Yearly Archives: 2011

स्मृतियाँ …बहुत जिद्दी किस्म की होती हैं..कमबख्त पीछा ही नहीं छोड़तीं जितना इनसे दूर जाने की कोशिश करो उतना ही कुरेदती हैं और व्याकुल करती हैं अभिव्यक्त करने के लिए. फिर चाहे वह किसी भी रूप में हो.घर में बच्चों को कहानी के तौर पर  सुनाने के रूप में या ,किसी संगी साथी से बाटने के रूप में.कहीं किसी डायरी…

क्रिसमस का समय है. बाजारों में ओवर टाइम हो रहा है और स्कूलों में छुट्टी है .तो जाहिर है की घर में भी हमारा ओवर टाइम होने लगा है.ऐसे में कुछ लिखने का मूड बने भी तो अचानक ” भूख लगी है ……..या ..”तू स्टुपिड , नहीं तू स्टुपिड”की आवाजों में ख़याल यूँ गडमड हो जाते हैं जैसे मसालदानी के…

जीवन की रेला-पेली है. कुछ चलती है, कुछ ठहरी है. जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ कहा वक्त ने हो गई देरी है. अब भावों में उन्माद नहीं क्यों शब्दों में परवाज़ नहीं साँसे कुछ अपनी हैं बोझिल या चिंता कोई आ घेरी है जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ कहा वक्त ने ,हो गई देरी है. थे स्वप्न अभी…

मैं जब भी भारत जाती हूँ लगभग हर जगह बातों का एक विषय जरुर निकल आता है. वैसे उसे विषय से अधिक ताना कहना ज्यादा उचित होगा. वह यह कि “अरे वहां तो स्कूलों में पढाई ही कहाँ होती है.बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हो. यहाँ देखो कितना पढ़ते हैं बच्चे”. पहले पहल उनकी इस बात पर मुझे गुस्सा…

*सिर्फ एक पंक्ति फेसबुक की दिवार पर – “मैंने अपनी महिला मित्र को छोड़ दिया. अब मैं आजाद हूँ.” और नतीजा… उस लडकी ने शर्मिंदगी और दुःख में आत्महत्या कर ली. *एक बच्ची ने फेस बुक पर एक इवेंट डाल दिया .कल उसका जन्म दिन है सभी को आमंत्रण .दूसरे दिन हजारों की संख्या में उसके घर आगे उपहार लिए…

हथेली की रेखाओं में कभी सीधी कभी आड़ी सी पगडंडी पर लुढ़कती कभी बगीचों में टहलती बारिश बन बरसती कभी धूप में तपती नर्म ओस सी बिछती तो कभी शूल बन चुभती झरने सी झरती कभी नदिया सी बहती रहती मेज पे रखे प्याले से कभी चाय सी छलकती. ग़ज़ल सी कहती कभी कभी गीतों पे थिरकती . रातों के…

वहमों गुमान से दूर दूर ,यकीन की हद के पास पास,दिल को भरम ये हो गया कि ……..जी नहीं मैं ये अचानक सिलसिला की बात नहीं कर रही हूँ .वरन ना जाने क्यों जोर्डन और हीर का प्रेम देख ये पंक्तियाँ स्मरण हो आईं. जोर्डन जो हीर से प्यार करना चाहता है सिर्फ इसलिए क्योंकि हीर दिल तोड़ने वाली मशीन…

अपनी कोठरी के छोटे से झरोखे से देखती हूँ दूर, बहुत दूर तक जाते हुए उन रास्तों को. पक्की कंक्रीट की बनी साफ़ सुथरी सड़कें खुद ही फिसलती जातीं सी क्षितिज तक जैसे और उन पर रेले से चलते जा रहे लोग अनगिनत, सजीले, होनहार,महान लोग. मैं भी चाहती हूँ चलना इसी सड़क पर और चाहती हूँ पहुंचना उस क्षितिज…

जब भी कभी होती थी संवेदनाओं की आंच तीव्र तो उसपर  अंतर्मन की कढाही चढ़ा कलछी से कुछ शब्दों को  हिला हिला कर भावों का हलवा सा  बना लिया करती थी और फिर परोस दिया करती थी अपनों के सम्मुख और वे भी उसे  सराह दिया करते थे शायद  मिठास से  अभिभूत हो कर , पर अब उसी कढाही में …

तीन मध्यम वर्गीय १६- १७ वर्षीय  बालाएं आधुनिक पश्चिमी पोशाक , एक हाथ में स्टाइलिस्ट बैग्स और दूसरे में ब्लेक बेरी.इस काले बेरी  ने बाकी सभी मोबाइल को छुट्टी पर भेज दिया है आजकल. स्थान -महानगर की मेट्रो . शायद किसी कोचिंग क्लास में जा रहीं थीं या फिर आ रहीं थीं.पर उनकी बातों में कहीं भी लेश मात्र भी…