अपनी कोठरी के छोटे से झरोखे से देखती हूँ

दूर, बहुत दूर तक जाते हुए उन रास्तों को.
पक्की कंक्रीट की बनी साफ़ सुथरी सड़कें
खुद ही फिसलती जातीं सी क्षितिज तक जैसे
और उन पर रेले से चलते जा रहे लोग
अनगिनत, सजीले, होनहार,महान लोग.
मैं भी चाहती हूँ चलना इसी सड़क पर
और चाहती हूँ पहुंचना उस क्षितिज तक
पर नहीं जाना चाहती उसी एक राह से
शामिल होकर उसी परंपरागत भीड़ में
जो चल रहे हैं न जाने कितनो का सर
अपने अहम् के पाँव तले कुचल कर
रौंद कर अस्तित्व अनेक मासूमो का
यूँ खुद को ऊँचा दिखाने की ख्वाइश में
मिटा देते हैं फिर कोई लंबी लकीर
अपनी छोटी लकीर को लंबा करने की खातिर
मुझे उस सड़क तक पहुँचने के लिए
अपनी अलग पगडण्डी की तलाश है.