*सिर्फ एक पंक्ति फेसबुक की दिवार पर – “मैंने अपनी महिला मित्र को छोड़ दिया. अब मैं आजाद हूँ.” और नतीजा… उस लडकी ने शर्मिंदगी और दुःख में आत्महत्या कर ली.
*एक बच्ची ने फेस बुक पर एक इवेंट डाल दिया .कल उसका जन्म दिन है सभी को आमंत्रण .दूसरे दिन हजारों की संख्या में उसके घर आगे उपहार लिए लोग खड़े थे. माता पिता ने किसी तरह बच्ची को घर से बाहर भेज कर उस भीड़ से छुटकारा पाया.
यहीं नहीं इस जैसे हजारों उदाहरण आजकल रोज देखने में आते हैं.सिर्फ कहीं लिखीं चंद पंक्तियाँ जिन्दगी लेने और देने का सबब बन जाती हैं.और इन सबका जरिया है सोशल नेटवर्किंग साइटें. कौन कहाँ है, किसके साथ है , क्या कर रहा है , क्या खा रहा है , कौन सी पौशाक खरीदी.किसको पाया , किसको छोड़ा सब कुछ सबको पता है.कहीं कोई निजता की जरुरत नहीं.ये सोशल नेटवर्क नाम के जाल ने लोगों को इस कदर घेर लिया है कि उसके बाहर उन्हें दुनिया दिखाई ही नही देती. यश ,अपयश, सफलता ,असफलता,प्रेम, विछोह सब यहीं से शुरू होकर यहीं पर समाप्त हो जाता है.उनके लिए जो यहाँ नहीं है वह इस दुनिया में ही नहीं है.इन्हीं साइट्स पर जोडियाँ बनती हैं, उनकी खुशियाँ भी यहीं मनाई जाती हैं, और सभी घर वाले हों या मित्र यहीं इन्हीं खुशियों में शामिल होते हैं और फिर यहीं रिश्ते टूट भी जाते हैं और यह भी घरवालों को इन्हीं साइट्स पर आये स्टेटस से ही पता चलता है.
गए वक़्त की बातें लगती हैं.जब कहा करते थे कि बेटी के मन के भाव माँ उसकी एक झलक से पहचान लेती है. अब तो उन भावों की थाह पाने के लिए उसे बेटी के फेस बुक या ट्विटर जैसे किसी अकाउंट पर जाना पड़ता है.यूँ बुरा नहीं .एक झलक की जगह एक क्लिक....
सोशल नेट्वोर्किंग – आज के इलेक्ट्रोनिक मीडिया के सन्दर्भ में एक ऐसा माध्यम जो एक विस्फोट की तरह सामने आया है.और अपने साथ हर एक को बहा ले गया है..आज की नेट उपयोगिता आज से १० वर्ष पूर्व हो रही नेट की उपयोगिता से एकदम भिन्न है.यह एक प्रति व्यक्ति संवाद की ऐसी प्रजनन भूमि तैयार करता है जो इससे पहले कभी संभव नही थी.सोशल नेटवर्किंग हर एक व्यक्ति के लिए है और हर एक के बारे में है. यह मानवीय सामाजिक विकास की वृद्धि में एक क्रांतिकारी कदम है.मानव इतना सामाजिक कभी ना रहा होगा जितना कि अब हो गया है.
फेस बुक, माय स्पेस , ट्विटर,ब्लॉग जैसी नेट्वर्किंग साइट्स ने लोगों को जिस तरह अपनी गिरफ्त में लिया है वह मात्र निजी विचारों के आदान प्रदान तक सिमित नहीं है बल्कि वह किसी भी तरह के अभियान को सफल करने में या उसे पलट कर रख देने में भी सक्षम है. जहाँ एक और अन्ना के अभियान से जुड़ कर ये साइट्स उसे अखिल भारतीय अभियान बना देती हैं. एक ऐसा अभियान जिससे पहली बार इतनी बड़ी संख्या में युवाओं को जुड़ते देखा गया. एक ऐसा अभियान जिसने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया.कोई राम लीला मैदान में अन्ना के साथ हो या ना हो पर इन साइटों पर हर कोई अन्ना की टोपी लगाये दिख रहा था और भले ही हाथ में समोसा पकडे लिखा हो पर स्टेटस पर लिखा था अन्ना के साथ हमारा भी व्रत है.
