आज भी जब हो जाते हैं
मन के विचार गड्डमड्ड
डिगने लगता है आत्मविश्वास
डगमगाने लगता है स्वाभिमान
नहीं सूझती कोई राह
उफनने लगता है गुबार
छूटने लगती है हर आस
तो दिल मचल कर कहता है
तुम कहाँ हो ?
यहाँ क्यों नहीं हो?
फिर एक किरण आती है नजर
भंवर में जैसे मिल जाती है डगर
भेद सन्नाटा एक आवाज आती है
मन के सारे संशय मिटा जाती है
कुछ फुसफुसाती है कान में
और उतर जाती है सांस में।
फिर मैं कहती हूँ
हॉं तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो !