न नाते देखता है
न रस्में सोचता है
रहता है जिन दरों पे
न घर सोचता है
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
***************
यूँ तो गिरना उठना तेरा
रोज़ की कहानी है
पर इस बार जो गिरा तो
फिर ऊपर नहीं उठा है.
******************
लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.
*************************
कहीं एक आस बाकी रहने दे
इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता
क्या पता
नजरों से गिरते वजूद को
वहीँ थाम सकें वो.
**********************
bahut hi khoob Shikha ji!
behtreen prastuti!
Bahut sundar abhivyatki Shikha ji!
बहुत भाव पूर्ण रचना …शिखा जी …
वाह आनंद और संतृप्ति -आप की सुरुचिपूर्णता,और अभिव्यक्ति की सहजता पर दिल दिमाग बाग़ बाग़ !
bahut khub bhavpoorn rachna…
सुँदर सहज सुरम्य क्षणिकाएं ., उदगार तो शायद आपके लेखनी का इंतजार करते है . . आभार
बहुत सुंदर, बहुत बढ़िया… अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गईं…
वाकई में बहुत अच्छा लिखा … एकदम मीनिंगफुल…
सार्थक सृजन किया है आपने!
बहुत अच्छी कविता |बेहतरीन रचना |मन को भा गयी
(१)
अंतड़ी-पतड़ी सूखती, देह धरे के दंड ।
क्षुधा स्वयं आदर्श के, कर देती शत-खंड ।
(२)
हरियाली पानी बने, माँसल मिटटी भाग ।
बचा हाड़ हल्का हुआ, उड़े वायु जल आग।।
(3)
उठा गिरा करती नजर, धरती किन्तु निगाह ।
ऊँचा उठता वाह है , निचे गिरता आह ।
(4)
इन्तजार में दम बड़ा , रखना आँसू थाम ।
आएगा वह ईष्ट भी, भली करेंगे राम ।।
क्षमा करें महोदय / महोदया ।
अनर्गल भाव न निकालें इस तुरंती का ।
मैंने ध्यान से पढ़ा आपकी उत्कृष्ट रचना ।
बस यही ।।
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
…बहुत खूब! बहुत सार्थक और सुंदर प्रस्तुति…
बहुत बढ़िया…
भावपूर्ण रचना…
अनु
आपकी खूबसूरत कविताओं को मेरा नमस्कार। जीवन को कितने करीब से देख पा रही हैं आपकी कविताएं।
सुन्दर क्षणिकाएं… भावयुक्त
वाह जी वाह क्या बात है … बहुत खूब !
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.
सच्चाई तो है ….
आँखों से गिरा आंसू तो किसी के लिए उम्र भर की निशानी बन जाता है, मगर नज़रों से गिरा इंसान तो शायद…!! बहुत गहरे एहसास के साथ लिखी है ये क्षणिकाएं आपने!! भावपूर्ण!!
क्या फ़ितरत है वाह!
नज़रों से गिर कर
हम कहाँ जी पाएंगे
कहाँ जानते थे कि
इक हल्की सी ठोकर
से ही हम गिर जायेंगे ||…….अनु
क्या गज़ब लिखती हैं आप शिखा जी। बेहतरीन।
इंसान का गिरना , इंसानियत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है ।
बहुत सुन्दर रचना ।
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता……गज़ब 🙂
बेहद शानदार |
खूबसूरत क्षणिकाएं शिखाजी.. हर क्षणिका एक-दूसरे से जुड़ी फिर भी स्वतंत्र.. बहुत खूब!
भगवान करे कि संस्कृति व संस्कार का आधार बना रहे।
great
pyare bhavon me guthi kshanikayen
badhai
rachana
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 29-०३ -2012 को यहाँ भी है
…. नयी पुरानी हलचल में ……..सब नया नया है
सभी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर और भावपूर्ण, बधाई.
सुंदर भाव हैं
बढ़िया अभिव्यक्ति है
बधई
मन को छूते भाव …..बहुत ही सुंदर ….
जबरदस्त!!बहुत खूब!!
कहीं एक आस बाकी रहने दे
इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता
नजरों से गिरते वजूद को
वहीँ थाम सकें वो.
BEAUTIFUL LINES WITH NICE FEELINGS.