वहीँ दूसरी और यही सोशल नेटवर्क साइट्स लन्दन में दंगों का कारण भी बनती हैं.ब्लेक बेरी, फेक बुक और ट्विटर में टैग और सीधे सन्देश के माध्यम से पल पल की खबर यहाँ से वहां पहुँचाने की सुविधा ने लन्दन को ३ दिन तक दंगों की भीषण आग में सुलगाये रखा एक ऐसा नजारा जो इससे पहले नजदीकी दिनों में कभी देखा नहीं गया और जिसका अंदाजा तक लन्दन पुलिस को नहीं था.
हालाँकि यह भी सच है कि इस तरह के दंगे या अभियान उस समय भी हुआ करते थे जब कि इन सोशल साइट्स का अस्तित्व नहीं था.लन्दन में हुए दंगे बेशक बढ़ती बेरोजगारी की वजह से हुए हों तब भी उसमें इजाफा करने का और इन्हें फ़ैलाने का कार्य इन सोशल नेटवर्क साइट्स के माध्यम से अवश्य किया गया. जिस तरह तुनेशिया या ईजिप्ट की क्रांति भले ही लम्बे समय से चली आ रही तानाशाही और भ्रष्ट व्यवस्था का परिणाम हों परन्तु उस आग को भड़काने में इन साइट्स पूरा पूरा सहयोग अवश्य कहा जायेगा.
वहीँ लन्दन के पुलिस के सहायक आयुक्त Lynne ओवेन्स के गृह मंत्रालय को दिए गए वक्तव्य के मुताबिक इन्हीं साइट्स की बदोलत पुलिस ने ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट और ओलम्पिक साइट्स पर दंगे होने से रोका. और दंगों के बाद इन्हीं साइट्स की बदोलत ग्रुप बनाकर लोगों ने शहर की सफाई में भी अनुकरणीय योगदान दिया.
इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने युवाओं को तो इस कदर प्रभावित किया है कि आज इनसे अलग उन्हें किसी का अस्तित्व ही नजर नहीं आता. ये साइट्स जहाँ एक और इन युवाओं को इनके व्यक्तित्व, सामाजिक विकास और आत्म विश्लेषण और आत्म कौशल दिखाने के सहज और सरल मौके देती हैं. उतनी ही उनकी हताशा, निराशा और असफलता का कारण भी बनती देखी जाती हैं.जहाँ एक और अकेलेपन से जूझते किसी युवा के सामने दोस्ती और रिश्तों के ढेरों विकल्प ये साइट खोलती हैं तो इन्हीं की वजह से मौत जैसे चरम अंजाम तक भी पहुंचा सकती है..यानि जीना यहाँ ,मरना यहाँ और इसके सिवा नहीं कोई जहाँ..
*अभी लन्दन में कुछ उदाहरण देखने में आये कि एक स्कूल का एक अध्यापक नकली आई डी बना कर इन्हीं सोशल साइट्स पर अश्लील आपत्तिजनक तस्वीरें भेजा करता था इसी क्रम में एक तस्वीर भूलवश अपने एक छात्र को भी भेज बैठा और पकड़ा गया तथा स्कूल से उसे निष्काषित कर दिया गया और मासूम बच्चों का भविष्य बच गया.
*वहीँ कुछ स्कूली छात्रों को कोई एक अध्यापिका पसंद नहीं थी उन्होंने उसे नापसंद करने वालों का एक ग्रुप ऐसी ही एक साईट पर बना लिया और वहां उसी को लेकर छात्रों के विचारों का लेन देन होता है .कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले किसी दिन ऐसे ही तथ्यों के आधार पर उस बेचारी अध्यापिका का स्कूल निकाला हो जाये आखिर मकसद तो छात्रों की संतुष्टि और हित का ही है.यानि कि किसी का भविष्य बनाना / बिगाड़ना हो या सरकार गिरानी हो अब सब कुछ इन्हीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स की मेहरबानी पर टिका है.
पूरे ब्रह्माण्ड को एक क्लिक की आवाज पर सामने ला खड़ा कर देने वाली ये सोशल नेटवर्किंग साइट्स मानवीय सोच को भी एक क्लिक तक ही सीमित कर देने की भी क्षमता रखती हैं.जहाँ इनसे बाहर कोई जिन्दगी नजर नहीं आती. बहरहाल तकनीकी क्षेत्र में जब जब भी बदलाव आया है अपने साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू लेकर आया है. सोशल नेटवर्क नाम के इस समुन्द्र मंथन से भी विष और अमृत दोनों ही निकले हैं. अब समस्या यह है कि इस युग में शिव कहाँ से आये जो सम्पूर्ण विष को अपने कंठ में उतार ले और समाज के लिए बचे सिर्फ अमृत. ––
एक नया विश्व है फेसबुक में, संवाद वहाँ पर भी उपस्थित है।
Namaskar ji..
