कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई
जैसे सहित्य की धार
कोई निरीह अबला कहे,
कोई मदमस्त कमाल.
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दीवारों ने इंकार कर दिया है
कान लगाने से
जब से कान वाले हो गए हैं
कान के कच्चे.
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काश जिन्दगी में भी
गूगल जैसे ऑप्शन होते
जो चेहरे देखना गवारा नहीं
उन्हें “शो नेवर” किया जा सकता
और अनावश्यक तत्वों को “ब्लॉक “
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कोई सांसों की तरह अटका हो
ये ठीक नहीं
एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये.
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मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.
***************
हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती.
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खूबसूरत हैं ये छोटे-छोटे एहसास..!!
ये लाइंस बहुत बढ़िया लगीं :
"मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं"
और "हल्का-फुल्का" नहीं काफी ठोस बातें हैं जैसे :
"हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती"
बढ़िया !!!
काश जिन्दगी में भी
गूगल जैसे ऑप्शन होते
जो चेहरे देखना गवारा नहीं
उन्हें "शो नेवर" किया जा सकता
और अनावश्यक तत्वों को "ब्लॉक "……….waah sahi bahut bahut sahi baat ..:)halka fulka par bahut bhaari 🙂
deewaro ke kaan jayda khade dikh rahe:))
jaldi jindagi me bhi hoga block jaisa opion..:)
bas shayad ham tum upar pahuch jayen tab tak:))
बड़ा सारगर्भित हल्का फुल्का है 🙂
वाह जी वधिया
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 27-09 -2012 को यहाँ भी है
…. आज की नयी पुरानी हलचल में ….मिला हर बार तू हो कर किसी का .
priya mitrwar , saadar namaskaar !! aap bahut hi achchaa likhti hain , bhavon se bhari aapki lekhni hai !! rozana padhen , share karen or apne anmol comments bhi deven !! hmara apna blog , jiska naam hai :- " 5TH PILLAR CORROUPTION KILLER " iska link ye hai …:- http://www.pitamberduttsharma.blogspot.com. sampark number :- 09414657511
हल्के-फुल्के तरीके से कही गयीं कुछ गंभीर बातें |
-आकाश
मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.
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हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती.
सशक्त पंक्तियां
हलके फुल्के होगें आपके लिए मुझे तो वजनी टाइप और करारे लगे . ये ब्लाक करने वाली प्रवृति तो कबसे है लोगों में , शायद खुद से ही डरते है ऐसे लोग या आत्मविश्वास की कमी . बाकी तो मौजूं है सब कुछ .
दीवारों ने इंकार कर दिया है
कान लगाने से
जब से कान वाले हो गए हैं
कान के कच्चे.
क्या बात है शिखा…बहुत बढ़िया है 🙂 इंसान जो न कराये…:(
काश जिन्दगी में भी
गूगल जैसे ऑप्शन होते
जो चेहरे देखना गवारा नहीं
उन्हें "शो नेवर" किया जा सकता
और अनावश्यक तत्वों को "ब्लॉक "
हम्म्म्म….लगता है बहुतों को ब्लॉक किया है तुमने .. 🙂 मेरी बारी कब आएगी?
"कोई सांसों की तरह अटका हो
ये ठीक नहीं
एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये."
होता है, होता है…सहा भी न जाए, रहभी जाए टाइप.. 🙂
हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती.
क्या बात..क्या बात…अक्सर ज्ञान बघारते वे ही मिल जाते हैं जिनके पास ज्ञान का संकुचित विस्तार है 🙂 🙂 🙂
देखा, मुझसे मिलने का नतीजा?? क्या शानदार कवितायें कहने लगीं?? धन्यवाद दो तुरंत.
ये कहिये कि हल्के-फुल्के अंदाज़ में गहरी-गहरी बातें…:) मज़ा आ गया पढ़कर. मन हल्का हो गया.
हल्की फुल्की सुपाच्य और बहुत प्रभावशाली …क्षणिकाएँ….!!मैं नहीं सोच पा रही हूँ किसे सबसे अच्छी कहूँ …!!सभी बहुत बढ़िया है ….!!.
सशक्त पंक्तियां
काश जिन्दगी में भी
गूगल जैसे ऑप्शन होते
जो चेहरे देखना गवारा नहीं
उन्हें "शो नेवर" किया जा सकता
और अनावश्यक तत्वों को "ब्लॉक "….काश
बेहतरीन क्षणिकाएँ हैं। हल्का-फुल्का क्यों लिखा? अंतिम वाली तो जबरदस्त है। सोच रहा हूँ कि तश्वीरों के चयन में आपने कितनी मेहनत की होगी! उस मेहनत को सलाम।
क्षणिकाओं में हल्के फुल्के से गंभीर बातें कह दी हैं …
ज़िंदगी में गूगल खुद बनना पड़ता है, सबको तो नहीं पर कुछ को तो ब्लॉक कर ही सकते हैं ।
मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.
कितना ही सितम कर लो , नहीं भरेंगी दरारें
हर बार किसी सितम की उम्मीद बाकी है …
@ एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये
घुटते रहने से अच्छा है
मामले को आर
या पार कीजिये
मगर इस आह का क्या कीजिये
जो छोड़ जाती है कसकती यादें
कम्बख़्त,
जितना भुलाओ
उतना ही सताती हैं यादें
कहाँ …
कैसे दफ़न करूँ इन्हें
बस, इतना और बता दीजिये।
हल्का फुल्का तो नहीं है हा हल्के फुल्के मुड में लिखी गई गहरी गहरी बाते , पंक्तियों से साथ लेगे फोटो अच्छे लगे |
आप की पोस्ट का शीर्षक देख तो लगा कि आज मेरे बारे मे कुछ लिखा है आपने … 😉
कुछ तो फर्क है, कि नहीं – ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है … आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है … आपको सादर आभार !
