नया साल फिर से दस्तक दे रहा है …और हम फिर, कुछ न कुछ प्रण कर रहे हैं अपने भविष्य के लिए ….कुछ नाप तोल रहे हैं ..क्या पाया ? क्या खोया ? ये नया साल जहाँ हम सबके लिए उम्मीदों की नई किरण लेकर आता है ,वहीँ हम सबको आत्मविश्लेषण का एक मौका भी देता है….ये बताता है की…
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देवनागरी लिपि है मेरी, संस्कृत के गर्भ से आई हूँ. प्राकृत, अपभ्रंश हो कर मैं, देववाणी कहलाई हूँ. शब्दों का सागर है मुझमें, झरने का सा प्रभाव है. है माधुर्य गीतों सा भी, अखंडता का भी रुआब है. ऋषियों ने अपनाया मुझको, शास्त्रों ने मुझे संवारा है. कविता ने फिर सराहा मुझको, गीतों ने पनपाया है. हूँ गौरव आर्यों का…