Agar aapka facebook par account na no to aajkal log aapko pichhda hua maante hain..yah samay ka badlaav hai…eske saath chale to "raahbar" nahi to "pichhde"….ab nirnay aapka hai…vish peena hai amrut…
Sundar aalekh..
Deepak..
बचपन में एक प्रस्ताव पढ़ा करते थे "विज्ञापन अभिशाप या वरदान". हो सकता है कि आजकल स्कूलों में जो प्रस्ताव पढ़ाया जाता हो उसका शीर्षक "इंटरनेट अभिशाप या वरदान" होता हो.
एक दो-धारी तलवार की तरह काम कर रहा है ये जाल ..ज़रा सी चूक आपको या सामने वाले को आहत कर सकती है, इसकी शक्ति,नशा हर वे के लोगों के सर चढ़ कर बोल रहा है ,कोई अपनी खुशिया बाँट रहा है कोई गम ..पर ज्यादातर अपना अकेलापन बाँट रहे है …
अब समस्या यह है कि इस युग में शिव कहाँ से आये जो सम्पूर्ण विष को अपने कंठ में उतार ले और समाज के लिए बचे सिर्फ अमृत. —
@जब जब भी बदलाव आया है अपने साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू लेकर आया है. सोशल नेटवर्क नाम के इस समुन्द्र मंथन से भी विष और अमृत दोनों ही निकले हैं।
बस यही पहचान करनी है कि विष कौन सा है और अृत्। तभी ये सोशल नेटवर्किंग साईटें सकारात्मक परिणाम दे सकती हैं। सुंदर आलेख के लिए साधुवाद।
सिक्के को हाथ में लेने पर हैड और टेल दोनों पहलू साथ आयेंगे ही
प्रणाम
बहरहाल तकनीकी क्षेत्र में जब जब भी बदलाव आया है अपने साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू लेकर आया है. सोशल नेटवर्क नाम के इस समुन्द्र मंथन से भी विष और अमृत दोनों ही निकले हैं. आपकी और सोनल रस्तोगी जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ जो कुछ मुझे कहना था वो तो स्वयं आप लोगों ने ही कह दिया :-)विचारणीय आलेख
यह मानवीय सामाजिक विकास की वृद्धि में एक क्रांतिकारी कदम है.मानव इतना सामाजिक कभी ना रहा होगा जितना कि अब हो गया है….
….
तकनीकी क्षेत्र में जब जब भी बदलाव आया है अपने साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू लेकर आया है. सोशल नेटवर्क नाम के इस समुन्द्र मंथन से भी विष और अमृत दोनों ही निकले हैं. अब समस्या यह है कि इस युग में शिव कहाँ से आये जो सम्पूर्ण विष को अपने कंठ में उतार ले और समाज के लिए बचे सिर्फ अमृत. —
..
शिखा जी बही आपका जाना पहचाना प्रवाह ..वही आपकी अनूठी चिंतन शैली !
मज़ा आ गया..और मुझे तो वह शिव आप में भी दिखाई दे रहा है …शक्ति के रूप में !!
आपका लेखन सुन्दर,सार्थक और विचारणीय है.
हर आविष्कार से लाभ हानि दोनों ही हो सकतें है.
चाहे कार हो या हवाईजहाज , आपको सुन्दर
यात्रा भी करा सकतें हैं,पर दुरपयोग /दुर्घटना से
जान भी ले सकते हैं.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
मेरी नई पोस्ट पर आपका हार्दिक स्वागत है.
बिलकुल सटीक बात कहता आलेख।
सादर
बेहद सटीक आलेख .. आभार !
" सोशल नेट्वोर्किंग – आज के इलेक्ट्रोनिक मीडिया के सन्दर्भ में एक ऐसा माध्यम जो एक विस्फोट की तरह सामने आया है.और अपने साथ हर एक को बहा ले गया है."
बिलकुल ले गया है ……! एक विचारणीय और सम्यक लेख ..!
प्रभावशाली आलेख…
Is liye facebook ko serious nahi lena chahiyel….
