काव्य

रुकते थमते से ये कदम अनकही कहानी कहते हैं यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं ख्यालों की रवानी कहते हैं रुकते थमते….. सीने में थी जो चाह दबी होटों पे थी जो प्यास छुपी स्नेह तरसती पलकों की दिलकश कहानी कहते हैं रुकते थमते…. धड़कन स्वतः जो तेज हुई अधखिले लव जो मुस्काये माथे पर इठलाती लट की नटखट…

लो फिर आ गई दिवाली… हम फिर करेंगे घर साफ़ मगर मन तो मेले ही रह जायेंगे . दिल पर चडी रहेगी स्वार्थ की परत पर दीवारों पे रंग नए पुतवायेंगे . फिर सजेंगे बाज़ार मगर जेबें खाली ही रह जाएँगी . जगमगायेंगी रौशनी की लडियां पर इंसानियत अँधेरा ही पायेगी . आस्था से क्या लेना-देना हमें पर लक्ष्मी पूजन…

देवनागरी लिपि है मेरी, संस्कृत के गर्भ से आई हूँ.  प्राकृत, अपभ्रंश हो कर मैं,  देववाणी कहलाई हूँ. शब्दों का सागर है मुझमें,  झरने का सा प्रभाव है. है माधुर्य गीतों सा भी, अखंडता का भी रुआब है.  ऋषियों ने अपनाया मुझको,  शास्त्रों ने मुझे संवारा है.  कविता ने फिर सराहा मुझको,  गीतों ने पनपाया है.  हूँ गौरव आर्यों का…

अपनी अभिलाषाओं का तिनका तिनका जोड़मैने एक टोकरा बनाया था,बरसों भरती रही थी उसेअपने श्रम के फूलों से,इस उम्मीद पर किजब भर जायेगा टोकरा तो,पूरी हुई आकाँक्षाओं को चुन केभर लुंगी अपना मन।तभी कुछ हुई  कुलबुलाहट मन मेंधड़कन यूँ बोलती सी लगीदेखा है नजरें उठा कर कभी?उस नन्ही सी जान को बसहै एक रोटी की अभिलाषा उस नव बाला को बसहै रेशमी आँचल…

दूर क्षितिज पे सूरज ज्यूँ ही डूबने लगा गहन निशब्द निशा के एहसासों ने उसके जीवन के प्रकाश को ढांप दिया हौले हौले अस्त होती किरणों की तरह उसके मन की रौशनी भी डूब रही थी इधर खाट पर माँ अधमरी पड़ी थी और छोटी बहन के फटे फ्रॉक पर जंगली चीलों की नज़र गड़ी थी। उसी क्षण उसके अन्दर…

हो वेदकलीन तू मनस्वी या राज्य स्वामिनी तू स्त्री रही सदा ही पूजनीय  तू बन करुणा त्याग की देवी  सीता भी तू, अहिल्ल्या भी तू रंभा भी तू, जगदंबा भी तू है अगर गार्गी, मैत्रैई तो, रानी झाँसी, संयोगिता  भी तू फिर क्यों तू आज़ भटक रही? पुरुष समकक्ष  होने को लड़ रही? खो कर अस्तित्व ही अपना अधिकार ये…

आत्मा से जहन तक का, रास्ता नसाज है या भावनाओं का ही कुछ, पड़ गया आकाल है दिल के सृजनात्मक भाग में आज़कल हड़ताल है। हाथ उठते हैं मगर शब्द रचते ही नहीं होंट फड़कते हैं मगर बोल फूटते ही नहीं पन्नों से अक्षर का रिश्ता लग रहा दुश्वार है दिल के सृजनात्मक भाग में चल रही हड़ताल है  चल रहीं…

एक दिन पड़ोस की नानी और अपनी मुन्नी में ठन गई। अपनी अपनी बात पर दोनों ही अड्ड गईं। नानी बोली क्या जमाना आ गया है…  घड़ी घड़ी डिस्को जाते हैं,  बेकार हाथ पैर हिलाते हैं ये नहीं मंदिर चले जाएँ, एक बार मथ्था ही टेक आयें॥ मुन्नी चिहुंकी तो आपके मंदिर वाले डिस्को नहीं जाते थे? ये बात और…

लरजते होंटों की दुआओं का फन देखेंगे, दिल से निकली हुई आहों का असर देखेंगे, चाहे तू जितना दबा ले मन का तूफान मगर आज हम अपनी बफाओं का असर देखेंगे। गर लगी है आग इधर गहरी तो यकीनन सुलग तो रही होगी आंच वहां भी थोड़ी, उस चिंगारी को दे अपनी रूह की तपिश, हम हवाओं की रवानी का…

ताल तलैये सूख चले थे,  कली कली कुम्भ्लाई थी ।  धरती माँ के सीने में भी  एक दरार सी छाई थी।   बेबस किसान ताक़ रहा था,  चातक भांति निगाहों से,  घट का पट खोल जल बूँद  कब धरा पर आएगी….   कब गीली मिटटी की खुशबू  बिखरेगी शीत हवाओं में,  कब बरसेगा झूम के सावन  ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी।   तभी श्याम…