रौशन और खुली,
निरापद राहों से इतर
कई बार
अँधेरे मोड़ पर
अँधेरे मोड़ पर
मुड़ जाने को दिल करता है.
जहाँ ना हो मंजिल की तलाश ,
ना हो राह खो जाने का भय
ना चौंधियाएं रौशनी से आँखें.
ना हो जरुरत उन्हें मूंदने की
टटोलने के लिए खुद को,
पाने को अपना आपा.
जहाँ छोड़ सकूँ खुद को
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..
जहाँ ना हो मंजिल की तलाश ,
ना हो राह खो जाने का भय
ना चौंधियाएं रौशनी से आँखें.
ना हो जरुरत उन्हें मूंदने की
टटोलने के लिए खुद को,
पाने को अपना आपा.
जहाँ छोड़ सकूँ खुद को
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..
बहुत सुन्दर कविता है…
kavitake bhav anant yatra ki aur ishara kar rahe hain! ek behad subndar prastuti!
बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,बेहतरीन रचना,,,,,
MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि …: विचार,,,,
हाँ मन तो करता है, कभी सिर्फ चलते जाएँ… कहाँ ये पता न हो.. पर फिर भी चलते जाएँ… ये भी सोच आती है, थके भी नहीं बिना थके आगे बढ़ते जाएँ..
बहुत आगे……….:)
बेहतरीन!!
वाकई यही सच है कई बार आपने आपको पाने के लिए किसी ऐसी ही रहा की तलाश होती है मन को जहां न उजाले की जरूरत होती न अँधेरों का डर न ही किसी मंज़िल को पाने की चाह, बस चाहिए होता है
बहते पानी सा,
मन्दिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..कोई मोड़ 🙂 सुंदर भाव अभिव्यक्ति।
पर जीवन में ये सब भी तो आसानी से नहीं मिलता … अँधेरा भी पल दो पल आ के चला जाता है … पर ये सच है की सब कुछ भूल के बस अपने अंतस में खो जाने का मन करता है …
कभी कभी तो कहीं अलग जाकर सबसे दूर रहने और जीने का मन करता है. बड़े सुंदर शब्दों में बयाँ कर दिया है .
मन्दिम= मद्धिम !
और लेट जाऊं ,
रख कर सिर,
गोद में ,
अपनी ही रूह की |
waah
गुलाबी बादलों की एक आकाशगंगा है
कुछ मद्धिम सी चुभन है
सिमटते हुए उजालों के पार
डूबता हुआ पानी है …
अपने मन की….
बस सी इतनी सी कहानी है…..
वाकई …कुछ अच्छा पढ़ने के बाद जो सुकून और आत्मसंतोष मिलता है…. उसे बयाँ नहीं किया जा सकता… लाजवाब पोस्ट…
शिखाजी आपको हमारी बधाई….
वाह…
बहुत खूब!
अच्छी रचना है!
bahut hi badhiya rachna….
उड़ने दो उड़ने दो
आज मुझे भी इस खुले आसमां में
उड़ने दो …
करने दो करने दो ..
आज मुझे भी मेरे मन का
करने दो ..
ना हो बंदिशों का घेरा और
ना हो कोई गुलामी की जंजीरे……..अनु
यह एक निर्विकार मन की सुन्दर कल्पना है शिखा जी!…वास्तविकता के ठोस धरातल पर सिवाय कंकड-पत्थर के कुछ नहीं मिलता…और यहीं पर हमें रास्ता खुद-ब-खुद बना कर चलना पड़ता है!…मन को तृप्त करने वाली बहुत सुन्दर रचना!
अपने आप में खो जाना.. सिर्फ अपने लिए, सिर्फ अपने साथ..
रौशन और खुली,
निरापद राहों से इतर
कई बार
अँधेरे मोड़ पर
मुड़ जाने को दिल करता है.
सचमुच ऐसा ही कई बार होता है . बेबाक लेकिन दिल की बात खुबसूरत …….
बढिया।
वाह ,,, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ,
बेहद उम्दा भाव …
कई बार ऐसा होता है कि मन अपनी सीमारेखा को तोड़ने लगता है और अनजानी आस के पीछे और अनचाही प्यास के पीछे दौड़ने लगता है।
जंगल में , पहाड़ों में , सुनसान वादियों में जाकर कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होता है जैसे ये मन , मन की सीमा रेखा से बाहर निकल आया हो .
बहुत सुन्दर रचना .
ऐसा मोड हमें तो नज़र ही नहीं आया कभी….वरना कब के मुड गए होते…..
