वोआते थे हर साल। किसी न किसी बहाने कुछ फरमाइश करते थे। कभी खाने की कोई खास चीज, कभी कुछ और। मैं सुबह उठकर बहन को फ़ोन पे अपना वह सपना बताती, यह सोचकर कि बाँट लुंगी कुछ भीगी बातें। पता चलता कि एक या दो दिन बाद उनका श्राद्ध है। मैं अवाक रह जाती। मुझे देश से बाहर होने के कारण ये तिथियां कभी पता ही नहीं चलती थीं। मैंने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की। न मुझे इनसब पर विश्वास था न ही बाहर कुछ भी करने की सुविधा थी और कहा गया था कि बेटियां श्राद्ध नहीं करतीं।

फिर बहन कहती, मम्मी से कह देती हूँ उनकी फरमाइश की चीज दान कर देंगी। मुझे यह आदत सी पड़ गई। अब मैं खास उन दिनों का पता करती, उन्हें याद रखती और उनके सपने में आने का और कुछ फरमाइश का इंतजार करती। दूसरे दिन बहन को बता देती। कई साल यह सिलसिला चला।

फिर एक दिन अचानक याद आया कि पापा, सुविधा, साधन न होने की स्थिति में अपने दादा, दादी का श्राद्ध दूध, जलेबी मंदिर में भिजवा के कर दिया करते थे। मुझे जाने क्या सूझा, दूध जलेबी लेकर मंदिर में दे आई।
बस…तब से उन्होंने सपने में आना ही बंद कर दिया।
पर मैं अब भी उन दिनों में उनसे सपने में मिलने का इन्तज़ार हर साल करती हूँ। चाहती हूं वो आएं, और कुछ इच्छा जताएं। पर अब वो नहीं आते…और मैं फिर चुपचाप दूध जलेबी दे आती हूँ।