अपनी कोठरी के छोटे से झरोखे से देखती हूँ
दूर, बहुत दूर तक जाते हुए उन रास्तों को.
पक्की कंक्रीट की बनी साफ़ सुथरी सड़कें
खुद ही फिसलती जातीं सी क्षितिज तक जैसे
और उन पर रेले से चलते जा रहे लोग
अनगिनत, सजीले, होनहार,महान लोग.
मैं भी चाहती हूँ चलना इसी सड़क पर
और चाहती हूँ पहुंचना उस क्षितिज तक
पर नहीं जाना चाहती उसी एक राह से
शामिल होकर उसी परंपरागत भीड़ में
जो चल रहे हैं न जाने कितनो का सर
अपने अहम् के पाँव तले कुचल कर
रौंद कर अस्तित्व अनेक मासूमो का
यूँ खुद को ऊँचा दिखाने की ख्वाइश में
मिटा देते हैं फिर कोई लंबी लकीर
अपनी छोटी लकीर को लंबा करने की खातिर
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
बढ़िया भाव को समेटा है आपने अपनी इस रचना में … आभार !
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
बहुत खूब लिखा है आपने।
सादर
राहें मेरी अपनी होंगी..
माना की आजकल के दौर में लगभाग सभी इन्सानों का रवैया भी भेड़ चाल की तरह ही हो गया है। मगर उन में से कुछ है,आपकी और हमारी तरह जिन्हें "उस सड़क तक पहुँचने के लिए अपनी अलग पगडंडी की तलाश है"….मानो भावों को बखूबी प्रस्तुत किया है आपने!!
दुनिया की भीड़ और भाग-दौड़ की भेड़चाल से हटकर जो अपनी राह अलग चुनता है सही और सच्ची मंज़िल उसे ही मिलती है …!
दुनिया की भीड़ और भाग-दौड़ की भेड़चाल से हटकर जो अपनी राह अलग चुनता है सही और सच्ची मंज़िल उसे ही मिलती है …!
संवेदना जितनी कोमल है उतनी ही शालीनता से मुखरित भी हुई है । 'पगडंडी' प्रतीकार्थ में- स्वैराचारी, छद्म और कुटिल चालों भरे कंकरीटी मार्ग से विलग-उस सरल निश्छल प्रशस्त पथ का आशय ध्वनित करती है जिस पर पग रखने वाला हर व्यक्ति सहचर होता है, प्रतिद्वंदी नहीं; जिस पर बढ़ते पगों में अपने गंतव्य तक पहुँचने की दृढ़ता अवश्य होती है,किन्तु, हर किसी को किसी भी तरीक़े से पछाड़ते हुए मक़ाम हासिल करने की निरंकुश दुष्टता नहीं !"पक्की कंक्रीट की बनी साफ़ सुथरी सड़कें/ खुद ही फिसलती जातीं सी क्षितिज तक जैसे!" अहम्मन्यता में चूर दर्पीली ऊँचाइयों की ओर ले जाती मूल्यहीनता की फिसलन…इसी से बचकर अपने लक्ष्य तक पहुँचने का संकल्प नितांत ख़ूबसूरत है । सुन्दर कविता के लिए, बधाई शिखा जी !
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
Kitne anokhe,sundar vichar hain aapke!
दुनिया की भेड़ चाल से अलग चलना ही खुद्दारी है ।
गहन भाव लिए सुन्दर रचना ।
खूबसूरत कविता…
भीड़ से अलग अपनी राह तराशने का सुन्दर जज़्बा!
सार्थक रचना!
दृढ भाव मन के …!!
सुंदर रचना ….
bahut sunder likhi hain……
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
आप तो पथप्रदर्शक बनो जी , और पगडंडी तो क्या अपने राजमार्ग बना लिया है.भेड़ चाल से इतर कुछ करने की चाह. ये लो जी इस कविता के लिए वाह वाह ..
मुझे उस सड़क तक पहुंचने के लिए
अपनी अलग पगडंडी की तलाश है…
वाह शिखा जी,
इस रचना के ज़रिये नेक इरादों का कितना बड़ा पैग़ाम दिया है आपने…बधाई.
