पधारें – और डालें एक नज़र – कब तक अस्तिनो में सांप पालते रहेंगे ?? – ब्लॉग बुलेटिन
एग्री, सही कहा | मैं इतनी दूर होकर भी अपने लगभग सारे दोस्तों से सोशल नेटवर्किंग के चलते ही जुड़ा हुआ हूँ, लोग सही भी लिखते हैं गलत भी | इसलिए दोष सोशल नेटवर्क का नहीं कहा जा सकता |
सच है भला ऍफ़ बी का क्या दोष ?
आनन्द आ गया। "रात की बात भी सुनाओ ना" क्या कहने हैं? एक एक शब्द सटीक है। जीवन में गपरस के माध्यम बदलते रहते हैं। बदलने भी चाहिए। बिना गपों के भला क्या जीवन है?
आखिर फेसबुक जैसे सोशल साईट्स पर भी समाज में रहने वाले लोंग ही हैं , इसलिए यहाँ भी हर मानसिकता वाले इंसान हैं !
इसमें इन सोशल साईट्स की क्या गलती है !!
सहमत !
बहुत खूब शिखाजी ek constant flow में इतना लम्बा लेख लिखना भी एक कला है ..कहीं उबाऊ या खिंचा हुआ नहीं लगा …बहता हुआ ,अबाध गति से …यही आपके लेखन की खूबी है …बहुत सुन्दर लेख ..और हाँ कोई भी चीज़ अच्छी या बुरी नहीं होती …व्यक्ति, space या परिस्तिथियाँ उसे गलत बनाती हैं
जबरदस्त 🙂
बाई द वे, कुछ दिन पहले मैंने भी तो 'कड़ाई पनीर' का फोटो लगाया था :O 😀 🙂
सही व सटीक आलेख
"किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है,
आ जा पूरी छोलों के साथ प्याज भी है."
वाह,,,वाह हम तो तनेजा जी के फैन हैं ….. पता नहीं वो अपने शेरों में इतना वजन लाते कहाँ से हैं !
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बढ़िया आलेख लिखा है शिखा !
समाज का प्रतिबिम्ब ही तो है ये फेसबुक
जैसे हम हैं वैसा ही तो है ………
सबसे ख़ास बात है कि यहाँ हर तरह की गतिविधियाँ हैं
जो पसंद हो वहां जाओ !!!
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आभार
बहुत बार सोचता हूं,जो आपने लिखा है,यह सोच तो किचितं,हमारे जमाने 70 के द्शक की है ।
साधी सच्ची बात … गलत हम होते हैं … ये सच ही सब कुछ हमारी सोच हमीर विचार पर ही निर्भर करता है … वैसे फेसबुक सब को अपने में लगाए हुवे है …
तनेजा भी ना जाने कहाँ कहाँ पूरी छोले पहुंचायेगा
मुझे पता था लेकिन
उसके बाद लेख अपने आप अच्छा हो जायेगा ।
वाह !!
bahut sachcha aur achcha likha aapne….jyadatar baato se poori tarah sahmat hun aur kabhi2 yahin bate dimag me aati bhi hai….
अजी चस्का ही ऐसा है … मुंहलगी जगह है ..जहाँ सारे अजनबी अपने लगते है …इतना अपनापन क्या बताये …इरान से तूरान और झुमरी तल्लैया से हमारे घर तक सब एक….. बढ़िया लेख
वाह जी! क्या बात है!!!
इसे भी देखें-
‘घर का न घाट का’
उत्तम लेखन, बढिया पोस्ट – देहात की नारी का आगाज ब्लॉग जगत में। कभी हमारे ब्लाग पर भी आईए।
aaj kal aesa hai hai na jane kitni durghatnayen bhi ho rahi hain log apne pal pal ki khabar dete hain .mujhe lagta hai ati har chij ki buri hoti hain …………….
rachana
कुछ दिन पहले दयानंद पाण्डेयजी का लेख पढ़ा था- <a href="http://sarokarnama.blogspot.in/2012/03/blog-post_26.htmlतो क्या फ़ेसबुक अब फ़ेकबुक में तब्दील है?</a>
उसके आगे की बात ये पढ़ी। रोचक!
नुक्कड़ और मोहल्ले में लोगों के बीच आपस में होने वाली बातों ने अब वर्चुअल स्पेस में भी स्थान ग्रहण कर लिया है…फर्क सिर्फ इतना है कि जहाँ एक तरफ हम आस पड़ोस वालों से या रिश्तेदारों से इस तरह बतियाते थे अब ये काम अनजान लोगों से होने लगा है..लेकिन लोग भी अब काफी हद तक अनजान नहीं रहे..
रोचक बढ़िया एवं ज्ञानवर्धक लेख
बिल्कुल सही कहा माध्यम बदला है स्वभाव नही. फेसबुक हो या कोई दूसरे सोशल साइट्स हम अपनी इच्छा से जुड़ते हैं और लोगों को जोड़ते हैं. वास्तविक जीवन में ये सुविधा नहीं होती. इस दुनिया की ये सुविधा है कि अगर इच्छा के अनुकूल न हो तो उसे ब्लाक भी कर दे सकते हैं. अब मानव स्वभाव ही तो सारी समस्याओं की जड़ है. अपने विवेक को छोड़ कर हम नाहक फेसबुक को दोष देते हैं. विचारपूर्ण लेख. अखबार में प्रकाशन के लिए बधाई.
बढिया लेख…बहुतो को सीख देती हुई सी …आभार
आप से सहमत हूँ शिखा जी!…माध्यम बदल जाने से स्वभाव में बदलाव नहीं आता!…लेख का अखबार में प्रकाशित होना प्रशंसनीय है…बहुत बहुत बधाई एवं शुभ कामनाएं!
बदलाव इतनी आसानी से नहीं आते, पीढियाँ अर्पित हो जाती हैं तब कुछ बदलता है।
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आज 08/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत मन से लिखा गया लेख पढ़ कर खुशी हुई. फेसबुक का बिलकुल सही विश्लेषण किया है. यही सब हो रहा है. लेकिन मेरा अपना अनुभव है की यह दुनिया बेहतर लोगों के लिए वरदान है. जो टुच्चे है, उनके लिए शैतानी का मंच है. जलनखोरों के लिए भड़ास का साधन है., और जो मनुष्य ही नहीं है, उनके लिए व्यभिचार के प्रचार-प्रसार का जरिया. लोग अपनी मानसिकता के अनुसार आचरण करते है. गलत करने पर फल भी पाते हैं. जैसा लन्दन में किसी मनचले ने पाया. ऐसे लोग दुनिया में भरे पड़े हैं., मेरे पास भी इसी तरह के 'सन्देश' आते रहते है. कुछ इतने अश्लील हैं की मैं यहाँ उल्लेख ही नहीं कर सकता. कुंठित लोगों की कमीं नहीं. फिर भी 'फेसबुक' अच्छा है इसको और अच्छा बनाना है. बहरहाल, लेख पढ़ कर अच्छा लगा., इसी तरह लिखते रहना. मैं देख रहा हूँ की शिखा आने वाले कल का एक सार्थक नाम है..मेरी शुभकामनाएं.
लाजवाब !!!प्रस्तुति शिखा जी बेहतरीन आलेख
माध्यम का क्या दोष ,ये तो दुनिया है यूज़ करनेवाली – कोई ढंग का, कोई खुराफ़ाती !
मन से लिखे आप के इस लेख से प्रभावित हुआ ,शुभकामनायें
पढ़कर मज़ा आ गया |
आप सोचिये एक चौराहे पर एक सुन्दर सी लड़की खड़ी होकर एलान करे कि "मुझसे दोस्ती करोगे" और दूसरे पर कोई कविवर अपने साहित्य का पाठ कर रहे हों .तो भीड़ कहाँ ज्यादा जुटेगी ? सही है साहब….
वैसे आपके आलेख के हर पैर और हर बात से सहमत. फेसबुक पर अपने अपने मोहल्ले हैं, जिस तरह की चर्चा में आपकी रूचि है उधर के चौराहे पर खड़े होईये….
वैसे लोग तो वही हैं माध्यम बदल जाने पर बात तो वही करनी हैं जो करते रहते हैं… सोशल साईट के अपने नफे नुक्सान है… यह तो इस्तेमाल करने वालों के ऊपर निर्भर करता है. इसलिए जो बेवजह फेसबुक को गरियाते हैं फिर वही लोग फेसबुक पर गालियाँ खाते हैं….
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