Yearly Archives: 2019

वोआते थे हर साल। किसी न किसी बहाने कुछ फरमाइश करते थे। कभी खाने की कोई खास चीज, कभी कुछ और। मैं सुबह उठकर बहन को फ़ोन पे अपना वह सपना बताती, यह सोचकर कि बाँट लुंगी कुछ भीगी बातें। पता चलता कि एक या दो दिन बाद उनका श्राद्ध है। मैं अवाक रह जाती। मुझे देश से बाहर होने…

ये उन दिनों की बात है, जब हवाई यात्रा आम लोगों के लिए नहीं हुआ करती थी और हवाई अड्डे तो फिर बहुत ही खास होते थे. आने वाले को लेने, पूरा कुनबा सज धज कर आया करता था.? साथ में फूल भी होते थे और कैमरा भी. अब क्योंकि यात्रा ख़ास होती थी तो सामान भी खास होता था…

ये उन दिनों की बात है जब कैमरा की घुंडी घुमाकर रील आगे बढ़ाई जाती थी। एक क्लिक की आवाज के साथ रील आगे बढ़ जाती थी एक रील में 15 , २३ या ३६ फोटो होते थे… जो कभी कभी एक ज्यादा या एक कम भी हो जाते थे. पूरे फोटो खिंच जाने पर कैमरे की एक टोपी घुमाकर…

 ‘पुरवाई’ से साभार  डायरी साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने को स्वतंत्र होता है क्योंकि उसका सर्वोपरि पाठक वह स्वयं होता है। पर उसे प्रकाशित करना अपने व्यक्तिगत विचारों को अपने से इतर पाठक तक पहुँचाना है। साहित्य की सभी विधाओं में से डायरी एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक…

  पूरी किताब लिखकर छपवाने के बाद पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय जब बेहद, मासूमियत से हमसे पूछतीं हैं कि मेरी किताब ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ किस विधा के अन्तर्गत आएगी तो उनकी सादगी पर बहुत प्यार आता है और कहीं पढ़ी ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती है…. ‘लीक पर वे चलें जिनके पग हारे हों’। अब चाहें…

ग्रीष्मकालीन अवकाश, स्कूल वर्ष और स्कूल के शैक्षणिक वर्ष के  बीच गर्मियों में स्कूल की एक लम्बी छुट्टी को कहते है। देश और प्रांत के आधार पर छात्रों और शिक्षण स्टाफ को आम तौर पर छ: से आठ सप्ताह के बीच यह अवकाश दिया जाता है। जहाँ भारत में यह अवकाश सामान्यत: पाँच से छ: सप्ताह का होता है वहीँ संयुक्त…

  छोड़ना होगा उसे वह घर वह आंगन, वह फर्श, वह छत। जिससे जुड़ा है उसका जन्म, बचपन, उसका यौवन, उसका जीवन। कहते हैं लोग इसी में उसकी भलाई है यही रीत चली आई है। अब वह खुद ही खुद को संभाले भोगे अपने सुख दुख अकेले पुराने नातों को बिसरा दे। वह ठिठकती है हर कदम पर निकलने में…

क्या अब भी होली की टोली घर घर जाया करती है ? क्या सांझ ढले अब भी  महफ़िल जमाया करती है। क्या अब भी ढोलक की थापों पे ठुमरी, ख्याल सजाये जाते हैं ? “जोगी आयो शहर में व्योपारी” क्या अब भी गाये जाते हैं। क्या अबीर गुलाल की बिंदी हर माथे पे लगाई जाती है ? क्या गुटके रेता…

आज शायद 22 साल बाद फिर इस शहर में यह सुबह हुई है। रात को आसमान ने यहाँ धरती को अपने प्रेम से सरोबर कर दिया है। गीली मिट्टी की सुगंध के साथ धरा महक उठी है। आपके इस शहर में आज फिर हूँ। हर तरफ आपके चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। वह नुमाइश ग्राउंड में लगे बड़े से पत्थर पर…