गहरे भाव।
अपनी राह बनाकर उस पर चलना अलग ही सुकून देता है….
बहुत गहरे भाव …… जीवन संघर्ष और अपनी राह आप बनाने की सोच …..
अपने अहम् के पाँव तले कुचल कर
रौंद कर अस्तित्व अनेक मासूमो का
यूँ खुद को ऊँचा दिखाने की ख्वाइश में
मिटा देते हैं फिर कोई लंबी लकीर
क्या बात है शिखा जी. बहुत सुन्दर पंक्तियां.
मंजिल तक पहुँचने के लिए किसी के अस्तित्व को रौंद कर न जाने की ख्वाहिश संवेदनशील मन को अभिव्यक्त करती है .. परम्परा से हट कर कुछ कर गुजरने का हौसला बताती है नयी पगडण्डी बनाने की चाह ..
बहुत खूबसूरत भावों को सहेजा है अपनी इस रचना में … अच्छी प्रस्तुति
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा आज दिनांक 11-11-2011 को शुक्रवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
पर नहीं जाना चाहती उसी एक राह से
शामिल होकर उसी परंपरागत भीड़ में
जो चल रहे हैं न जाने कितनो का सर
अपने अहम् के पाँव तले कुचल कर
रौंद कर अस्तित्व अनेक मासूमो का
यूँ खुद को ऊँचा दिखाने की ख्वाइश में…
चुन रही अपने लिए
हर दिन एक कठिन राह …
आसान भी हो सकता था यह सफ़र
हर हाँ में हाँ मिलाकर
चापलूसी की मुस्कान लपेटे
मगर
आदिम मनुष्यों की कतार में शामिल
सूरज की ओर मुंह कर हुनहुनाने से
मुझे इनकार है , इनकार है …
जो लोग भी अलग पगडण्डी बनाते हैं वे ही अपनी मंजिल पाते हैं। बढिया विचार।
सुन्दर..बहुत सुन्दर लिखा है दीदी..और बहुत सच लिखा है!!
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है कल शनिवार (12-11-2011)को नयी-पुरानी हलचल पर …..कृपया अवश्य पधारें और समय निकल कर अपने अमूल्य विचारों से हमें अवगत कराएँ.धन्यवाद|
मिलेगी ज़रूर मिलेगी अगर कोई ख़याल जन्मा है मन में तो कहीं ना कहीं होगा ज़रूर
मौलिक रचना हेतु बधाई !
बहुत अच्छे से अहम् का विश्लेषण किया है आपने ।
अहममुक्त रहने का सार्थक सन्देश देती कविता ।
अपने विचारों से अवगत कराएँ !
अच्छा ठीक है -2
अपनी पगडण्डी ही शाश्वत है शिखा जी ….राह वही जो खुद के अनुभवों से बने
नहीं बनना भीड़ का हिसा तो नहीं बनना वो राह देखने में चाहे जितनी ही चमकीली क्यों ना हो !
अब आपकी लेखनी में जीवन का गहरा दर्शन उतरने लगा है शिखा जी ….यही खुद की पगडण्डी है !
talash to mujhe bhi hai us pagdandi ki……….par kab puri hogi:(
नयी पगडंडियाँ ही जीवन की तलाश है …..
बधाई शिखा जी ….!
यही व्यापक सोच है. … 'उस सड़क तक पहुँचने के लिए अपनी अलग पगडंडी की तलाश है'….हमारा जो कुछ हो, अपना हो. अपनी पगडंडी के सहारे आगे बढ़ाने का संकल्प ही हमें आगे ले जता है. रफ़्तार धीमी रहे, मगर लक्ष्य मिलाता ही है. गागर में सागर भर दिया. इस सोच को और लोग भी ह्रदयंगम करेंगे.
रास्ते अनगिनत हों, लेकिन जिस पर चल कर लगे कि आनंद यात्रा की बस वही सही है और वही मुकाम तक पहुंचाता है.. जो लाशों के ढेर पर पैर रखकर चोटी तक पहुंचाते हैं अचानक उन्हें एहसास होता है कि उनकी सफलता का साक्षी कोई नहीं, सब के सब मुर्दे हैं जिन्हें रौंदकर वो यहाँ तक पहुंचा है.. इतिहास में अशोक ही एकमात्र उदाहरण है जिसने लाशों के ढेर को सिंहासन बनाया और जब उसे अपनी हुकूमत का पता चला तो ह्रदय परिवर्तन.. संन्यास!!