जस्ट डायल डॉट कॉम धोखाधड़ी, लूट खसोट Just Dial.com Scam/ Fraud
शिखा जी बहुत ही बेहतरीन और खोजपरक आलेख बधाई और शुभकामनाएं |
शिखा जी बहुत ही खोजपरक और उत्कृष्ट आलेख |
ऐसा लगता है कि इन सोशल साइट्स का दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है । लोग बिना सोचे नेट पर कुछ भी डाल देते हैं ।
कल ही फेसबुक पर एक महिला की फोटो देखी जिस पर ढेरों लोगों ने कमेन्ट किया हुआ था । बहुत भद्दे कमेन्ट थे ज्यादातर ।
बाद में पता चला वह दिल्ली पुलिस की एक डी सी पी का फोटो था ।
बेहद सटीक और खोजपरक आलेख.शिखा जी बहुत बहुत बधाई और शुभकामना…
आलेख में
एक सवाल है …
उत्तर ,
शायद हम चाहते ही नहीं … !
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए
प्रासंगिक प्रस्तुति
अभिवादन स्वीकारें .
शिखा जी, एक ऐसा विषय जिसे मैं 'फ्रैजाइल' कह सकता हूँ और मानता हूँ कि इसपर 'हैंडल विद केयर' लिखा होना चाहिए, आपने उतने ही केयर के साथ हैंडल किया है…
ये सब थ्यौरी ऑफ प्रोबैबिलिटी की बातें हैं.. हवा में उछाला हुआ सिक्का, किस करवट गिरेगा बताना मुश्किल और जो जीत गया उसके लिए वो अच्छा और जो हार गया उसके लिए बुरा!! अजीब कश्मकश है और इतनी बारीकी से बुनी हुई कि कहाँ से अच्छाई शुरू होती है और बुराई खतम कहना मुश्किल हो जाता है!!!
सार्थक तथा सामयिक प्रस्तुति , आभार.
विषय पर बहुत सुगठित और व्यवस्थित आलेख -आपका पत्रकार आपसे यह उचित ही कराता रहता है -स्वागत योग्य …
खतरे हैं तो खरे लाभ भी हैं -और दोनों गुत्थम गुत्था चलते रहगें -आईये हम इन्हें सकारात्मक होकर स्वीकारें .प्रौद्योगिकी से बिलकुल विमुख होना भी ठीक नहीं है …हाँ सावधानी के उपायों और विवेक को ताक पर रख कर नहीं ….
शिखा जी,'स्पन्दन' में चर्चा के लिए बहुत ही संवेदनशील विषय चुना है आपने। कई बातें अलग-अलग तरह से परखी हैं और हम सभी की परख-पड़ताल के लिए इंगित भी की हैं। एक अजब-सा विरोधाभास है कि मनुष्य के क्रमिक विकास का इतिहास उन 'टूल्स'/यन्त्रों के विकास का भी इतिहास है जो उसे वर्तमान युग तक लाए हैं। अनगढ़ कंकड़-पत्थरों के बल पर अपने कर्म-कौशल को सँजोता-सहेजता मानव आज नैनो-यान्त्रिकी का अधिपति है; एक नई सभ्यता का हिस्सा है। इसे विडम्बना ही कहना चाहिए कि जिस नए युग में आज वह आ पहुंचा है उसमें बहुतांश-स्तरों पर असमंजस बने रहना तय है। हर परिवार में एक ओर जहाँ ऐसे दादा-दादी और माता-पिता हैं जिन्हें मोबाइल उपयोग करना भी नहीं आता वहीं ऐसे भाई-बहन भी जिनके लिए फ़ेस-बुक ट्वीटर का उपयोग सामान्य-सी बात। घबराहट तो होती है, जब भी कोई अनर्थ घटते देखते हैं इस 'इंस्टेंट सोशल नेटवर्किंग' के दुष्प्रभाव की शक्ल में । कई मामलों में बेवजह का तूल भी दिया जाता है इसकी प्रभाव-शक्ति को लेकर। तहरीर स्क्वायर पर जो भी कुछ हुआ क्या सचमुच उसका केन्द्र फ़ेसबुक जैसी सोशल साइटें थीं? अन्ना-आंदोलन के नाम पर तो एक भोंडी-नकल करने की कोशिश की गयी उस क्रान्ति की जिसके मूल कारण तक भारतीय युवाओं को ठीक-ठीक ज्ञात नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह कि मनुष्य आज अपने विकास के जो 'टूल्स' गढ़ चुका है उसे इनके संयत-उचित उपयोग की संस्कृति भी रचनी होगी, उस मानवीय समाजिकता को भी विकसित और प्रभावी बनाना होगा जहाँ उसके मानवीय मनोभाव प्रज्ञा-विवेक इसी के समानांतर संपुष्ट होते रहें। आपका लेख भी यही आग्रह कर रहा है। इसी कड़ी में आगे भी अवश्य लिखिएगा। इन विमर्शों से तत्काल इतना लाभ तो अवश्यंभावी है कि नई पीढ़ी के लिए विष को विष के रँग में पहचानना सरल हो जाएगा ! शुरू से अन्त तक विचारों का अद्भुत तारतम्य बनाए रखा है,शैली के इस वैशिष्ट्य के लिए अभिनन्दन !!
