सबसे पहले तो हिंदी साहित्य के सभी गुणीजनों और ब्लॉगजगत के सभी साहित्यकारों से हाथ जोड़ कर और कान पकड़ कर माफी .कृपया इस पोस्ट को निर्मल हास्य के रूप में लें . हमारे हिंदी साहित्य में बहुत ही खूबसूरत और सार्थक विधाएं हैं और इनमें बहुत से रचनाकारों ने अपनी सिद्धता भी दर्ज की है .परन्तु मेरे खुराफ़ाती या…
बदलते वक़्त के साथ सब कुछ बदलता जाता है .रहने का तरीका ,खाने का तरीका ,त्यौहार मनाने का तरीका, मृत्यु का तरीका और जन्म लेने का तरीका, तो भला जन्म दिन मनाने का तरीका क्यों नहीं बदलेगा .अब देखिये ना जब छोटे बच्चे हुआ करते थे .ना तो टी वी था ना ही टेलीफ़ोन की इतनी सुविधा ,तो जन्म दिन…
ठण्ड में ठंडा है इस बार का क्रिसमस .लन्दन में ३० साल में सबसे ज्यादा खराब मौसम है इस दिसंबर का. १ हफ्ते पहले भारी बर्फबारी के कारण कई स्कूलों को बंद कर दिया गया था और अब इस सप्ताह अंत में भी भारी बर्फबारी की आशंकाएं जताई जा रही हैं ,देश के पूर्वी हिस्सों में ८ इंच तक की बर्फबारी…
जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी ,या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम. जिन्दगी को बहुत सी उपमाएं दी जाती हैं मसलन – जिन्दगी एक जुआ है , जिन्दगी एक सफ़र है , जिन्दगी भूलभुलैया है आदि आदि .पर पिछले दिनों एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप में नजर आई…
जैसा कि आपने जाना कि अब जीविकोपार्जन के लिए हमने एक छोटी सी कंपनी में ऑफिस एडमिनिस्ट्रेटर /इन्टरप्रेटर की नौकरी कर ली थी .क्योंकि अब क्लासेज़ में जाना उतना जरुरी नहीं रह गया था.अब बारी थी स्वध्ययन की , अब तक जो भी पढ़ाया गया है उन सब को समझने की , समीक्षा करने की, पढाई हुई जानकारी का उपयोग करने…
अभी एक समाचार पत्र में एक पत्र छपा था .आप भी पढ़िए. नवम्बर २०१०(लन्दन ) ये एक खुला पत्र है उस आदमी के नाम जिसने बुधवार १७ नवम्बर को मेरी कार चुरा ली. मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि शायद अगली बार तुम या कोई और ऐसा करने से पहले २ बार सोचे.पिछले बुधवार काम से वापस आते हुए मैंने…
वैसे तो हमारे देश में घोटालों की कोई एक परिभाषा नहीं ,कोई सीमा नहीं है. हमेशा नए नए और अनोखे से नाम कानो में पड़ जाते हैं. परन्तु पिछले दिनों कुछ इसतरह के मामले सुनने में आये कि लोकतंत्र से ही विरक्ति सी होने लगी है .लोकतंत्र के सबसे मजबूत खम्भे पर बैठे लोग हों या हाथ में कलम की…
इसके बाद …हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..और मॉस्को अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा था .वहां के मौसम , व्यवस्था ,सामाजिक परिवेश सबको घोट कर पी गए थे .अब हमारे बाकी के मित्र छुट्टियों में दौड़े छूटे भारत नहीं भागा करते थे , वहीं अपनी छुट्टियाँ बिताया करते थे या मोस्को का प्रसिद्द व्…
पहले जब वो होती थी एक खुमारी सी छा जाती थी पुतलियाँ आँखों की स्वत ही चमक सी जाती थीं आरक्त हो जाते थे कपोल और सिहर सी जाती थी साँसें गुलाब ,बेला चमेली यूँ ही उग आते थे चारों तरफ. पर अब वह होती है तो कुछ भी नहीं होता ना राग बजते हैं ना फूल खिलते हैं ना हवा…
अब तक के २ साल आपने यहाँ पढ़े. तीसरे साल में पहुँचते पहुँचते मेरे लेख अमरउजाला, आज, और दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में छपने लगे थे जिन्हें मैं डाक से भारत भेजा करती थी ,यूँ तो स्कूल के दिनों से ही मेरी अधकचरी कवितायेँ स्थानीय पत्रिकाओं में जगह पा जाती थीं पर स्थापित पत्रों में फोटो और परिचय के साथ…