बेहतर होता जो तनिक
लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता….
satya vachan,Shikha di !
गहरे भाव लिए हुए है हर क्षणिका….
सादर.
गिरने उठने के मुख्तलिफ़ अंदाजों को बड़ी ही खूबसूरतिसे उकेरा है ….बहुत ही सुन्दर रचना !
आलम है बेबसी का, रोता है आदमी …
कहीं एक आस बाकी रहने दे
इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता
नजरों से गिरते वजूद को
वहीँ थाम सकें वो.
🙂 🙂
हर शब्द अपने आप में गहरे भाव समेटे हुए है .फितरत को बखूबी उकेरा है आपने .लाजवाब
भावमय करती कविता
सादर
do roti ke liye kitna gir jata hai aadmi….bahut sateek baat bhaavpoorn rachna.
bhawpoorn…..bahot achchi lagi.
लड्खाते हुवे संभालना आसान नहीं होता … पर ये नही सच है की संभल जाता है … उसका जीवन भी संभल जाता है … बहुत गहरी बात लिए …
अच्छी कविता है, थोड़ी ज़्यादा ही व्यंग्य भरी और didactic हो गयी है ।
bahut saarthk post,acha lga padh kar
umda post!
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
उत्कृष्ट लेखन …आभार
न नाते देखता है
न रस्में सोचता है
रहता है जिन दरों पे
न घर सोचता है
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
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गिरने की हदें तोड़ देता है आदमी फ़कत एक रोटी के लिए … खुद्दारी अपना वजूद ढूंढती है
सारी क्षणिकाएं पढ़ते हुये रहीम जी का दोहा याद आता रहा —
रहिमन पानी राखिए , बिन पानी सब सून ।
पानी गए न उबरे , मोती ,मानुष चून ॥
ज़िंदगी से जुड़ी हर रचना गहन भाव लिए हुये …
बेहतर होता जो तनिक
लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता…
….बहुत ही सुंदर ….
शिखा जी, क्षणिकाएं तो गागर में सागर हैं।
एक सागर में गोता लगाता हूं।
पहला मोती तो यह है …
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
आक्रामक सच को कहने का आपका अंदाजे बयां कुछ और है।
बाक़ी की तीन क्षणिकाओं पर एक मुक्तक अर्ज़ है —
अब तो अक्सर नज़र आ जाता है दिल आंखों में
मैं न कहता था कि पानी है दबाए रखिए
कौन जाने कि वो कब राह इधर भूल पड़े
अपनी उम्मीद की शम्अ को जलाए रखिए
ये छोटी-छोटी कविताएँ बेहद मारक हैं,. गहरी अर्थवत्ता के साथ. इसी शिल्प में और कविताएँ लिखना, यह तरीका अच्छा है. 'धूमिल' की अनेक कविताएँ इसी फ़ार्म में हैं. देखन में छोटे लगें, घाव करत गंभीर. बधाई.
बढिया कविता…………… आभार
क्या कहूँ मैं….क्या कह पाउँगा….अभी जज्ब कर रहा हूँ….
बढ़िया. बढ़िया .
बेहतरीन पोस्ट शिखा जी |
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.bilkul sach!!behad khari rachna….
बेहतर होता जो तनिक
लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.
सिर्फ चार पंक्तियाँ और उनमें छिपा दर्शन आइना दिखा रहा है. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.
बेहद उम्दा।
बेहद उम्दा।
बहुत सुन्दर सृजन, बधाई.
मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें.
कहाँ निशाना है जी…है बेहतरीन!!
बड़ी प्यारी भावपूर्ण प्रस्तुति.
बहुत बढ़िया… सभी एक से बढ़कर एक
बहुत सुन्दर….
ब्लॉग बुलेटिन पर जानिये ब्लॉगर पर गायब होती टिप्पणियों का राज़ और साथ ही साथ आपकी इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है आज के बुलेटिन में.
मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति…
बेहतरीन भावपूर्ण कविताओं के लिए बधाई। अच्छी रचना है ….
बेहतर होता जो तनिक
लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.
अत्यंत सुंदर रचना.
कहीं एक आस बाकी रहने दे
इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता ……………..
NICE LINES.
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