लाभ-हानि बताता आलेख
सुन्दर आलेख. तकनीक के संयत प्रयोग का पक्षधर हूँ.
काजल कुमार जी से सहमत पर सिक्के के दोनों पहलु देखने होंगे …………
kahte hain ki ati har chij ki buri hoti hai.yahi baat yahan bhi lagu hoti hai .hum kisibhi chij ke gulam ban jate hain .bas yahi bura hai .
theek se prayog kiya jaye to sab theek hai.
aapne sahi mudda uthaya hai sochna to sabhi ko hoga
rachana
Sach kaha….gharwalen ikatthe ho,aapas me batiyane ke badale face book pe batiyate hain!
तकनीक से तारतम्य ऐसे हो की समाज में केवल अमृत बेल फैले .लेकिन ऐसा संभव तो नहीं है . जरुरत है हमे इसके उजले पक्ष को
अपनाने की . वैसे हम तो अभी भी इस अमर बेल (बला) से दूर ही है . सुघर और सुगढ़ आलेख .
इसके सीवा जाना कहां
बढ़िया जानकारी युक्त पोस्ट …
आभार !
बेहतरीन पोस्ट….
कारात्मक और सकारात्मक दोनों बातें है पर अगर हम उजले पक्ष से ही लाभन्वित होना चाहते तो इनका प्रयोग सोच समझ कर करना होगा …. सुंदर लेख
अब समस्या यह है कि इस युग में शिव कहाँ से आये जो सम्पूर्ण विष को अपने कंठ में उतार ले और समाज के लिए बचे सिर्फ अमृत. -…………चलो खोजने की कोशिश करते है शिव को शायद मिल जायें मगर तब तक यूँ ना हो इन से भी बढकर कोई नयी साइट आ जाये।
सोशल नेटवर्किंग साईटों के कुछ नुकसान हैं तो कुछ फायदे भी।
सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसका किस तरह उपयोग कर रहे हैं…..
बहरहाल, अच्छी और विचारणीय पोस्ट।
" सोशल नेट्वोर्किंग – आज के इलेक्ट्रोनिक मीडिया के सन्दर्भ में एक ऐसा माध्यम जो एक विस्फोट की तरह सामने आया है.और अपने साथ हर एक को बहा ले गया है."
सोशल नेटवर्किंग के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पहलुओं पर उदाहरण के साथ विवेचन किया है ..इस मंथन में विष की पहचान कर लें तो अमृत ही बचेगा .. लेकिन इंसान का स्वभाव है बुराई की ओर जल्दी अग्रसर होता है ..
बहुत कुछ सोचने पर विवश करता अच्छा लेख ..
बहुत अच्छा लेख है अपने सम सामयिक विषय निकला है इस नए दौर में स्वयं को ही शिव और स्वयं को विष्णु बनाना पड़ेगा भारतीय संस्कृति में ही सब कुछ निहित है.
but sometimes it is a place where you can vent out your feelings which are otherwise difficult to share with your closed ones…
"status" should be replaced by "state of mind" by facebook admins.
बहुत अच्छा लेख, सच कहा है फसबूक जैसी सोसल नेटवर्किंग साईट लोगो के निजी जीवन में घुसती जा रही है ! न जाने अभी और क्या क्या होना बाकि है ये तो शायद सिर्फ शुरुआत है !
