लरजती सी टहनी पर झूल रही है एक कली सिमटी,शरमाई सी थोड़ी चंचल भरमाई सी टिक जाती है हर एक की नज़र हाथ बढा देते हैं सब उसे पाने को पर वो नहीं खिलती इंतज़ार करती है बहार के आने का कि जब बहार आए तो कसमसा कर खिल उठेगी वह आती है बहार भी खिलती है वो कली भी…
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मैं नहीं चाहती लिखूं वो पल तैरते हैं जो आँखों के दरिया में थम गए हैं जो माथे पे पड़ी लकीरों के बीच लरजते हैं जो हर उठते रुकते कदम पर हाँ नहीं चाहती मैं उन्हें लिखना क्योंकि लिखने से पहले जीना होगा उन पलों को फिर से उखाड़ना होगा गड़े मुर्दों को कुरेदने होंगे कुछ पपड़ी जमे ज़ख्म और फिर उनकी दुर्गन्ध …
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विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ उस एलिट खेल की तरह हैजिसमें कुछ सुसज्जित लोग खेलते हैं अपने ही खेमे में बजाते हैं तालीएक दूसरे के लिए ही पीछे चलते हैं कुछ अर्दली थामे उनके खेल का सामान इस उम्मीद से शायद कि इन महानुभावों की बदौलत उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी एक – आध शॉट मारने का और वह कह सकेंगे हाँ वासी हैं वे भी उस तथाकथित पॉश दुनिया के जिसका — बाहरी दुनिया…