एक आप्शन और होना चाहिए | जिसको दिल से चाहो उसकी फोटो आँखों में 'स्क्रीन सेवर' सी लग जाए | हाँ !आपकी सभी सूक्ष्म पंक्तियाँ गहन अर्थ धारण किये हुए हैं |
भारी भरकम!!
अनुपमा जी की बात से सहमत हूँ 🙂
वाह, बहुत खूब..
थोड़ा फुटकर, बाकी थोक,
नहीं कभी पर दिल को रोक।
दीदी…कमाल…एकदम बेहतरीन टाईप की क्षणिकाएं हैं….
मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.
एकदम कमाल की बात
सुंदर प्रस्तुति |
मेरी नई पोस्ट:-
♥♥*चाहो मुझे इतना*♥♥
बात में तो दम है,लेकिन मजबूरी है,,,,
RECENT POST : गीत,
कोई सांसों की तरह अटका हो
ये ठीक नहीं
एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये.
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gahaqn soch hai bahan halki fulki nahi bahut bhari hain
rachana
ये हल्की-फुल्की पंक्तियाँ गहन भाव लिए बहुत ज्यादा ही भारी हो गई है..|
गहरे जज्बात और कसक इन छोटे-छोटे पंक्तियों में |
सादर |
गहन भाव लिए सभी मुक्तक
क्या बात है आज? गजब ही ढा दिया है।
कोई सांसों की तरह अटका हो
ये ठीक नहीं
एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये.
वाह …बेहतरीन …!
bahut badhiya shodon ka samagam…dhnywad kabhi samay mile to mere blog http://pankajkrsah.blogspot.com pe padharen swagat hai
bahut khoob….
'Jindagi mein Google jaise options' waah!!!
ये हल्का फुल्का है ? पूरी ज़िन्दगी लग जाती है समझने में
बहुत बढ़िया और हल्की फुल्की रचना…..अच्छा लगा पढ़कर..
"हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती"
एक अलग सा लगा ये प्रस्तुतीकरण , दो लाइने कितनी गहरी बात कह रही हैं और चार लाइन गूगल वाली तो पूरा का पूरा धर्मग्रन्थ कह गयीं.
बहुत सुंदर.
दीवारों ने इंकार कर दिया है
कान लगाने से
जब से कान वाले हो गए हैं
कान के कच्चे.
क्या बात है शिखा जी बहुत खूब।
ये हल्का फुल्का तो कतई नहीं है ,पर हाँ हैं सब बहुत मस्त ….-:)
हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती.
….लाज़वाब! बहुत सुन्दर रचनाएँ…
सभी ख़याल अच्छे ,सार्थक है– कोई सांसों की तरह अटका हो
ये ठीक नहीं
एक आह भरके उन्हें रिहा कीजिये.
वाह …ये बहुत अधिक पसंद आया
जुल्म की मुझपे इन्तहा कर दे ,
मुझसा बे -जुबान ,फिर कोई मिले ,न मिले .
एक से एक बढ़िया बिम्ब दियें हैं आपने व्यंजना असरदार रहीं हैं सबकी सब –
मेरे हाथों की लकीरों में कुछ दरारें सी हैं
शायद तेरे कुछ सितम अभी भी बाकी हैं.
ram ram bhai
मुखपृष्ठ
बुधवार, 26 सितम्बर 2012
मेरी संगत अच्छी है
सारी लघुकविताएं कुछ अलग हटके कुछ विशेष संदेश दे रही हैं। अंत की लघुकविता पढ़कर एक शे’र याद आ गया …
लोग हाथ की लकीरें यूं पढा करते हैं,
इन का हर हर्फ़ इन्होंने ही लिखा हो जैसे।
बेहद गहन भावों से युक्त हैं ये मुक्तक…..
शुभ कामनाएं
ख़ूब छींटें उछाली आपने ,ऊपरी मेकप से अस्लियत झाँकने लगी !
सभी मुक्तक अच्छे और घन भावार्थ लिए |आभार
कम शब्दों में खूब कही ….. सभी पंक्तियां लाजवाब
एक से बढकर एक पंक्तियां
दीवारों ने कर दिया कान लगाने से इनकार …
हाथों की लकीरों में दरार तो जानलेवा है !
ये कहाँ हलकी -फुलकी हैं !
सुन्दर कविता.अच्छी प्रस्तुति
"हाथ फैला के सामने वो रेखाओं को बांचते हैं
एक लकीर भी सीधी जिनसे खींची नहीं जाती"
सारी लघुताएं बहुत सुंदर ।
जबरदस्त -बहुत भारी गुजर गयीं हैं दिल पर ये चंद सतरें……क्या कर डालूँ जो ख़त्म हो इनकी असरें!
गूगल वालों शिखा वार्ष्णेय की ये दलील मत मानना कभी …(न जाने क्यों डर लग रहा है :-()
वेरी नाइस मैम!
वाह,बहुत खूब
बड़ी ऊंची-ऊंची क्षणिकायें लिख डालीं। 🙂
खूबसूरत!
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