मेरी नई कविता "अनदेखे ख्वाब"
अपने चर्चा मंच पर, कुछ लिंकों की धूम।
अपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
kisi ne kaha hai
Nigahen kahar ko gulshan mein najar aata hai veerana
or nigaheh mehar veerane mein bhi gulshan dhooNdh Leti hai
bahut shashakt prastuti hai aapki
सटीक ||
कुछ वर्ष पूर्व तक लोग अपने में ही सिमटे हुए थे लेकिन नेट की इन्हीं साइटों के कारण लोग अपनी बात सार्वजनिक करने लगे हैं। अच्छा ही है, पर्दे हट रहे हैं।
फेसबुक का चस्का तो मुझे भी लगा लेकिन फेसबुक से बड़ा चस्का लगा था ऑरकुट का…बहुत मुश्किल से उस एडिक्सन से छुटकारा पाया था मैंने…नहीं तो होता ये था की कहीं भी जाऊं, तो सीधा घर आकार कंप्यूटर खोल कर ऑरकुट लोगिन कर लेता था…रात रात भर ऑरकुट पे कुछ न कुछ करता रहता था..
बहुत ही सही और अच्छी पोस्ट है ये!
मैं तो सोचा यह ग़ज़ल होगी।
पर यहां तो एक ऐसे विषय पर बात हो रही है जिसके बारे में क्या कहूं?
हरेक विचार के दो पहलू होते हैं-सकारात्मक और नकारात्मक. यह हम पर निर्भर है कि इसे हम क्या रूप दें. जहां नेट वर्किंग साइट्स पर सम्बन्ध टूटते हैं, वहीं यहाँ सम्बन्ध बनते भी हैं. अकेले पन का एक बहुत अच्छा साथी भी है. बहुत सारगर्भित आलेख…
तकनीकी माध्यम का विस्तार जितना ज्यादा हो रहा है ज़िन्दगी उतनी हिन् सरल और असुरक्षित भी हो रही है. जितने भी सोशल नेट्वर्किंग साइट्स हैं सभी का एक पहलू बहुत अच्छा है तो दुसरा पहलू जिसे आपने लेख में वर्णित किया है. अपनी निजता को हम स्वयं हिन् खो रहे हैं. हमें अपने विवेक से काम लेना चाहिए की हमें कितना तक लोगों को जानने देना है या हम शामिल होते हैं. बच्चों की तो दुनिया हिन् नेटवर्क हो गयी है और ये सोशल साइट्स २४ घंटे मौजूद होने से समस्या बढती जा रही. कोई निदान नहीं सूझता. सिर्फ इतना की हम खुद पर नियंत्रण रखें. अच्छे लेख के लिए बधाई.
आपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर – पधारें – और डालें एक नज़र – ब्लॉग जगत से कोहरा हटा और दिखा – ब्लॉग बुलेटिन
बहुत सही विश्लेषण. शानदार पोस्ट के लिये बधाई शिखा. और काजल जी, अब हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में ही ये निबन्ध-"इंटर्नेट- अभिशाप या वरदान" शामिल हो चुका है. 🙂
आधुनिक तकनीक वरदान भी उतनी ही है जितनी कि अभिशाप. बहुत संभल कर चलने की आवश्यकता है.
सोशियल नेट वर्किंग की एक विचित्र बात यह है कि हम सार्वजनिक होना चाहते हैं अपनी निजता को खोये बिना. निजता सार्वजनिक हो गयी है और आपसी सम्बन्ध संकुचित. कुछ तो खामियाजा भुगतना ही पडेगा.
अंतरजाल ने लोगों को सम्बन्ध बनाने-तोड़ने या बिगाड़ने का भी मंच उपलब्ध कराया है. नया-नया परिवेश है धीरे-धीरे लोग सीख जायेंगे………इश्क ना करियो ….डरियो …कि दिल टूट जाता है…..
आजकल हम भी अपना टूटा दिल लिए घूम रहे हैं …..बस, इतना ज़रूर है कि सारे टुकड़े समेट कर एक थैले में ठूंस लिए हैं…फुरसत में असेम्बल कर लेंगे.
ग्लोबल संस्कृति के साथ घटती दूरियां बुराई और अच्छाई दोनों का ही प्रचार प्रसार करती है , अब कौन किससे क्या सीखे , यही सोचना है ..
बढ़िया पोस्ट !
सार्थक प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । आभार.।
kajal ji shayad vigyan kahna chahte hain…vicharneey post hai …
सोशल नेटवर्किंग में से आज सोशल .. यानी की सामाजिक होना निकल गया है … बस अपनी पसंद अनुसार जो जी में आता है सब परोस रहे हैं …
पता नही कहाँ गया मेरा कमेंट …………आज के परिदृश्य को बखूबी उकेरा है ……सार्थक आलेख्।
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