अनु
अब ऐसी फ्रीडम कहाँ मिलेगी -मन ललच ललच जाए 🙂
दिल चाहता है फुर्सत के वही चार दिन …
ऐसे ही चलते रहिये…अविराम…अविकल….सुन्दर.
किसी अजनबी से मोड़ पर खुद में अपने आप को खोजना, निर्झर की मस्ती और और नदियों की कलकल , जाने किस स्वप्न लोक में ले जाती है ये कविता . स्वप्नदर्शी है नाम तिहारों . और सपनो के तिलिस्म का खजाना भी है आपके पास.
यूं तो
तम ही सच है
हर ओर
घनघोर अंधेरा
रोशनी तो देन है
सूरज की
भ्रम में सोचते हैं कि
हो गया है सवेरा ,
गर एक कदम भी
चल सकें ऐसी राह पर
हम खुद को खुद से
मिला पाएँ
भावनाओं के दरिया को फिर
यूं ही
बहाते चले जाएँ …
बहुत खूबसूरत रचना …
kalpna ka sunder aakash…..
पर ऐसी सड़क मिलेगी कहाँ… जिस पर पर ऐसे ही चलते रहने का मन करे… ,सुंदर कविता… हमेशा की तरह…
आपकी पोस्ट कल 14/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा – 902 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
किसी राग की रागिनी सी ….
कुछ शून्य तक ले जाती हुई ….
बहुत सुंदर रचना ..
बेहतरीन रचना,,,,,
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 14-06-2012 को यहाँ भी है
…. आज की नयी पुरानी हलचल में …. ये धुआँ सा कहाँ से उठता है .
kavita achhi lagi. antar man mei spandn shaayad nahi. kuchha easha likho ki antar man me spandn ho.
वाकई …
ऐसा दिल कई बार करता है …
जहाँ कोई मनचाही ज़िन्दगी हो …
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत…
पढ़ा था कही कि लोंग कामयाब होने के लिए क्या क्या जतन लगाते हैं , मगर जब कामयाब हो जाते हैं तो छिपने के लिए काले चश्मे लगा लेते हैं , मन की शांति से बढ़कर कोई ख़ुशी , सफलता , आराम नहीं है !
बहुत ही सुन्दर हृदयस्पर्शी रचना..
एकदम शांत ,सुन्दर …
जहाँ छोड़ सकूँ खुद को
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..
वाह .. बेहतरीन
बेहतरीन रचना
कई बार
अँधेरे मोड़ पर
मुड़ जाने को दिल करता है.
…
जहाँ छोड़ सकूँ खुद को
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..
जब कोई अपनी प्रिय लेखिका या लेखक को ना पढ़ पाये तो उससे बड़ा और क्या दुर्भाग्य हो सकता है
आजकल मेरे साथ यही हो रहा है
बहुत सुन्दर..मन बहुत चाहता है सब कुछ छोड़ एक नया रास्ता थामना, लेकिन कहाँ संभव हो पाता है यह सब जीवन में …
सत्य को प्रकाशित करती सुन्दर रचना…
जो चाहो मिलता नहीं, अंधेरा-उजियार।
हाथों सबकी रास ले, कौन धरा के पार॥
सादर
बहुत ही बढ़िया
सादर
इसे समय में उतराना कहते हैं, निढाल होकर, सुन्दर कविता।
बहुत खूब…. आपके इस पोस्ट की चर्चा आज 14-6-2012 ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित है …अरे आप लिखते क्यूँ नहीं… लिखते रहें ….धन्यवाद…. अपनी राय अवश्य दें…
सुंदर प्रस्तुति
बस इतना ही कहूँगा…. अद्भुत
अँधेरे मोड़ पर
मुड़ जाने को दिल करता है.
sahi kabhi kabhi aesa hi lagta .
sunder panktiyan
badhai
rachana
मन ही तो है – कहाँ तक-सोचता समझता रहे !
जाने कितने मनों की बात!
वैसे आपने सही कहा..ऐसा अक्सर होता है..
अच्छी लगी कविता !!!
क्या बात है! वाह! बहुत-बहुत बधाई
यह भी देखें प्लीज शायद पसन्द आए
छुपा खंजर नही देखा
मन करता है पर चलने पर एहसास होता है कि अंधेरे मोड़ पर निश्चिंत, हल्का और शांत नहीं रह पाते हम।
होता है अक्सर ऐसा भी…… बहुत सुंदर पंक्तियाँ
really beautiful…….
सच में कई बार ऐसा ही होता है …
true & beautiful
Aankhon Ke Aansoo Ab Pani BanKe Behne Laga Mano Barsaat Ho Rahi Hai. Thank You For Sharing.
Pyar Ki Kahani
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