धागे जिंदगी के कभी कभी उलझ जाते हैं इस तरह की चाह कर फिर उन्हें सुलझा नही पाते हैं हम. कोशिश खोलने की गाँठे जितनी भी हम कर लें मगर उतने ही उसमें बार बार फिर उलझते जाते हैं हम. धागों को ज़ोर से खीचते भी कुछ भय सा लगने लगता है वो धागे ही टूट ना जाएँ कहीं यूँ…
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ,तेरी तुलना के लिएहर शब्द अधूरा लगता हैतेरी ममता के आगेआसमां भी छोटा लगता हैतुम पर मैं क्या लिखूं माँ. याद है तुम्हें?मेरी हर जिद्द कोबस आख़िरी कहपापा से मनवा लेती थी तुम.मेरी हर नासमझी कोबच्ची है कहटाल दिया करती थीं तुम.तुम्हारा वह कठिन श्रम तब मुझे समझ आता था कहाँ तुम पर मैं क्या…