शिखा जी कुछ ज़्यादा हो गया… ओवरडोज..क्षमा!!
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
bahut sunder bhav sari kavita ka sar hai in panktiyon me kamal badhai
rachana
नए रास्ते, नया उन्वान
यही जीवन की पहचान
सुन्दर रचना…
सादर…
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.
bahut khoob….
मन में हो उत्साह और मंजिल की हो चाह
पगडण्डी बन जात है , ऊबड-खाबड राह.
आत्म-विश्वास जगाती सशक्त रचना.
पगडण्डी की तलाश कविता पढ़ी आपकी किन्तु आपकी कविताओं में आपका पत्रकार कवि को एक सीमित सा कर रहा काव्य की व्यजना के आड़े आ जाता है विषय वस्तु अच्छी है आप और एक बार विचार करें मेरे कथन को आलोचना न मानते हुये तब आप मेरा आशय समझ जाओगी
पगडण्डी की तलाश कविता पढ़ी आपकी किन्तु आपकी कविताओं में आपका पत्रकार कवि को एक सीमित सा कर रहा काव्य की व्यजना के आड़े आ जाता है विषय वस्तु अच्छी है आप और एक बार विचार करें मेरे कथन को आलोचना न मानते हुये तब आप मेरा आशय समझ जाओगी
निदा फाजली ने लिखा है….
यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो।
…….
बहुत कठिन है सफर, जो चल सको तो चलो।
आपकी अलग पगडण्डी की तलाश
बहुत अच्छी लगी शिखा जी.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
अनुपमा जी का भी आभार कि
उन्होंने अपनी हलचल से आपकी
इस पोस्ट पर पहुँचाया.
bahut sundar rachna hai.. lambe samaya n=baad blogger me aaya aur pahli rachna hi yah padhi .. sundar !
बिलकुल ठीक कहा – मूषक स्पर्धा में कोई ऐसी अजीम हस्ती जाए ही क्यों ?
पगडंडी शब्द को आपने एक नया संदर्भ – sanskaar और बोध दे दिया है और us पर जब कोई इन paktiyon की रचनाकार हस्ती चल पड़े तो वह राजपथ न हो जाय 🙂
बाकी काफी लोगों कि तरह मेरी भी पसंदीदा पंक्तियाँ यहीं हैं…
"मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है"
बहुत ही प्रभावशाली रचना है!!!
अच्छी रचना ..गहरे भाव समेटे हुए ..
बहुत सुंदर
आज की हकीकत
लीक छांड़ि तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत!
उस सड़क तक पहुँचने के लिए अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है… सुंदर रचना , आभार .
Diosa,
kuchh aisa laga, jaise kahin kuchh, tutta hua, bikharne ke pahle samhalne ki koshish kar raha hai, kai bar jo shbd samne hote hain unka arth unse jayada chhupe hue bhavon main milta hai, hope very soon we see its 2nd part.
सार्थक रचना!
सार्थक रचना!
बहुत सुंदर, बेहतरीन।
बहुत अच्छी रचना ..एक शेर है ..जावेद साहब का
जिधर जाते है सब उधर जा ,हमें अच्छा नहींलगता
मुझे पामाल रास्तों का सफर ,अच्छा नहीं लगता
बहुत सुन्दर रचना…वाह!!
लोकतंत्र के चौथे खम्बे पर अपने अपने विचारों से अवगत कराएँ
औचित्यहीन होती मीडिया और दिशाहीन होती पत्रकारिता
khud ke dwra chuni hui raah par chalna sadaiv sukh deta hai bhale raah kathin ho…bahut saarthak rachna, badhai Shikha ji.
मैं भी चाहती हूँ चलना इसी सड़क पर
और चाहती हूँ पहुंचना उस क्षितिज तक
पर नहीं जाना चाहती उसी एक राह से
शामिल होकर उसी परंपरागत भीड़ में
bahut sundar….
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