बहुत याद आता है गुजरा ज़माना सान कर दाल भात हाथों से खाना। वो लुढ़कती दाल को थाली में टिकाना, गरम गरम दाल में उंगलियां डुबाना, फिर “उईमाँ” चिल्लाकर, रोनी सूरत बनाकर, जली उँगलियों को मुँह तक ले जाना। खूब सारा भात परोस कर लाना, उसमें से आधा भी न खा पाना, मम्मी की नजरों से फिर खुद को बचाकर,…
पिता माँ से नहीं होतेवह नहीं लगाते चिहुंक कर गलेनहीं उड़ेलते लाड़नहीं छलकाते आँखें पल पलरोके रखते हैं मन का गुबारऔर बनते हैं आरोपीदेने के सिर्फ लेक्चर.पर तत्पर सदा हटाने को हर कांटा बच्चों के पथ से खड़े वट वृक्ष की तरहदेते छाया कड़ी घूप मेंऔर रहते मौननहीं मांगते क़र्ज़ भीकभी अपने पितृत्व का।…
वो खाली होती है हमेशा। जब भी सवाल हो,क्या कर रही हो ? जबाब आता है कुछ भी तो नहीं हाँ कुछ भी तो नहीं करती वो बस तड़के उठती है दूध लाने को फिर बनाती है चाय जब सुड़कते हैं बैठके बाकी सब तब वो बुहारती है घर का मंदिर फिर आ जाती है कमला बाई फिर वो कुछ नहीं…
सिंधु घाटी से मेसोपोटामिया तक मोहन जोदड़ो से हड़प्पा तक कहाँ कहाँ से न गुजरी औरत, एक कब्र से दूसरी गुफा तक. अपनी सहूलियत से करते उदघृत देख कंकालों को कर दिया परिभाषित। इस काल में देवी उस में भोग्या इसमें पूज्य तो उसमें त्याज्या बदलती रही रूप सभ्यता दर सभ्यता। जिसने जैसा चाहा उसे रच दिया अपने अपने…
तेरी नजरों में अपने ख्वाब समा मैं यूँ खुश हूँबर्फ के सीने में फ़ना हो ज्यूँ ओस चमकती है. अब बस तू है, तेरी नजर है, तेरा ही नजरिया मैं चांदनी हूँ जो चाँद की बाँहों में दमकती है. तेरी सांसों से जो आती है वह खुशबू है मेरी रात की रानी तो तिमिर के संग ही महकती है. बेशक फूलों से भरे हों बाग़…
यदि बंद करना है तो जाओ पहले घर का एसी बंद करो. हर मोड़ पर खुला मॉल बंद करो २४ घंटे जेनरेटर से चलता हॉल बंद करो. नुक्कड़ तक जाने लिए कार बंद करो बच्चों की पीठ पर लदा भार बंद करो. नर्सरी से ही ए बी सी रटाना बंद करो घर में चीखना चिल्लाना बंद करो. बच्चों से मजदूरी करवाना बंद करो कारखानों का प्रदुषण फैलाना…
चढ़ी चूल्हे पर फूली रोटी, रूप पे अपने इतराए पास रखी चपटी रोटी, यूँ मंद मंद मुस्काये हो ले फूल के कुप्पा बेशक, चाहे जितना ले इतरा पकड़ी तो आखिर तू भी, चिमटे से ही जाए. *** लड्डू हों या रिश्ते, जो कम रखो मिठास(शक्कर) तो फिर भी चल जायेंगे। पर जो की नियत (घी) की कमी, तो न बंध…
अब उन पीले पड़े पन्नो से उस गुलाब की खुशबू नहीं आतीजिसे किसी खास दो पन्नो के बीच दबा दिया करते थे जो छोड़ जाता थाअपनी छाप शब्दों परऔर खुद सूख कर और भी निखर जाता था ।अब एहसास भी नहीं उपजते उन सीले पन्नो से जो अकड़ जाते थे खारे पानी को पीकरऔर गुपचुप अपनी बात कह दिया करते थे।भीग कर लुप्त हुए शब्द भी, अब कहाँ कहते…
बरगद की छाँव सा शहरों में गाँव सा भंवर में नाव सा कोई और नहीं होता। फूलों में गुलाब सा रागों में मल्हार सा गर्मी में फुहार सा कोई और नहीं होता। नारियल के फल सा करेले के रस सा खेतों में हल सा कोई और नहीं होता। पूनम की निशा सा पथ में दिशा सा जीवन में “पिता” सा कोई…
तुमने मांगी थी वह बाती, जो जलती रहती अनवरत करती रहती रोशन तुम्हारा अँधेरा कोना. पर भूल गए तुम कि उसे भी निरंतर जलने के लिए चाहिए होता है साथ एक दीये का डालना होता है समय समय पर तेल.वरना सूख करबुझ जाती है वह स्वयंऔर छोड़ जाती हैदीये की सतह पर भीएक काली लकीर……