बाबू मोशाय बात ऐसी है कि हमें लगता है, जितने भी त्यौहार वगैरह आज हैं सब इत्तेफाकन और परिस्थिति जन्य हैं।

तो हुआ कुछ यूं होगा कि एक परिवार में (पहले संयुक्त परिवार होते थे) किसी की किसी से ठन गई। महीना था यही फागुन का। नए नए टेसू के फूल आये थे। पहले लोग इन्हीं फूलों आदि के रंग से कपड़े वगैरह रंगते थे सो यही काम कोई कर रहा था। इतने में जिससे ठनी थी उसने कोई ताना मार दिया और रंग घोलने वाले ने उठाकर वह पानी उसपर डाल दिया । अब दूसरे को भी गुस्सा आया, उसने भी पानी भरा लौटे में और उसपर डाल दिया। अब परिवार के लोग दोनों के पक्ष में, दो टीम में आ खड़े हुए और रंगीन पानी की फेंका – फेंकी शुरू हो गई। ऐसा करते करते वे लोग घर के बाहर आँगन में आ गए। पड़ोसियों ने देखा तो वो भी आ मिले और जैसे फिल्मों में केक फाइट दिखाते हैं ना, वैसे ही रंगों की फाइट शुरू हो गई। जब तक थक कर सबको होश आया तब तक पूरा मोहल्ला रंग और पानी से सरोबार हो चुका था। अब सबको भूख लगी। तो इस मौसम में घर में पापड़, नमकीन आदि बनती थी, शिवरात्रि की बची ठंडाई थी, तो लोग अपने अपने घर से वही ले आये और मिल बांट कर खा- पी लिया। इन सब में लड़ाई वाले दो लोग भूल गए कि उनकी लड़ाई थी, अबोला था। सब हँस- हँस कर गले मिलकर, हँसी -खुशी अपने -अपने घर चले गए।
अब जब दूसरा साल आया तो इसी मौसम में किसी को याद आया कि पिछले साल क्या हुआ था। कैसे दो लोंगों की लड़ाई ऐसे रंग वाले खेल के बाद सुलझ गई थी। तो उसने भी ऐसी ही एक आस में यह खेल शुरू कर दिया। बस…फिर हर साल यह खेल उस मोहल्ले, फिर गांव और फिर पूरे देश में खेला जाने लगा। और सब फागुन माह की पूर्णिमा वाले दिन अपने -अपने गिले- शिकवे भूलकर, दुश्मन से भी गले मिलकर यह रंगों वाली होली मनाने लगे। जब यह परंपरा बन गई तो फिर लोग घरों में इसकी तैयारी करने लगे। पकवान बनाने लगे। कालांतर में इसके इर्द गिर्द कहानियाँ बुनी गईं और इसमें बहुत सी और बातें अपनी अपनी सहूलियत के आधार पर जोड़ ली गईं। बाजार बना और इस तरह इस रंग विरंगे, होली के त्यौहार की शुरुआत हुई।
अथ श्री शिखा होली आरम्भ कथा समाप्तम् ।
 बोलो होलिका मैया की जय!